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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
    63

    श॒तेन॑ मा॒ परि॑ पाहि स॒हस्रे॑णा॒भि र॑क्ष मा। इन्द्र॑स्ते वीरुधां पत उ॒ग्र ओ॒ज्मान॒मा द॑धत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तेन॑ । मा॒ । परि॑। पा॒हि॒ । स॒हस्रे॑ण । अ॒भि । र॒क्ष॒ । मा॒ । इन्द्र॑: । ते॒ । वी॒रु॒धा॒म् । प॒ते॒ । उ॒ग्र: । ओ॒ज्मान॑म् । आ । द॒ध॒त् ॥१९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतेन मा परि पाहि सहस्रेणाभि रक्ष मा। इन्द्रस्ते वीरुधां पत उग्र ओज्मानमा दधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतेन । मा । परि। पाहि । सहस्रेण । अभि । रक्ष । मा । इन्द्र: । ते । वीरुधाम् । पते । उग्र: । ओज्मानम् । आ । दधत् ॥१९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (शतेन) सौ [उपाय] से (मा) मेरा (परि पाहि) सब प्रकार पालन कर, (सहस्रेण) सहस्र साधन से (मा) मेरी (अभि) सब ओर से (रक्ष) रक्षा कर। (वीरुधां पते) हे विविध प्रकार बढ़नेवाली प्रजाओं के पालक ! (उग्रः) महाबली (इन्द्रः) परमेश्वर (ते) तुझको (ओज्मानम्) पराक्रम (आ) यथावत् (दधत्) देता हुआ वर्तमान है ॥८॥

    भावार्थ

    राजा अपनी प्रजा की सदा रक्षा करे। वह पुरुषार्थी पुरुष परमेश्वर की न्यायव्यवस्था से सब बल पाता रहता है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(शतेन) शतसंख्याकेन रक्षणोपायेन (मा) माम् (परि) परितः (पाहि) रक्ष (सहस्रेण) सहस्रसंख्याकेन, साधनेन (अभिरक्ष) सर्वतः पालय (इन्द्रः) परमेश्वरः (ते) तुभ्यम् (वीरुधाम्) विरोहणशीलानां लतारूपाणां वा प्रजानाम् (पते) अधिपते (उग्रः) उद्गूर्णबलः। महाबली (ओज्मानम्) सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४५। इति ओज बले-मनिन्। बलम्। पराक्रमम् (आ) समन्तात् (दधत्) डुधाञ् दाने-शतृ। ददत् प्रयच्छन् वर्तते ॥

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    विषय

    शतेन-सहस्त्रेण

    पदार्थ

    १.हे अपामार्ग ! तू (शतेन) = सौ वर्षों से पूर्ण जीवन के हेतु से (मा परिपाहि) = मुझे इन रोगकृमियों की कृत्याओं से बचा। (स-हस्त्रेण)-आनन्दमय जीवन के हेतू से तू (मा अभिरक्ष) = मेरा रक्षण कर। २. हे (वीरुधां पते) = लताओं के स्वामिरूप [मुखिया] अपामार्ग! (उग्रः) = तेजस्वी (इन्द्रः) = प्रभु ने-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले परमात्मा ने (ते) = तुझमें (ओज्यानम्) = तेजस्विता को (आदधात्) = स्थापित किया है। तेरा तेज रोगकृमियों व रोगों का संहार करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    अपमार्ग में प्रभु ने उस तेज को स्थापित किया है जो रोग-विनाश द्वारा हमें शतवर्ष का आनन्दमय जीवन प्रास कराता है।

