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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृता सूक्त
    122

    स॒प्त म॒र्यादाः॑ क॒वय॑स्ततक्षु॒स्तासा॒मिदेका॑म॒भ्यं॑हु॒रो गा॑त्। आ॒योर्ह॑ स्क॒म्भ उ॑प॒मस्य॑ नी॒डे प॒थां वि॑स॒र्गे ध॒रुणे॑षु तस्थौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । म॒र्यादा॑: । क॒वय॑: । त॒त॒क्षु॒: । तासा॑म् । इत् । एका॑म् । अ॒भि । अं॒हु॒र: । गा॒त् । आ॒यो: । ह॒ । स्क॒म्भ: । उ॒प॒मस्य॑ । नी॒डे । प॒थाम् । वि॒ऽस॒र्गे । ध॒रुणे॑षु । त॒स्थौ॒ ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यंहुरो गात्। आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । मर्यादा: । कवय: । ततक्षु: । तासाम् । इत् । एकाम् । अभि । अंहुर: । गात् । आयो: । ह । स्कम्भ: । उपमस्य । नीडे । पथाम् । विऽसर्गे । धरुणेषु । तस्थौ ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (कवयः) ऋषि लोगों ने (सप्त) सात (मर्यादाः) मर्यादायें [कुमर्यादायें] (ततक्षुः) ठहरायी हैं, (तासाम्) उनमें से (एकाम्) एक पर (इत्) भी (अभि गात्) चलता हुआ पुरुष (अंहुरः) पापवान् [होता है] [क्योंकि] (आयोः) मार्ग [सुमार्ग] का (स्कम्भः) थाँभनेवाला पुरुष (ह) ही (पथाम्) उन मार्गों (कुमार्गों) के (विसर्गे) त्याग पर (उपमस्य) समीपवर्ती वा सब के निर्माता परमेश्वर के (नीडे) धाम के भीतर (धरुणेषु) धारण सामर्थ्यों में (तस्थौ) स्थित हुआ है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य निषिद्ध कर्मों से पापी होकर दुःख, और विहित कर्मों के करने से सुकर्मी होकर परमेश्वर की व्यवस्था से सुख पाते हैं ॥६॥ इस मन्त्र के पूर्वार्ध की व्याख्या भगवान् यास्क ने−निरु० ६।२७। में इस प्रकार की है−[सप्तैव] सात ही [मर्यादाः] मर्यादायें [कवयः] ऋषियों ने [चक्रुः] बनायी हैं, [तासाम्] उनमें से [एकामपि] एकपर भी [अभि गात्] चलता हुआ [अंहस्वान् भवति] पापी होता है। [स्तेयम्] चोरी (तल्पारोहणम्) व्यभिचार, [ब्रह्महत्याम्] ब्रह्महत्या, [भ्रूणहत्याम्] गर्भहत्या [सुरापानम्] सुरापान, [दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवाम्] दुष्ट कर्मों का बार-बार सेवन, और [पातकेऽनुतोद्यम्] पातक लगाने में झूँठ बोलना [इति] यह सात मर्यादा बताई हैं ॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−म० १० सू० ५। म० ६ ॥

    टिप्पणी

    ६−(सप्त) सप्तसंख्याकाः (मर्यादाः) मर्य+आ-दा ग्रहणे−अच् यद्वा। परि+आ−दा−अङ् पस्य मः, टाप्। मर्यादा मर्यैरादीयते, मर्यादा=मर्या दिनोर्विभागः−निरु० ४।२। कुमर्यादाः−इत्यर्थः (कवयः) ऋषयः (ततक्षुः) तक्षतिः करोतिकर्मा−निरु० ४।१९। कृतवन्तः (तासाम्) मर्यादानां मध्ये (इत्) अपि (एकाम्) मर्यादाम् (अंहुरः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति अम रोगे पीडने−उ, हुक्च, रो मत्वर्थीयः। अंहस्वान्−निरु० ६।२७। पापवान् भवति (अभि गात्) अभि गच्छन्−निरु० ६।७। (आयोः) छन्दसीणः। उ० १।२। इति इण् गतौ−उण्। आयुः, अन्ननाम−निघ० २।७। आयोरयनस्य मनुष्यस्य ज्योतिषो वोदकस्य वा−निरु० १०।४१। अयनस्य सुमार्गस्य (ह) एव (स्कम्भः) स्कम्भु स्तम्भे रोधन इत्यर्थः−पचाद्यच्। स्कम्भयिता आलम्बकः। धारकः (उपमस्य) अन्वेष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति उप+माङ् माने−ड। उपमे, अन्तिकनाम−निघ० २।१६। समीपश्रुतस्य सर्वनिर्मातुर्वा परमेश्वरस्य (नीडे) नितरामीड्यते स्तूयते स नीडः। नि+ईड स्तुतौ−घञ्। गृहे−निघ० ३।४। धाम्नि (पथाम्) कुमार्गाणामित्यर्थः (विसर्गे) त्यागे (धरुणेषु) आ० ३।१२। धारयितृषु सामर्थ्येषु (तस्थौ) स्थितवान् ॥

