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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
    59

    अ॒हमे॒व वात॑इव॒ प्र वा॑म्या॒रभ॑माणा॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्यैताव॑ती महि॒म्ना सं ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । ए॒व । वात॑:ऽइव । प्र । वा॒मि॒ । आ॒ऽरभ॑माणा । भुव॑नानि । विश्वा॑ । प॒र: । दि॒वा । प॒र: । ए॒ना । पृ॒थि॒व्या । ए॒ताव॑ती । म॒हि॒म्ना । सम् । ब॒भू॒व॒ ॥३०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमेव वातइव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । एव । वात:ऽइव । प्र । वामि । आऽरभमाणा । भुवनानि । विश्वा । पर: । दिवा । पर: । एना । पृथिव्या । एतावती । महिम्ना । सम् । बभूव ॥३०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम् एव) मैं ही (विश्वा) सब (भुवनानि) प्राणियों को (आरभमाणा=आलभमाना) छूती हुई शक्ति (वातः) पवन के समान (प्र वामि) चलती रहती हैं। (दिवा) सूर्यलोक से (परः) परे और (एना पृथिव्या) इस पृथिवी से (परः) परे [वर्तमान होकर] (एतावती) इतनी बड़ी शक्ति (महिम्ना) अपनी महिमा से (संबभूव) हो गई हूँ ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे वायु सब सांसारिक पदार्थों को अवलम्बन कर्ता है, उसी प्रकार परमात्मा वायु का भी आश्रय दाता है और वह इन्द्रियों के विषय, सूर्य पृथिवी आदि पदार्थों से अलग है। उसकी महिमा को जान कर सब मनुष्य पुरुषार्थी होकर आनन्दित रहें ॥८॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इत्यष्टमः प्रपाठकः ॥

    टिप्पणी

    ८−(अहम्) परमेश्वरः (एव) निश्चयेन (वातः) पवनः (इव) यथा (प्र वामि) प्रवर्ते (आरभमाणा) आङ् पूर्वको लभ स्पर्शे-शानच्। लस्य रः। आलभमाना। स्पृशन्ती। आलम्बमाना शक्तिः (भुवनानि) भूतजातानि लोकान् वा (विश्वा) सर्वाणि (परः) परस्तात्। दूरे (दिवा) सूर्येण (एना) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति आच्। एनया। अनया। (पृथिव्या) भूम्या (एतावती) यत्तदेतेभ्यः परिमाणे०। पा० ५।२।३९। इति एतद्-वतुप्। आ सर्वनाम्नः। पा० ६।३।५१। इति आत्वम्। एतत्परिमाणा महती (महिम्ना) माहात्म्येन (सं बभूव) समर्था बभूव ॥

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    विषय

    एतावनस्य महिमा, अतो ज्यायाँश्च पूरुषः

    पदार्थ

    १. (अहम् एव) = मैं ही (विश्वा भुवनानि आरभमाणा) = सब भुवनों को बनाता हुआ (वात:इव प्रवामि) = वायु की भौति गतिवाला होता है। जिस प्रकार वायु निरन्तर चल रही है, इसीप्रकार प्रभु की क्रिया भी स्वाभाविक है। वे अपनी इस क्रिया से ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं। इस निर्माण कार्य में उन्हें किसी दूसरे की सहायता अपेक्षित नहीं होती। २. वे प्रभु (दिवा पर:) = इस धुलोक से परे भी हैं और (एना पृथिव्या परः) = इस पृथिवी से भी परे हैं। ये धुलोक और पृथिवीलोक प्रभु को अपने में नहीं समा पाते। (महिम्ना) = अपनी महिमा से वह प्रभु-शक्ति (एतावती) = इतनी (संबभूव) = है, अर्थात् प्रभु की महिमा इस ब्रह्माण्ड के अन्दर ही दीखती है, ब्रह्माण्ड से परे तो प्रभु का अचिन्त्य, निर्विकार, निराकार रूप ही है।

    भावार्थ

    प्रभु अपनी स्वाभाविकी क्रिया से इस ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं। यह ब्रह्माण्ड प्रभु की महिमा है, प्रभु इससे सीमित नहीं हो जाते, वे इससे परे भी हैं।

