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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
    53

    प्र॒त्यङ्हि सं॑ब॒भूवि॑थ प्रती॒चीन॑फल॒स्त्वम्। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ अधि॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्यङ् । हि । स॒म्ऽब॒भूवि॑थ । प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । त्वम् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥१९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यङ्हि संबभूविथ प्रतीचीनफलस्त्वम्। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्यङ् । हि । सम्ऽबभूविथ । प्रतीचीनऽफल: । त्वम् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवय । वधम् ॥१९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (त्वम्) तू (हि) ही (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष होकर (प्रतिचीनफलः) प्रतिकूल गति में रहनेवालों का नाश करनेवाला (संबभूविथ) हुआ है, [इस कारण] (मत्) मुझ से [शत्रु के] (सर्वान्) सब (शपथान्) शापों को और (वरीयः) अधिक विस्तीर्ण (वधम्) हथियार को (अधि) अधिकारपूर्वक (यवय) पृथक् कर ॥७॥

    भावार्थ

    पराक्रमी विजयी राजा शत्रुओं का नाश करके प्रजा को सुख पहुँचावे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(प्रत्यङ्) प्रति+अञ्चु-क्विन्। प्रत्यञ्चनः। प्रतिगतः। अभिमुखः सन् (हि) एव (संबभूविथ) सम्यग् विद्यमानो बभूविथ (प्रतीचीनफलः) प्रत्यच्-ख प्रत्ययः, ञिफला विशरणे-अच्। प्रत्यक् प्रतिगमनं तत्र भवानां फलं विशरणं नाशनं यस्मात् स तथाभूतः। प्रतिगतिभवानां शत्रूणां विदारकः (त्वम्) राजन् (सर्वान्) (मत्) मत्तः (शपथान्) शापान्। शत्रुकृतानि दुर्वाक्याणि (अधि) अधिकृत्य (वरीयः) उरु-ईयसुन्। उरुतरं विस्तीर्णतरम् (यवय) पृथक् कुरु (वधम्) हननसाधनम्। आयुधम् ॥

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    विषय

    'शपथ व वध'-निराकरण

    पदार्थ

    १. हे अपामार्ग! (त्वम्) = तू (हि) = निश्चय से (प्रत्यङ्) = हमारी ओर गतिवाला होता हुआ-हमारे अन्दर प्रास होता हुआ (प्रतीचीनफल:) = हमारे विरोधियों का-रोगजनक कृमियों का विशरण [जिफला विशरणे] करनेवाला (संबभूविथ) = होता है। तु हमारे शरीरों में प्रविष्ट होकर सब रोगकृमियों को समाप्त कर देता है। २. तू (मत्) = मुझसे (सर्वान्) = सब (शपथान्) = रोगपीड़ा-जनक आक्रोशों का तथा (वधम्) = रोगजनित हिंसन को (वरीय:) = [उस्तरम्] खूब ही-बहुत ही (अधियावय) = आधिक्येन पृथक् कर । तेरै प्रयोग से न तो हमें रोगजनित पीड़ाएँ प्राप्त हों और न ही यह रोग हमें नष्ट करनेवाला हो।

    भावार्थ

    शरीर में पहुँचकर अपामर्ग रोगकृमियों का विनाश कर देता है और हमें रोगजनित पीड़ाओं व बाधाओं से बचाता है।

     