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    विषय

    सप्त मर्यादाः

    पदार्थ

    १. (कवयः) = क्रान्तदर्शी विद्वानों ने (सप्त) = सात (मर्यादा:) = मर्यादाएँ-पाप से बचने की व्यवस्थाएँ (ततक्षुः) = बनाई हैं, (तासाम्) = उनमें से जो (एकाम् इत्) = एक का भी (अभिगात्) = उल्लंघन करता है, वह (अंहुरः) = पापी होता है। २. (आयो: ह स्कम्भ:) = [आयु-wind] वायु, अर्थात् प्राणों [वायु: प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत्] को वश में करनेवाला-प्राणायाम का अभ्यासी पुरुष (उपमस्य) = अन्तिकतम-हदय में ही स्थित उस प्रभु के (नीडे) = आश्रय में (पथां विसर्गे) = विविध मार्गों के [विसर्ग:- abandonment] हो जाने पर (धरुणेषु) = धारणात्मक कर्मों में ही (तस्थौ) = स्थित होता है-अन्य बातों को छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त होता है। यास्क के शब्दों में सात छोड़ने योग्य बातें ये हैं-(स्तेयम्) = चोरी, (तल्पारोहण) = गुरु-शय्या पर आरोहण-बड़ों का निरादर, (ब्रह्महत्या) = ज्ञान का त्याग, (भ्रूणहत्या) = गर्भघात, सुरापान, दुष्कृत कर्म का फिर-फिर करना, पाप करके झूठ बोलना, अर्थात् उसे छिपाने का प्रयत्न करना'। इन सबको छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही स्थित होना चाहिए।

    भावार्थ

    ज्ञानी पुरुषों ने सात मर्यादाएँ बना दी हैं। उन्हें तोड़ना पाप है। प्राणसाधना द्वारा मन को वशीभूत करनेवाला व्यक्ति प्रभु का स्मरण करता है और पापवृत्तियों को छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है।

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    भाषार्थ

    (कवयः) क्रान्तदर्शी मेधावियों ने (सप्तमर्यादा:) ७ मर्यादाएं (ततक्षुः) निर्मित की है, ( तासाम् ) उनमें से (एकाम्, इत् अभि ) एक मर्यादा की ओर भी [उसका उल्लंघन करता हुआ] (गात् ) जो जाता है, (अंहुरः) वह पापी हो जाता है । [वह पापी उस परमेश्वर को प्राप्त नहीं होता जो कि] (आयो:) मनुष्यजाति का (स्कम्भः), आश्रय है ( उपमस्य ) निज उपमा रूप आदित्य के (नीडे) समीपस्थ है, (धरुणेषु) और धारक पदार्थों में (तस्थौ) स्थित है, (पथां विसर्गे१) तथा जहाँ पथों की सृष्टि नहीं , वहाँ भी (तस्थौ) स्थित है।

