अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमृता सूक्त
52
उ॒त पु॒त्रः पि॒तरं॑ क्ष॒त्रमी॑डे ज्ये॒ष्ठं म॒र्याद॑मह्वयन्त्स्व॒स्तये॑। दर्श॒न्नु ता व॑रुण॒ यास्ते॑ वि॒ष्ठा आ॒वर्व्र॑ततः कृणवो॒ वपूं॑षि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । पु॒त्र: । पि॒तर॑म् । क्ष॒त्रम् । ई॒डे॒ । ज्ये॒ष्ठम् । म॒र्याद॑म् । अ॒ह्व॒य॒न् । स्व॒स्तये॑ । दर्श॑न् । नु । ता: । व॒रु॒ण॒ । या:। ते॒ । वि॒ऽस्था: । आ॒ऽवर्व्र॑तत: । कृ॒ण॒व॒: । वपूं॑षि ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
उत पुत्रः पितरं क्षत्रमीडे ज्येष्ठं मर्यादमह्वयन्त्स्वस्तये। दर्शन्नु ता वरुण यास्ते विष्ठा आवर्व्रततः कृणवो वपूंषि ॥
स्वर रहित पद पाठउत । पुत्र: । पितरम् । क्षत्रम् । ईडे । ज्येष्ठम् । मर्यादम् । अह्वयन् । स्वस्तये । दर्शन् । नु । ता: । वरुण । या:। ते । विऽस्था: । आऽवर्व्रतत: । कृणव: । वपूंषि ॥१.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(पुत्रः) मैं पुत्र (पितरम्) पालनकर्ता पिता परमेश्वर से (उत) ही (क्षत्रम्) धन (ईडे) माँगता हूँ। (ज्येष्ठम्) अत्यन्त वृद्ध (मर्यादम्) मर्यादावाले परमात्मा को (स्वस्तये) आनन्द के लिये (अह्वयन्) [ऋषियों ने] आवाहन किया है। (वरुण) हे वरणीय परमेश्वर ! (याः) जो (ते) तेरी (विष्ठाः) व्यवस्थायें हैं (ताः) उन्हें (नु) शीघ्र (दर्शन्) वे लोग देखें, (आवर्व्रततः) यथावत् अनेक प्रकार घूमनेवाले [संसार] के (वपूंषि) रूपों को (कृणवः) तू प्रकट कर ॥८॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य पिता से मर्यादापूर्वक पैतृक धन प्राप्त करके प्रसन्न होते हैं, वैसे ही सब लोग परमात्मा के रचे पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पावें ॥८॥
टिप्पणी
८−(उत) निश्चयेन (पुत्रः) अ० १।११।५। कुलशोधकः सुतः (पितरम्) पातारम्। जनकम् (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। धनम्−निघ० २।१०। (ईडे) याचामि−निरु० ७।१५। याचे (ज्येष्ठम्) प्रवृद्धतमम् (मर्यादम्) मर्यादा−अर्शआद्यच्। मर्यादावन्तम्। परमेश्वरम् (अह्वयन्) ह्वेञ्−लङ्। आहूतवन्तः कवयः (स्वस्तये) अ० १।३०।२। आनन्दाय (दर्शन्) पश्यन्तु (नु) क्षिप्रम् [ताः] (वरुण) हे वरणीय परमात्मन् (याः) (ते) तव (विष्ठाः) अ० ४।१।१। व्यवस्थाः (आवर्व्रततः) आङ्+वृतु वर्तने। यङ्लुगन्तात्−शतृ, छान्दसं रूपम्। आवर्वृततः। समन्ताद् बहुवर्तनशीलस्य संसारस्य (कृणवः) कृवि हिंसाकरणयोः गतौ च−लेटि मध्यमपुरुषः लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति अट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इति इकारलोपः। त्वम् आविष्कुर्याः (वपूंषि) म० २। रूपाणि ॥
विषय
पुत्र की पिता से बल की याचना
पदार्थ
१. (उत) = और (पुत्र:) = प्रभु का योग्य पुत्र बनता हुआ मैं (पितरम) = अपने पिता प्रभु से (क्षत्रम् ईडे) = बल की याचना करता है। ज्ञानी लोग उस (ज्येष्ठम्) = सर्वश्रेष्ठ (मर्यादम्) = सब मर्यादाओं का स्थापन करनेवाले प्रभु को (स्वस्तये) = कल्याण के लिए (अहयन्) = पुकारते हैं। २. हे (वरुण) = वरणीय प्रभो! (या:) = जो (ते) = आपकी (विष्ठा:) = व्यवस्थाएँ हैं, (नु) = निश्चय से (ता:) = उन्हें ये ज्ञानी पुरुष दर्शन देखते हैं। 'ब्रह्माण्ड में प्रत्येक पिण्ड को वे प्रभु किस प्रकार मर्यादा में चला रहे हैं'-इस बात को देखकर आश्चर्य ही होता है। इसीप्रकार हे प्रभो! आप ही (आवर्वतत:) = [आवृत् यङ्लुगन्तशत] कर्मफल के अनुसार विभिन्न योनियों में विचरनेवाले जीव के वषि-शरीरों को कृणव: करते हैं। जीवों को कर्मानुसार विविध शरीर आप ही प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