    विशेष

    यह ब्रह्म का विचार करनेवाला 'ब्रह्मा' बनता है। वासनाओं पर आक्रमण करने से यह 'स्कन्द' कहलाता है। यह 'ब्रह्मास्कन्दः' अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (अहम् एव) मैं पारमेश्वरी माता ही (वात इव) झंझा वायु के सदृश (प्रवामि) प्रवाहित हो रही हूँ, (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों को (आरभमाणा) प्रारम्भ करती हुई। (दिवा पर:) द्युलोक से परे, (एना पृथिव्या पर:) इस प्रथिवी से परे मैं हूं, (एतावती) इतनी बड़ी (महिम्ना) निज सवाभाविक महिमा द्वारा (सं बभूव) में हुई हूं।

    टिप्पणी

    [वैदिक दृष्टि में द्यौ: और पृथिवी, समय ब्रह्माण्ड के अन्तिम किनारे हैं, परन्तु परमेश्वर इन किनारों को लाँघकर अतीत कर, बस रहा है, यतः पह सर्वव्यापक है। "वात इव" द्वारा सृष्ट्यारम्भण में अति शोधता दर्शाई है, उसकी इच्छामात्र द्वारा ही यतः सृष्टि उत्पन्न होने लगती है, "इच्छामात्र प्रभो: सृष्टिः"। परमेश्वर की कामनामात्र से ही प्रकृति से सृष्टि पैदा होने लगती है, इसे उपनिषदों में 'अकामयत' द्वारा निर्दिष्ट किया है (बृहद्-उपनिषद, अध्या० १।०२ सन्दर्भ ४, ६, ७)। तथा 'ऐच्छत्' द्वारा (बृहद्-उपनिषद, अध्या० १।०४। संदर्भ ३)]

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    विषय

    परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अहम् एव) मैं ही (विश्वा भुवनानि) समस्त लोकों और देहों को (आरभमाणा) निर्माण करती हुई (वात-इव) देहों में प्राण के समान और संसार में वायु के समान (प्र वामि) सर्वत्र विशेष रूप से, उत्कृष्ट रूप से व्यापक होकर रहती हूं। और मैं ही (दिवः) सूर्यादि लोकों से (परः) परे और (एना पृथिव्याः परः) इस पृथिवी से भी परे अर्थात् इन विकार पदार्थों से भी पूर्व काल में विद्यमान रह कर (महिम्ना) अपनी महिमा अर्थात् बड़े भारी सामर्थ्य से (एतावती) इतने विशाल रूप में जगत् का रूप बना कर (सं बभूव) पूर्ण रीति से प्रकट हो रही हूं।

    टिप्पणी

    यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। न तदस्ति विना यत् स्यान्मया भूतं चराचरम्॥ ३९॥ नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप॥ ४०॥ विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥ ४२॥ गीता अ० १०॥ इसी प्रकार गीता के १० वें और १५ वें अध्याय में इस सूक्त का पूर्ण व्याख्यान प्राप्त होगा। पाठक वहां ही देखें। इति षष्ठोऽनुवाकः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All-sustaining Vak

    Meaning

    Loving, embracing and pervading all regions of the universe, I flow forward like the wind that blows across over all spaces. Beyond the heaven, beyond this earthly world, I am, so much is my power and potential, transcendent is my presence.

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    Translation

    I breath a strong breath like the wind, giving form to all created worlds; beyond the heaven, beyond this earth, I become powerful in my grandeur. (Also Rg. X.125.8).

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    Translation

    I verily, controlling all the territories and people blow like the tempestuous wind. Iam so mighty in my sovereignty that I manifest it beyond this earth, beyond the heaven.

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    Translation

    Having created all the worlds, I feel free like the wide. Beyond this wide earth and beyond the heavens, I have become so mighty in my grandeur.

    Footnote

    Just as the wind is free in its motion, without being impelled by any one, so God is Tree and independent in creating the universe, without being helped by any one.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अहम्) परमेश्वरः (एव) निश्चयेन (वातः) पवनः (इव) यथा (प्र वामि) प्रवर्ते (आरभमाणा) आङ् पूर्वको लभ स्पर्शे-शानच्। लस्य रः। आलभमाना। स्पृशन्ती। आलम्बमाना शक्तिः (भुवनानि) भूतजातानि लोकान् वा (विश्वा) सर्वाणि (परः) परस्तात्। दूरे (दिवा) सूर्येण (एना) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति आच्। एनया। अनया। (पृथिव्या) भूम्या (एतावती) यत्तदेतेभ्यः परिमाणे०। पा० ५।२।३९। इति एतद्-वतुप्। आ सर्वनाम्नः। पा० ६।३।५१। इति आत्वम्। एतत्परिमाणा महती (महिम्ना) माहात्म्येन (सं बभूव) समर्था बभूव ॥

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