    टिप्पणी

    [ स्कम्भ:-= सर्वेश्वर, सर्वाधार परमेश्वर (अथर्व० १०।७।४ आदि ) । स्कभि प्रतिबन्धे (भ्वादि:), स्कम्भ: = निजबन्धन में सबको बाँधनेवाला परमेश्वर। आयवः मनुष्यनाम (निघं० २।३) । उपमस्य= यथा आदित्यवर्णम् (यजुः० ३१। १८ ) । कविः मेधाविनाम (निघं० ३।१५ ) । सप्त मर्यादाः= स्तेयम्, तल्पारोहणम्, व्रह्महत्याम्, भ्रूणहत्याम्, सुरापानम्, दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवाम्, पातकेनृतोद्यम् (निरुक्त ६।५।२७)।] [१. विसर्गः= अवसानम्, विरामः, समाप्तिः ।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वानों ने (सप्त) सात (मर्यादाः) मर्यादाएं, पाप से बचने की व्यवस्थाएं (ततक्षुः) बनाई हैं। (तासाम्) उनमें से (एकाम् इत्) एक को भी (अभि गात्) जो उल्लंघन करता है वह (अंहुरः) पापी है। (आयोः स्कम्भः) जीवनशक्ति को वश करने वाला, जितेन्द्रिय पुरुष (ह) निश्चय से (उपमस्य) अपने उत्पादक प्रभु के (नीड़े) आश्रय में (पथां विसर्गे) इन्द्रिय मार्गों के विसर्जन काल में, (धरुणेषु) नित्य ध्रुव लोकों में (तस्थौ) स्थान प्राप्त करता है अर्थात् ब्रह्मचर्य और सदाचार से अक्षय लोक प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    यास्काचार्य ने सात मर्यादायें गिनाई हैं—“स्तेयं, तल्पारोहणं, ब्रह्महत्यां, भ्रूणहत्यां, सुरापानं, दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः सेवां, पातकेऽनृ-तोद्यम्” इति। १—चोरी, २—गुरु-शय्या पर शयन अर्थात् गुरु-स्त्री से भोग करना, ३— ब्रह्महत्या, ४—भ्रूणहत्या गर्भघात, ५—सुरापान, ६—दुराचार का बार २ करना, ७—पाप करके झूठ बोलना। समस्त प्रजाओं को इनका त्याग करना चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिवा अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-४, ६, ८ त्रिष्टुभः। ५ पराबृहती त्रिष्टुप्। ७ विराट्। ९ त्र्यवसाना सप्तपदा अत्यष्टिः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    Seven are the paths and bounds of the good life which wise visionaries have created and set up. Of these, let the sinner follow even one, steadfast in life as the pillar and the goal post, and he would be saved, and at the end of the journey he would rest in peace under the shelter of the lord, the closest and the highest master. On the other hand, if a man violates even one of them, he would be a sinner, lost and gone.

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    Translation

    Men with vision (kavi) have fashioned seven ways of proper conduct. A distressed person has to follow one of them. That becomes a pillar of support for his life; it stands, where the paths divide in a nearby and firm shelter. (Also Rg. X.5.6)

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    Translation

    The wipe establishes seven transgressing even one of them becomes distressed. The man who is firm on the good path, alone can place him in the persisting powers in all-pervading abode of Divinity keeping him away from bad paths. [N.B. These seven boundaries are—theft, adultery, killing of a learned man, abortion, drinking, habitual addiction to wickedness and false accusation of heinous crime.]

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    Translation

    Seven are the rules of conduct which the wise have established. He becomes a sinner who violates even one of them. He who preserves his semen, the pillar of liferesting in the refuge of God, and renouncing evil paths, acquires lofty and dignified positions.

    Footnote

    Seven rules of conduct vide Nirukta, 6-27 are: (1) Non-theft (2) Non-adultery (3) Non-murder (4) Non-miscarriage (5) Non-drinking wine (6) Non-repetition of sin (7) Non-concealment of sin through a lie.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(सप्त) सप्तसंख्याकाः (मर्यादाः) मर्य+आ-दा ग्रहणे−अच् यद्वा। परि+आ−दा−अङ् पस्य मः, टाप्। मर्यादा मर्यैरादीयते, मर्यादा=मर्या दिनोर्विभागः−निरु० ४।२। कुमर्यादाः−इत्यर्थः (कवयः) ऋषयः (ततक्षुः) तक्षतिः करोतिकर्मा−निरु० ४।१९। कृतवन्तः (तासाम्) मर्यादानां मध्ये (इत्) अपि (एकाम्) मर्यादाम् (अंहुरः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति अम रोगे पीडने−उ, हुक्च, रो मत्वर्थीयः। अंहस्वान्−निरु० ६।२७। पापवान् भवति (अभि गात्) अभि गच्छन्−निरु० ६।७। (आयोः) छन्दसीणः। उ० १।२। इति इण् गतौ−उण्। आयुः, अन्ननाम−निघ० २।७। आयोरयनस्य मनुष्यस्य ज्योतिषो वोदकस्य वा−निरु० १०।४१। अयनस्य सुमार्गस्य (ह) एव (स्कम्भः) स्कम्भु स्तम्भे रोधन इत्यर्थः−पचाद्यच्। स्कम्भयिता आलम्बकः। धारकः (उपमस्य) अन्वेष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति उप+माङ् माने−ड। उपमे, अन्तिकनाम−निघ० २।१६। समीपश्रुतस्य सर्वनिर्मातुर्वा परमेश्वरस्य (नीडे) नितरामीड्यते स्तूयते स नीडः। नि+ईड स्तुतौ−घञ्। गृहे−निघ० ३।४। धाम्नि (पथाम्) कुमार्गाणामित्यर्थः (विसर्गे) त्यागे (धरुणेषु) आ० ३।१२। धारयितृषु सामर्थ्येषु (तस्थौ) स्थितवान् ॥

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