    विशेष

    अपमार्ग से व्यक्ति स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाला बनकर 'वेदमाता' के दर्शन करता है। यह वेदमाता इसकी अन्तर्दृष्टि को पवित्र करती है-उसे 'सब लोकों, सब पदार्थों व सब मनुष्यों को समझने की योग्यता प्राप्त कराती है। इस वेदमाता को अपनानेवाला यह व्यक्ति 'मातृनामा' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (शतेन) सौ रक्षोपायों द्वारा (मा) मेरी (परि) सब ओर से (पाहि) रक्षा कर, (सहस्रेण) तथा निज हजार शक्तियों द्वारा (अभि) साक्षात् (मा रक्ष) मेरी रक्षा कर (वीरुधांपते) हे विरोहण करनेवाली लताओं या ओषधियों के पति ! अपामार्ग ! (उग्रः इन्द्र') बलशाली इन्द्र (ते) तेरे लिए (ओज्मानम्) ओज का (आ दधत्) तुझमें आधान करे, स्थापन करे।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः =परमैश्वर्यवान् परमेश्वर, अपामार्ग में, रक्षा प्रदान के ओज को स्थापित करे। परमेश्वर-भेषज का वर्णन मन्त्र में नहीं हुआ। उस सर्व शक्तिमान् ओजस्वी को ओज प्रदान की शक्ति किसी में नहीं। वह स्वयं निज स्वाभाविक शक्ति द्वारा 'अपामार्ग' है, बुराइयों को 'अप' अर्थात् पृथक् कर, 'मार्ग' शुद्ध करनेवाला है 'मृजूष् शुद्धौ', वह पराशक्ति की अपेक्षा नहीं करता।]

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    विषय

    अपामार्ग-विधान का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (वीरुधां पते) नाना प्रकार से शत्रुत्रों को रोकने वाली सेनाओं और दण्डधाराओं के परिपालक पूर्वोक्त ‘अपामार्ग’ अर्थात् कण्टक शोधन करने में समर्थ दण्ड-विधान ! तू (उग्रः) उग्रस्वभाव होकर (ते) तेरे (ओज्मानम्) ओजः, तेज, रोब, प्रजाओं पर बिशेष दबदबे को (इन्द्रः) राजा (आदधत्) धारण करे और तू (मां) मुझ राष्ट्र को (शतेन) सौ प्रकार से, सैकड़ों प्रकारों से (परि पाहि) परिपालन कर और (सहस्रेण) सहस्रों उपायों से (मा अभि रक्ष) मुझे सुरक्षित रख। प्रजा के भीतरी प्रमाद और निर्बलताओं से और बाहर के आक्रमणों और दुर्घटनाओं से राजा अपने कानूनी बल से समर्थ होकर राष्ट्र की रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। २ पथ्यापंक्तिः, १, ३-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga:

    Meaning

    Promote me all over by a hundredfold vigour and vitality. Protect me all round by thosandfold forces against all danger and debility. O chief of herbs and sanatives, may mighty Indra, the omnipotence of Nature, bless you with lustrous vigour and efficacy.

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    Translation

    Protect me all round with a hundred and save me from all the sides with a thousand. O lord of plants, may the resplendent Lord infuse you with tremendous vigour.

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    Translation

    Let this save me with its hundred powers, let it protect me with its thousand potencies. The mighty sun gives the Strength and power to this plant which is the important medicine amongst other plants.

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    Translation

    Preserve me, O King with a hundred, yea, protect me with a thousand aids. O nourisher of the multi-progressing subjects, may Mighty God, givestore of strength and power to thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(शतेन) शतसंख्याकेन रक्षणोपायेन (मा) माम् (परि) परितः (पाहि) रक्ष (सहस्रेण) सहस्रसंख्याकेन, साधनेन (अभिरक्ष) सर्वतः पालय (इन्द्रः) परमेश्वरः (ते) तुभ्यम् (वीरुधाम्) विरोहणशीलानां लतारूपाणां वा प्रजानाम् (पते) अधिपते (उग्रः) उद्गूर्णबलः। महाबली (ओज्मानम्) सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४५। इति ओज बले-मनिन्। बलम्। पराक्रमम् (आ) समन्तात् (दधत्) डुधाञ् दाने-शतृ। ददत् प्रयच्छन् वर्तते ॥

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