Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः, अथर्वा वा देवता - इन्द्रः, क्षत्रियो राजा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमित्रक्षयण सूक्त
    70

    सिं॒हप्र॑तीको॒ विशो॑ अद्धि॒ सर्वा॑ व्या॒घ्रप्र॑ती॒कोऽव॑ बाधस्व॒ शत्रू॑न्। ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा खि॑दा॒ भोज॑नानि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सिं॒हऽप्र॑तीक: । विश॑: । अ॒ध्दि॒ । सर्वा॑: । व्या॒घ्रऽप्र॑तीक: । अव॑ । बा॒ध॒स्व॒ । शत्रू॑न् । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । इन्द्र॑ऽसखा । जि॒गी॒वान् । श॒त्रु॒ऽय॒ताम् । आ । खि॒द॒ । भोज॑नानि ॥२२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिंहप्रतीको विशो अद्धि सर्वा व्याघ्रप्रतीकोऽव बाधस्व शत्रून्। एकवृष इन्द्रसखा जिगीवां छत्रूयतामा खिदा भोजनानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सिंहऽप्रतीक: । विश: । अध्दि । सर्वा: । व्याघ्रऽप्रतीक: । अव । बाधस्व । शत्रून् । एकऽवृष: । इन्द्रऽसखा । जिगीवान् । शत्रुऽयताम् । आ । खिद । भोजनानि ॥२२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (सिंहप्रतीकः) सिंहतुल्य पराक्रमी तू (सर्वाः) सब [शत्रुओंके] (विशः) मनुष्यों को (अद्धि) खाले, (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्रसमान झपट कर (शत्रून्) दुष्ट वैरियों को (अव बाधस्व) हटादे। (इन्द्रसखा) परमेश्वर का मित्र, (जिगीवान्) विजयी और (एकवृषः) अद्वितीय प्रधान तू (शत्रूयताम्) शत्रु जैसे आचरणवाले मनुष्यों के (भोजनानि) भोगों के साधन धन-धान्यों को (आ खिद) छीनले ॥७॥

    भावार्थ

    राजा पूर्ण पराक्रम से शत्रुओं की सेनाओं और शत्रुओं का नाश करे और सब प्रकार से विजय प्राप्त करके उन्हें अपने अधीन रक्खे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(सिंहप्रतीकः) सिंह इति। गतम्-अ० ४।८।७। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ-कीकन्। प्रतीयते स प्रतीकः। प्रतीतिः ख्यातिः। सिंहतुल्यपराक्रमः (विशः) प्रजाः शत्रूणाम् (अद्धि) अद भक्षणे-लोट्। भुङ् क्षत्र नाशय (सर्वाः) सकलाः (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्रवदाक्रमणशीलः (अव बाधस्व) निवारय (शत्रून्) शातयितॄन्। हिंसकान् (आखिद) खिद दैन्ये परिघाते च। आङ् पूर्वः खिदिः आच्छेदने। आच्छिन्धि। अपहरेत्यर्थः। अन्यद् व्याख्यातं म० ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सिंहप्रतीक:-व्याघ्रप्रतीक:

    पदार्थ

    १. (सिंहप्रतीक:) = सिंहतुल्य पराक्रमवाला, सिंह-शरीर होता हुआ तू आज्ञामात्र से (सर्वाः विश:) = सब प्रजाओं को (अद्धि) = खानेवाला बन, अर्थात् तू उनसे कररूप उचित धन प्राप्त करनेवाला बन। कोई भी व्यक्ति कुछ भी कर न देनेवाला न हो। श्रमिक भी तीस दिन में एक दिन अवैतनिक राजकार्य करे। २. (व्याघ्रप्रतीक:) = व्याघ्र-शरीर होता हुआ--व्याघ्र की भांति आक्रमण करके (शत्रुन्) = शत्रुओं को (अवबाधस्व)  = राष्ट्र की सीमाओं से दूर ही रख। ३. (एकवृष:) = अद्वितीय शक्तिशाली होता हुआ (इन्द्रसखा) = प्रभुरूप मित्रवाला (जिगीवान्) = शत्रुओं को जीतता हुआ (शत्रूयताम्) = शत्रुवत् आचरण करते पुरुषों के भोजननानि भोग-साधन धनों को (आखिद) = छिन्न करनेवाला-अपहत करनेवाला हो।

    भावार्थ

    राजा सिंह के समान प्रभावशाली शरीरवाला होता हुआ राष्ट्र में उचित करों को लेनेवाला बने, व्याघ्र के समान आक्रमण करके शत्रुओं को राष्ट्र की सीमा से दूर ही रक्खे।

