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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
    69

    प॒वस्तै॑स्त्वा॒ पर्य॑क्रीणन्दू॒र्शेभि॑र॒जिनै॑रु॒त। प्र॒क्रीर॑सि॒ त्वमो॑ष॒धेऽभ्रि॑खाते॒ न रू॑रुपः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒वस्तै॑: । त्वा॒ । परि॑ । अ॒क्री॒ण॒न् । दू॒र्शेभि॑: । अ॒जिनै॑: । उ॒त । प्र॒ऽक्री: । अ॒सि॒ । त्वम् । ओ॒ष॒धे॒ । अभ्रि॑ऽखाते । न । रू॒रु॒प॒: ॥७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवस्तैस्त्वा पर्यक्रीणन्दूर्शेभिरजिनैरुत। प्रक्रीरसि त्वमोषधेऽभ्रिखाते न रूरुपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवस्तै: । त्वा । परि । अक्रीणन् । दूर्शेभि: । अजिनै: । उत । प्रऽक्री: । असि । त्वम् । ओषधे । अभ्रिऽखाते । न । रूरुप: ॥७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विष नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वा) तुझसे (पवस्तैः) मण्डप वा घरों के लिये, (दूर्शेभिः=दूर्शैः) वस्त्रगृहों के लिये, (उत) और (अजिनैः) चर्म के लिये (परि अक्रीणन्) उन्होंने [पुरुषों ने] व्यापार किया है। (ओषधे) हे दाहधारण करनेवाली ! (त्वम्) तू (प्रक्रीः) बिकाऊ वस्तु (असि) है। (अभ्रिखाते) हे कुद्दाल से खोदी हुई ! तूने (न) नहीं (रूरुपः) मूर्छित किया है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपने लाभ के लिये विष का व्यापार भी करते हैं, विद्वान् लोग अपनी योग्यता से विष को निर्बल करके रखते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(पवस्तैः) पवते, गतिकर्मा-निघ० २।१४। अस्माद् औणादिको अस्तप्रत्ययः। पवन्ते गच्छन्ति यत्र। मण्डपैः। गृहैः। अत्र सर्वत्र निमित्ते तृतीया। पवस्तशब्दो द्यावापृथिव्योर्वाचको दृष्टः। ऋ० १०।२७।७। (त्वा) त्वां विषरूपाम् (परि अक्रीणन्) डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये-लङ्। परिक्रीतवन्तः पुरुषाः (दूर्शेभिः) दुर्+शो तनूकरणे-ड। दुर् दुःखं श्यतीति दूर्शम्। दूर्शेः। दूश्यैः। दूष्यैः। वस्त्रनिर्मितगृहैः (अजिनैः) अजेरज च। उ० २।४८। इति अज गतिक्षेपणयोः-इनच्। चर्मभिः (उत) अपि च (प्रक्रीः) प्रपूर्वात् क्रीणातेः कर्मणि संपदादित्वात् क्विप्। प्रकर्षेण क्रीता (असि) भवसि (त्वम्) (ओषधे) हे तापधारिणि। अन्यद् गतम्-म० ५ ॥

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    विषय

    कम नि पर्वतों पर मिलनेवाली 'विषौषध'

    पदार्थ

    १. हे औषधे ! (पवस्तै:) = पवन के लिए-शोधन के लिए एकत्र फेंके गये-इकट्ठे किये गये [पवमानाय अस्तै:] सम्मार्जनीतणों से (त्वा) = तुझे (पर्यक्रीणन्) = इन लोगों ने खरीदा है, (उत) = और (दर्शभिः) = दुष्ट (ऋश्य) = सम्बन्धी (अजिनैः) = चर्मों से तुझे खरीदा है। सम्मार्जनी-तृण व अजिन देकर तेरा क्रय किया गया है। २. इसप्रकार हे (ओषधे) = विषमूलिके! (त्वम्) = तू (प्रक्री: असि) = प्रकर्षेण खरीदी गई है। हे (अभ्रिखाते) = कुदाल से खोदी गई ओषधे! तू (न रूरूप:) = इस पुरुष को मूढ़ नहीं बनाती। -

    भावार्थ

    सम्मार्जनी-तृणों व ऋश्य-सम्बन्धी चर्मों से विनिमय के द्वारा इस विषनाशक ओषधि को खरीदा गया है। यह मनुष्य को विषप्रभाव-जनित मूछा से मुक्त करती है। -