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    भाषार्थ

    [हे अपामार्ग !] (त्वम्) तू (प्रतीचीनफल:) प्रतीपमुखी फलों वाला, (हि) ही (प्रत्यङ्) प्रतीपमुखी (संबभूविथ) उत्पन्न हुआ है। (सर्वान, शपथान्) सब शपथों को (मत् अधि) मुझसे (यावय) पृथक् कर, तथा (वधम्) वध को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) अलग कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में शपथ और तद् द्वारा उत्पन्न वध को दुर या पृथक् करने का निर्देश हुआ है। जैसे अपामार्ग के फलों के मुख प्रतीपमुखी होते हैं, वैसे शपथों और तज्जन्य दुःखरूपी फल को भी प्रतीपमुखी करने की प्रार्थना हुई है, न शपथें हों और न उनका दुःखरूपी फल ही मुझे प्राप्त हो। शपथ और अभिशाप भिन्न-भिन्न हैं। शपथ स्वयं ली जाती है, और अभिशाप दूसरे द्वारा प्राप्त होता है। शपथें झूठी होती हैं, अतः झूठ का फल मिलता है-वध, दुःख। परमेश्वर-भेषज पक्ष में फलदायक परमेश्वर है। वह शपथ आदि दुष्कर्मों का फल देता है, दुःख और कष्ट। इसे जानकर व्यक्ति दुष्कर्मों के करने से प्रतीपमुखी हो जाता है, और दुःख या कष्टरूपी वध को प्राप्त नहीं करता।]

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    विषय

    अपामार्ग-विधान का वर्णन।

    भावार्थ

    ‘अपामार्ग-विधान’ की ‘अपामार्ग’ ओषधि से तुलना करते हैं। जिस प्रकार अपामार्ग के फल उसकी दण्डी पर उलटे लगे रहते हैं उसी प्रकार हे अपामार्ग विधान ! (त्वं प्रतीचीनफलः) तू प्रतीचीन उलटे फलों वाला है अर्थात् प्रथम दुःखकर और फिर फल मैं सुख-कर ही होता है। अतः क्योंकि तू (प्रत्यङ् सम्बभूविथ) जिन पर अपामार्ग विधान का प्रयोग किया जाता है उनके प्रति प्रत्यङ् = प्रतिकूल होकर प्रयुक्त होता है इस कारण (सर्वान्) सब (मत् शपथान्) मेरे प्रति उठने वाले निन्दात्मक वचनों और निन्दकों को (यवय) विनाश कर और (वरीयः) अधिक से अधिक उठने वाले (वधम्) हथियारों को भी (अधि यवय) दबा कर नष्ट करदे। अपामार्ग-विधान से राजा अपने निन्दकों और हत्याकारी प्राण विरोधियों को भी दबावे। बल्कि प्रथम विरोध और निन्दा उठने पर भी सत्फलों को देख कर लोग पुनः राजा का गुणानुवाद ही करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। २ पथ्यापंक्तिः, १, ३-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga:

    Meaning

    You are the giver of the fruit of action: direct for the positive, indirect and reverse for the negative. Pray revert all negativities and enmities directed against me, and revert all deadly weapons away from me.

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    Translation

    Indeed you are born reverting with your fruit turned backwards. May you turn all the curses and weapons of murder far away from me.

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    Translation

    This Apamarga first acts reverse to him on whom it is applied and afterward cure him. Its fruit is also turned backward. Let it drive away all delirious effects from us and keep most remote the stroke of death.

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    Translation

    O King, thou art the destroyer of those who lead an ignoble life. Remove all curses of the enemy far from me. Keep most remote from me his extended weapon!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(प्रत्यङ्) प्रति+अञ्चु-क्विन्। प्रत्यञ्चनः। प्रतिगतः। अभिमुखः सन् (हि) एव (संबभूविथ) सम्यग् विद्यमानो बभूविथ (प्रतीचीनफलः) प्रत्यच्-ख प्रत्ययः, ञिफला विशरणे-अच्। प्रत्यक् प्रतिगमनं तत्र भवानां फलं विशरणं नाशनं यस्मात् स तथाभूतः। प्रतिगतिभवानां शत्रूणां विदारकः (त्वम्) राजन् (सर्वान्) (मत्) मत्तः (शपथान्) शापान्। शत्रुकृतानि दुर्वाक्याणि (अधि) अधिकृत्य (वरीयः) उरु-ईयसुन्। उरुतरं विस्तीर्णतरम् (यवय) पृथक् कुरु (वधम्) हननसाधनम्। आयुधम् ॥

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