     

    विशेष

    इस सुरक्षित, सुव्यवस्थित राष्ट्र में साधनामय जीवन बिताता हुआ व्यक्ति आत्मान्वेषण करनेवाला [मृग] सब दोषों को दूर करने के लिए गतिशील [अरः, ऋ गतौ] बनता है। यह 'मृगार' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (सिंहप्रतीक:) शेर के सदृश (सर्वाः विशः) शत्रु की सब प्रजाओं को (अद्धि) तू खा, अर्थात् उनकी सम्पत्तियों का भोग कर, (व्याघ्रप्रतीकः) भेड़िये के सदृश (शत्रून्) शत्रुओं को (अव बाधस्व) तू विलोडित कर। (एकवृषः) अकेला या मुख्य सुखवर्षी, (इन्द्र-सखा) सम्राट् रूपी मित्रवाला, तू (जिगीवान्) विजयी हुआ है, (शत्रूयताम) शत्रुता चाहने-करनेवालों की (भोजनानि) भोजन-सामग्रियों को (आभर) आहरण कर ले, छीन ले [मन्त्र ६]। (आखिद) पूर्णतया दैन्यावस्था१ में कर दे, या पूर्णतया नष्ट कर दे।

    टिप्पणी

    [आखिद्= आ+खिद (दैन्ये, दिवादिः, रुधादिः); खिद परिघातने (तुदादि:)।] अवबाधास्व= अव + बाधृ विलोडने(भ्वादि:)] [१. अर्थात् उसपर प्रतिबन्ध लगा देना, शत्रु तक पहुँचने न देना।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का स्थापन।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू (सिंहप्रतीकः) सिंह के समान शूरवीर होकर (सर्वाः) समस्त (विशः) प्रजाओं और राष्ट्रों का (अद्धि) भोग कर। और (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्र के समान बलवान् होकर (शत्रून्) सब शत्रुओं को (अवबाधस्व) पीड़ित कर, अपने नीचे दबा। (एकवृषः इन्द्रसखा) तू एकमात्र सबसे श्रेष्ठ होकर तथा सेनापति का मित्र होकर (शत्रूयताम् जिगीवान्) शत्रुओं का विजय करता हुआ (भोजनानि आ खिद) उनके खाद्य पदार्थों को छीन कर लेआ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठोऽथर्वा वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Social Order

    Meaning

    Icon of the regal lion as ruler of the people, rule and have taxes from the people but spend and consume the money like yajnic fire. Icon of the ferocious tiger, fight out all the enemies, sole one, unique and mighty, friend and favourite of Indra, conqueror of enemies, take away all their powers and privileges which are the fuel of their enmity. (This idea of the expenditure of income is clearly expressed in Rgveda 6, 59, 3 through the metaphor of yajna: National income by taxes is havi, expenditure is oblation, and the return is fragrance. The Vedic idea of political and administrative management of national economy is: Maximum production from the minimum investment.)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Just like a lion, eat up all the clans, Just like a tiger defeat and drive away the enemies. Unrivalled in power, friendly to the resplendent Lord, and victorious may yoú snatch away the wealth of those who behave as enemy.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O King ! hold along all the subjects with lion aspect and drive away your foemen with tiger aspect. You as a sole lord and allied with Almighty Lord becoming conqueror seize the possessions of your enemies.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Brave like a lion, receive thy share from thy subjects, strong like a tiger, drive away thy foemen. Sole lord and leader, devoted to God, conqueror, seize thine enemies possessions.

    Footnote

    Thou’, ‘thine’ refer to the king. Receive share: A king should levy taxes on the subjects, and realize money for main training himself, and efficiently running his administration.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(सिंहप्रतीकः) सिंह इति। गतम्-अ० ४।८।७। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ-कीकन्। प्रतीयते स प्रतीकः। प्रतीतिः ख्यातिः। सिंहतुल्यपराक्रमः (विशः) प्रजाः शत्रूणाम् (अद्धि) अद भक्षणे-लोट्। भुङ् क्षत्र नाशय (सर्वाः) सकलाः (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्रवदाक्रमणशीलः (अव बाधस्व) निवारय (शत्रून्) शातयितॄन्। हिंसकान् (आखिद) खिद दैन्ये परिघाते च। आङ् पूर्वः खिदिः आच्छेदने। आच्छिन्धि। अपहरेत्यर्थः। अन्यद् व्याख्यातं म० ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top