अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
54
अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन्मम॒ योनि॑र॒प्स्वन्तः स॑मु॒द्रे। ततो॒ वि ति॑ष्ठे॒ भुव॑नानि॒ विश्वो॒तामूं द्यां व॒र्ष्मणोप॑ स्पृशामि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । सु॒वे॒ । पि॒तर॑म् । अ॒स्य॒ । मू॒र्धन् । मम॑ । योनि॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । स॒मु॒द्रे । तत॑: । वि । ति॒ष्ठे॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ । उ॒त । अ॒मूम् । द्याम् । व॒र्ष्मणा॑ । उप॑ । स्पृ॒शा॒मि॒ ॥ ३०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । सुवे । पितरम् । अस्य । मूर्धन् । मम । योनि: । अप्ऽसु । अन्त: । समुद्रे । तत: । वि । तिष्ठे । भुवनानि । विश्वा । उत । अमूम् । द्याम् । वर्ष्मणा । उप । स्पृशामि ॥ ३०.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (अस्य) इस जगत् के (मूर्धन्) नियम के निमित्त (पितरम्) पालन करनेवाले गुण को (सुवे) उत्पन्न करता हूँ। (मम) मेरा (योनिः) घर (समुद्रे) अन्तरिक्ष में वर्तमान (अप्सुअन्तः) व्यापनशील रचनाओं के भीतर है। (ततः) इसीसे (विश्वा) सब (भुवनानि) प्राणियों में (वि तिष्ठे) व्यापक होकर वर्तमान हूँ (उत) और (अमूम् द्याम्) उस प्रकाशमान सूर्य को (वर्ष्मणा) अपने ऐश्वर्य से (उप स्पृशामि) छूता रहता हूँ ॥७॥
भावार्थ
परमेश्वर सब में व्यापक रहकर सबका पालन कर्ता, और नियन्ता और उपास्य है ॥७॥
टिप्पणी
७−(अहम्) परमेश्वरः (सुवे) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने। जनयामि (पितरम्) पालकं गुणं (अस्य) दृश्यमानस्य। जगतः (मूर्धन्) अ० ३।६।६। मुर्व बन्धने-कनिन्। मूर्धनि। बन्धने। नियमे निमित्ते (मम) (योनिः) गृहम्-निघ० ३।४। (अप्सु) व्यापनशीलासु प्रकृतिरचनासु (अन्तः) मध्ये (समुद्रे) अ० १।३।८। समुद्रवन्त्यस्माद् भूतानि। अन्तरिक्षो-निघ० १।३। (ततः) तस्मात्कारणात् (वितिष्ठे) समवप्रविभ्यः स्थः। पा० १।३।२२। इति आत्मनेपदम्। विविधं व्याप्य तिष्ठामि (भुवनानि) भूतजातानि (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (अमूम्) विप्रकृष्टाम् (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (वर्ष्मणा) अ० ३।४।२। वृषु प्रजननैश्ययोः-मनिन्। स्वैश्वर्येण (उप स्पृशामि) व्याप्नोमि-इत्यर्थः ॥
विषय
'सूर्य व जलों के निर्माता' प्रभु
पदार्थ
१. (अहम्) = मैं (अस्य) = इन जगत् के (मूर्धन्) = मस्तकरूप आकाश में-युलोक में (पितरम्) = इस पालक सुर्य को (सुवे)= उत्पन्न करता है-'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य:'-यह सूर्य ही सब प्रजाओं का प्राण है। २. (मम) = मेरा (योनिः) = गृह (अप्सु अन्त:) = जलो के अन्दर (समुद्रे) = समुद्र में है। जल व समुद्रों में भी मेरा ही वास है। मेरे ही कारण उनमें रस है-'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'। ३. तत:-इसप्रकार सूर्य व जलों का निर्माण करके (विश्वा भवनानि) = सब भवनों में (वितिष्ठे) = मैं स्थित होता हूँ। (उत) = और (वर्मणा) = मैं अपने शरीर-प्रमाण से (अमूं द्याम्) = उस सुदूरस्थ झुलोक को (उपस्पृशामि) = छूता हूँ। वस्तुत: यह धुलोक मेरे विराट् शरीर का मूर्धा ही तो है।
भावार्थ
प्रभु सूर्य को द्युलोक में स्थापित करते हैं। प्रभु ही जलों में रसरूप से स्थित हैं। वे सब लोकों में व्यास हैं।
भाषार्थ
(अस्य) इस भूमण्डल के (पितरम्) पिता को (मूर्धन्) मूर्धा-स्थान में (अहम्) मैं पारमेश्वरी माता (सुवे) प्रसूत करती हूँ, उत्पन्न करती हूँ, (मम योनिः) मेरा घर है (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर, (समुद्रे) तथा अन्तरिक्ष में; (ततः) वहाँ से (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में (वि तिष्ठे) विविध रूपों में मैं स्थित होती हूँ, (उत) तथा (वर्ष्मणा) ऊँचाई द्वारा (अमूम् द्याम्) उस द्युलोक को (उप) समीप होकर (स्पृशामि) स्पर्श करती हूँ।
टिप्पणी
