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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
    126

    अ॒हमे॒व स्व॒यमि॒दं व॑दामि॒ जुष्टं॑ दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। यं का॒मये॒ तन्त॑मु॒ग्रं कृ॑णोमि॒ तं ब्र॒ह्माणं॒ तमृषिं॒ तं सु॑मे॒धाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । ए॒व । स्व॒यम् । इ॒दम् । व॒दा॒मि॒ । जुष्ट॑म् । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मानु॑षाणाम् । यम् । का॒मये॑ । तम्ऽत॑म् । उ॒ग्रम् । कृ॒णो॒मि॒ । तम् । ब्र॒ह्माण॑म् । तम् । ऋषि॑म् । तम् । सु॒ऽमे॒धाम् ॥३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्। यं कामये तन्तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । एव । स्वयम् । इदम् । वदामि । जुष्टम् । देवानाम् । उत । मानुषाणाम् । यम् । कामये । तम्ऽतम् । उग्रम् । कृणोमि । तम् । ब्रह्माणम् । तम् । ऋषिम् । तम् । सुऽमेधाम् ॥३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (एव) ही (स्वयम्) आप (देवानाम्) सूर्य आदि लोकों (उत) और (मानुषाणाम्) मननशील मनुष्यों का (जुष्टम्) प्रिय (इदम्) यह वचन (वदामि) कहता हूँ। [अर्थात्] (यम्) जिस-जिसको (कामये) मैं चाहता हूँ (तम्-तम्) उस-उसको ही [कर्मानुसार] (उग्रम्) तेजस्वी, (तम्) उस को ही (ब्रह्माणम्) वृद्धिशील ब्रह्मा, (तम्) उसी को (ऋषिम्) सन्मार्गदर्शक ऋषि, (तम्) उसीको (सुमेधाम्=०-धम्) उत्तम बुद्धिवाला (कृणोमि) बनाता हूँ ॥—३॥

    भावार्थ

    परमात्मा सब लोकों और प्राणियों को शरण में रखकर उपदेश करता है कि मैं अपने आज्ञाकारियों को प्रीतिपूर्वक उत्तम गति देता हूँ ॥—३॥

    टिप्पणी

    ३−(अहम्) परमेश्वरः (एव) अवधारणे। नान्योऽस्ति ममोपदेष्टेति यावत् (स्वयम्) आत्मना (इदम्) अनुभूयमानं ब्रह्मात्मकं वाक्यम् (वदामि) उपदिशामि। प्रकटयामि (जुष्टम्) प्रियं हितम्। सेवितम् (देवानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (उत) अपि च (मानुषाणाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम् (यम्) उपासकम् (कामये) वाञ्छामि (तम्-तम्) प्रत्येकं वीप्सितं पुरुषम् (उग्रम्) दुष्प्रधर्षं तेजस्विनम् (कृणोमि) करोमि (ब्रह्माणम्) बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। इति बृहि वृद्धौ-मनिन्। नस्य अकारः। बृंहति वर्धते बृंहयति वर्धयति वेदज्ञानेन स ब्रह्मा। विधातारं ब्रह्माणम् (ऋषिम्) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० २।१। आप्तं सन्मार्गदर्शकम् (सुमेधाम्) दीर्घश्छान्दसः। सुमेधम्। सुमेधसम्। शोभनप्रज्ञम् ॥—

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    विषय

    उग्र ऋषि, ब्रह्मा व सुमेधा

    पदार्थ

    १. (अहम् स्वयम् एव) = मैं स्वयं ही (इदं वदामि) = इस ज्ञान को उच्चारित करता हूँ, जो ज्ञान (देवानां जुष्टम्) = देवताओं से प्रीतिपूर्वक सेवित होता है (उत) = और (मानुषाणाम्) = विचारशील पुरुषों से सेवित हुआ करता है। प्रभु अग्नि आदि देवों के हृदयों में इस ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। अग्नि आदि से यह ज्ञान विचारशील पुरुषों को प्राप्त होता है। २. (यं कामये) = जिन्हें मैं चाहता हैं, जो मेरे प्रिय बनते हैं (तं तम् उग्रं कृणोमि) = उन-उनको मैं तेजस्वी बनाता हैं, (तं ब्रह्माणम्) = उसे ज्ञानी बनाता हूँ (तम् ऋषिम्) = उसे तत्त्वद्रष्टा व गतिशील बनाता हूँ, (तं सुमेधाम्) = उसे उत्तम मेधावाला बनाता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु सष्टि के आरम्भ में अग्नि आदि देवों को वेद-ज्ञान प्रदान करते हैं। उनसे यह ज्ञान मनुष्यों को प्राप्त होता है। हम प्रभु-प्रिय बनते हैं तो वे प्रभु हमें 'उग्र, ब्रह्मा, ऋषि व सुमेधा' बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (अहम्, एव, स्वयम्) मैं ही अपने-आप (इदम्) इसे (वदामि) कहती हूँ, जोकि (देवानाम उत, मानुषाणाम्) देवों के लिए तथा मनुष्यों के लिए (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक सेवनीय है; (यम्) जिसे (कामये) मैं चाहती हूं, (तम् तम्) उस-उसको (उग्रम्) उग्ररूप या उग्रकर्मा, (तम्) उसे (ब्रह्माणम्) ब्रह्मा, (तम् ऋषिम्) उसे ऋषि, (तम् सुमेधाम्) उसे उत्तम-मेधावाला (कृणोमि) करती हूं।