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    भाषार्थ

    (अभ्रिखाते) कुदाली द्वारा [जड़ समेत] खोदी गई (औषधी) हे औषधि ! (त्वा) तुझे (पवरतैः) रक्षा के वस्त्रों द्वारा, (दुर्शेभिः)१ दूर्शों द्वारा (उत) तथा (अजिनै:) मृगछालों द्वारा (पर्यक्रीणन्) उन्होंने खरीदा है, अतः (प्रक्रीः असि) खरीदी [दासीवत्] (त्वम्) तु है, अतः (न रूरुपः) तूने मूर्छित नहीं किया।

    टिप्पणी

    [खरीदी दासी मालिक को नुकसान नहीं पहुंचाती, अपितु उसकी सेविका होती है, अतः तुने मूर्छित नहीं किया। पवस्तैः=पा (रक्षणे) वस्तैः (वस्त्रै:) अर्थात् शरीर की रक्षा करनेवाले वस्त्रों द्वारा।] [१. दूर्शेभी: = सम्भवतः दलालों द्वारा। पवस्त और अजिन के सहयोग के कारण 'दूर्श' भी बहुमूल्य वस्तु प्रतीत होती है। दूर्श= दुशाले।]

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    विषय

    विष चिकित्सा का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अभ्रिखाते) कुदाल से खोदी गई ओषधी (त्वा) तुझ को (पवस्तैः) वस्त्रों या छाजों और (दूर्शेभिः) ऋक्ष या व्याघ्र-छालाओं (उत) और (अजिनैः) मृगछालाओं के बदले में (पर्यक्रीणन्) परस्पर बेचते खरीदते हैं। इसलिये तेरा नाम (प्रक्रीः) ‘प्रक्री’ भी है। तेरे प्रयोग से भी (न रूरूपः) विषार्त रोगी मूर्छा को प्राप्त नहीं होता। ‘प्रक्री’ औषधि का धन्वन्तरि राजनिघण्टु में, ‘प्रकीर्य’ नाम आया है। जिसके पांच भेद हैं करञ्ज, उदकीर्य, अंगारवल्ली, गुच्छकरंज, रीठाकरंज। ये भी विपनाशक एवं कुष्ठ, कण्डू और स्फोट तथा त्वचादोष के नाशक बतलाये गये हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-३, ५-७ अनुष्टुभः, ४ स्वराट्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Antidote to Poison

    Meaning

    People buy you with garments, shawls and deer skins. Therefore you are ‘Prakri’, purchasable, in ready form. O herb well dug out, allow not the patient to fall unconscious. (The name of ‘Prakri’ in dhanvantari, says Pandit Jayadeva Sharma, is ‘Prakirya’, with five varieties: Karanja, Udakirya, Angaravalli, Guchha- karanja, Rithakaranja.)

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    Translation

    Men barter you for pavastas (covers or winnowing fans), for woven cloth, as well as for deer-skins. O herb dug up with a spade, you are sold for a good price. May you hot cause severe pain.

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    Translation

    As the men barter this herb, dug out with mattocks for skin of dear, skin of bear and woven cloth therefore, it is Prakrih, the thing of barter. The man using this medicinal plant does not fall in unconsciousness.

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    Translation

    For coverings, for skins of deer and woven clothes men have bartered thee. Thou art a thing of sale, O plant, dug up with mattocks, thou gripest not.

    Footnote

    The plant is named Prakri as it is salable. The plant has five varieties as given in Dhanvantri's Raj Nighantu (I) Kranj (2) Udkeerya (3) Anger valli (4) Guchhkranj (5) Ritha Kranj. A patient suffering from the effect of poison is cured by its use.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(पवस्तैः) पवते, गतिकर्मा-निघ० २।१४। अस्माद् औणादिको अस्तप्रत्ययः। पवन्ते गच्छन्ति यत्र। मण्डपैः। गृहैः। अत्र सर्वत्र निमित्ते तृतीया। पवस्तशब्दो द्यावापृथिव्योर्वाचको दृष्टः। ऋ० १०।२७।७। (त्वा) त्वां विषरूपाम् (परि अक्रीणन्) डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये-लङ्। परिक्रीतवन्तः पुरुषाः (दूर्शेभिः) दुर्+शो तनूकरणे-ड। दुर् दुःखं श्यतीति दूर्शम्। दूर्शेः। दूश्यैः। दूष्यैः। वस्त्रनिर्मितगृहैः (अजिनैः) अजेरज च। उ० २।४८। इति अज गतिक्षेपणयोः-इनच्। चर्मभिः (उत) अपि च (प्रक्रीः) प्रपूर्वात् क्रीणातेः कर्मणि संपदादित्वात् क्विप्। प्रकर्षेण क्रीता (असि) भवसि (त्वम्) (ओषधे) हे तापधारिणि। अन्यद् गतम्-म० ५ ॥

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