[पितरम्= सूर्य को। सूर्य सब ग्रहों का पिता है, भूमण्डल का भी पिता है। भूमण्डल आदि ग्रह सूर्य से फटकर पृथक् हुए हैं, जैसे कि सन्तानें, पिता के शरीर से वीर्यरूप में फटकर उत्पन्न होती हैं। मूर्धा है शिर:स्थानीय द्युलोक का अधोभाग। द्युलोक के इस भाग से ऊपर द्युलोक है। योनि का अर्थ है गृह। यथा योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)। अप्सु अन्तः= जलों में रहनेवाले जलचरों में, तथा जलों में। समुद्रे= समुद्रः अन्तरिक्षनाम (निघ० १।३) वर्ष्मणा= वर्ष्म=ऊँचाई१; वर्ष्म-= Height (आप्टे)। उप= प्रेमपूर्वक स्पर्श, आलिङ्गन शरीरों की अति समीपता से ही हो सकता है।] [१. परमेश्वर सर्वव्यापक है, अत: वह सब ऊँचाइयों को निज ऊँचाई द्वारा स्पर्श किये हुए है।]
विषय
परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(अहं) मैं ईश्वरी शक्ति (अस्य) इस सौर मण्डल के (मूर्धन्) शिर-स्थान में (पितरम्) इसके पिता, परिपालक सूर्य को (सुवे) उत्पन्न करती हूं। (समुद्रे) समस्त भूतों और प्राणियों के उद्गम स्थान (अप्सु) तथा समस्त जगत् प्रपन्च में व्यापक महत्-रूप मूल कारण परमाणुओं (अन्तः) में (मम) मुझ ईश्वरी शक्ति का (योनिः) कारण रूप से आवासस्थान है। (ततः) उसी मेरे आवासस्थान से जहां मैंने मूल कारण प्रकृति में संसार प्रपंच का बीज वपन किया, वहां से ही (विश्वा भुवनानि) समस्त लोकों को (वि तिष्ठे) व्यवस्थित करती हूं. उनकी रचना करती हूं। और (अमूम् द्याम्) उस दूरस्थ आकाश में व्यापक दिव्य लोकमयी सृष्टि को (वर्ष्मणा) अपने स्वरूप से (उप स्पृशामि) आच्छादित करती हूं अर्थात् मैंने विशाल आकाश को भी ढका है।
टिप्पणी
मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ सर्वयोनिषु कौंतेय मूर्त्तयः संभवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद् योनिरहं बीजप्रदः प्रिता॥ गीता। अ० १४। ३, ४॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
All-sustaining Vak
Meaning
I create the parental protector on top of this human nation and this world in the form of the ruler and the sun. My place and presence is in the oceanic depth of waters and in the expanding particles of space. That same way I abide in all worlds of the universe, and I reach the high heaven of light and touch the very top of it with my light and grandeur.
Translation
I establish the father, the heaven, at the summit of the world, my birth place is in the midst of the celestial waters; thence I spread through all beings, and touch even yonder heaven with my glory. (Also Rg. X.125.7)
Translation
I crown the sovereign on the summit of this state, my territorial jurisdiction extends to the interior of atmospheric region and to the interior of the sea. Therefore I extend over all territories and I touch this heavenly region with my power.
Translation
On the world's summit I bring forth the Sun, My home is in the atoms of the ocean of Matter. Thence I extend over all existing worlds, and engulf even yonder heaven with my power.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अहम्) परमेश्वरः (सुवे) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने। जनयामि (पितरम्) पालकं गुणं (अस्य) दृश्यमानस्य। जगतः (मूर्धन्) अ० ३।६।६। मुर्व बन्धने-कनिन्। मूर्धनि। बन्धने। नियमे निमित्ते (मम) (योनिः) गृहम्-निघ० ३।४। (अप्सु) व्यापनशीलासु प्रकृतिरचनासु (अन्तः) मध्ये (समुद्रे) अ० १।३।८। समुद्रवन्त्यस्माद् भूतानि। अन्तरिक्षो-निघ० १।३। (ततः) तस्मात्कारणात् (वितिष्ठे) समवप्रविभ्यः स्थः। पा० १।३।२२। इति आत्मनेपदम्। विविधं व्याप्य तिष्ठामि (भुवनानि) भूतजातानि (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (अमूम्) विप्रकृष्टाम् (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (वर्ष्मणा) अ० ३।४।२। वृषु प्रजननैश्ययोः-मनिन्। स्वैश्वर्येण (उप स्पृशामि) व्याप्नोमि-इत्यर्थः ॥
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