    टिप्पणी

    [वदामि= वेद द्वारा। वेद पारमेश्वरी माता द्वारा रचित है। जुषम्= जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादिः)। ब्रह्मा= "ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्" (ऋ० १०।७१।११), "ब्रह्मैको जाते जाते विद्यां वदति। ब्रह्मा सर्वविद्यः सर्व वेदितुमर्हति। ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः" (निरुक्त १।३।८)। देवानाम्= विद्वानों को, मानुषाणाम्= सर्वसाधारण मनुष्यों को। ऋषि= वेदवक्ता या वेदार्थ वक्ता। पारमेश्वरी माता उग्र आदि को उन-उनके कर्म अनुसार, तदनुरूप फल देती है, स्वेच्छाचारिता द्वारा नहीं। वह कर्मफल प्रदात्री है।]

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    विषय

    परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं परमेश्वर (एव) ही (देवानां जुष्टं) देव-विद्वानों के हितकर उन से सेवन करने, एवं प्रिय लगने योग्य (उत) और (मानुषाणां) मनुष्यों, मननशील जीवों के हितकारी (इदं) इस अनुभव योग्य, साक्षात् आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का वेद रूप में (स्वयं) स्वयं अपने आप (वदामि) उपदेश करता हूं। और (यं कामये) जिस २ को मैं उस उस के कर्मानुसार उचित समझता हूं (तं तं) उस २ को (उग्रं) सब से अधिक बलवान् एवं ऐश्वर्यवान् (तं) और उस २ को (ब्रह्माणम्) ब्रह्मा (तं ऋषिं) उस २ को ऋषि और (तं) उस २ को (सुमेधाम्) उत्तम धारणावती बुद्धि से सम्पन्न (कृणोमि) करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All-sustaining Vak

    Meaning

    I myself speak all this that is loved, adored and spoken by sages and veteran scholars and even by mortals of average but honest mind. Whosoever I love for his or her merit of nature, character and performance, I raise to brilliance, to piety worthy of a yajnic Brahma, to the vision of a poetic sage and the high intelligence of an exceptional thinker.

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    Translation

    I am the sovereign queen (the supreme speech) of the-state, who collects treasure; (I am) full of wisdom, first among those who deserve reverence; and as such, learned people honour me under all circumstances, in many problems and in numerous functions.(Also Rg. X.125.3)

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    Translation

    I, verily, myself announce and inform whatever is favorable to learned men and common people. I make the man whom so ever I desire and find fit, the mighty, the Brahman, the seer and the learned one.

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    Translation

    I verily, myself announce and utter sages and men alike shall welcome. I make the man I love, exceedingly mighty, make him a Rishi, and a Brahma.

    Footnote

    Brahma: Knower of the Vedas. Rishi: A person spiritually advanced.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अहम्) परमेश्वरः (एव) अवधारणे। नान्योऽस्ति ममोपदेष्टेति यावत् (स्वयम्) आत्मना (इदम्) अनुभूयमानं ब्रह्मात्मकं वाक्यम् (वदामि) उपदिशामि। प्रकटयामि (जुष्टम्) प्रियं हितम्। सेवितम् (देवानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (उत) अपि च (मानुषाणाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम् (यम्) उपासकम् (कामये) वाञ्छामि (तम्-तम्) प्रत्येकं वीप्सितं पुरुषम् (उग्रम्) दुष्प्रधर्षं तेजस्विनम् (कृणोमि) करोमि (ब्रह्माणम्) बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। इति बृहि वृद्धौ-मनिन्। नस्य अकारः। बृंहति वर्धते बृंहयति वर्धयति वेदज्ञानेन स ब्रह्मा। विधातारं ब्रह्माणम् (ऋषिम्) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० २।१। आप्तं सन्मार्गदर्शकम् (सुमेधाम्) दीर्घश्छान्दसः। सुमेधम्। सुमेधसम्। शोभनप्रज्ञम् ॥—

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