हम प्रभु से बल की याचना करें। ब्रह्माण्ड में उस प्रभु की व्यवस्था को देखें और प्रभु को ही कर्मानुसार विविध शरीरों को प्राप्त करानेवाला जानें।
भाषार्थ
(उत) तथा (पुत्रः) मैं पुत्र (क्षत्रम्) क्षतों से त्राण करनेवाले (पितरम्) परमेश्वर पिता की ( ईडे) स्तुति [और उसका आह्वान ] करता हूँ, [जैसेकि ] (ज्येष्ठम् ) सर्वज्येष्ठ (मर्यादम्) मर्यादावाले परमेश्वर का (अह्वयन्) स्तोताओं ने [स्तवन ] और आह्वान किया है (स्वस्तये) कल्याण के लिए । (वरुण ) हे वरणीय ! परमेश्वर ! (याः ) जो (ते) तेरी (विष्ठाः) व्यवस्थाएँ या विविध स्थितियाँ हैं (ताः) उन्हें (नु दर्शन्) निश्चय से मैं देखता हूँ, (आवर्व्रतत:) आवृत्ति-क्रम से (वपूंषि) प्राणियों के शरीरों को (कृणवः) तू पैदा करता है।
टिप्पणी
[आवृत्तिक्रम= प्रथम अप्राणि-सृष्टि, तत्पश्चात् प्राणि-सृष्टि । त्रितः (मन्त्र १) ही वरुण है।]
विषय
जगत् स्रष्टा का वर्णन।
भावार्थ
(उत) और (पुत्रः) पुत्र भी (क्षत्रं पितरं) बलस्वरूप, कष्टों से बचाने वाले अपने बलवान् पिता का (ईडे) आश्रय लेता है, क्योंकि ऋषियों ने (स्वस्तये) कल्याण के लिये ही (ज्येष्ठं) ज्येष्ठ, बड़े पुत्र को ही (मर्यादम्) मर्यादा स्थापन करने वाला (अह्वयन्) बतलाया है। हे (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! आप ही (आ-वर्व्रततः) निरन्तर वर्त्तमान, या संसार अथवा देह से देह में भ्रमण करने वाले आत्मा के (वपूंषि) देहों को (कृणवः) बनाते हो, इसलिये (याः ते वि-स्थाः) जो आपकी व्यवस्थाएं हैं (ता नु) चे (दर्शन) हमें दीखें। हम उनको जानें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिवा अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-४, ६, ८ त्रिष्टुभः। ५ पराबृहती त्रिष्टुप्। ७ विराट्। ९ त्र्यवसाना सप्तपदा अत्यष्टिः। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Vidya
Meaning
Child of divinity, I pray to Almighty Father for protection. People call upon the highest for all round happiness and well being, the Lord who sets the bounds of discipline and life’s values. O Varuna, revealing what your bounds of order and discipline are, pray show us those bounds, for you alone shape those forms and classes of Being to which the soul moves from one to another in the course of existence.
Translation
The son praises his father who protects him from injury; and they call the eldest as the arbiter for well-being. O venerable Lord, may you show us what are your revelations. You, verily, make the various forms moving in circles.
Translation
The son asks dominion of his father as the learned men declare the elder son as the legitimate successor. O Varuna, the Supreme Lord; display us Thy ways of working. Thou alone makest the bodies of soul which frequently visits the bodies and the world.
Translation
I, the son, ask for riches from God, the Father. The sages have invoked for bliss, the Most Exalted God. O God, Thou fashionest the mortal frames of the souls, that roam from body to body. Let them see Thy revelations.
Footnote
Them, refers to souls. A soul assumes different bodies in different births according to the dispensation of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(उत) निश्चयेन (पुत्रः) अ० १।११।५। कुलशोधकः सुतः (पितरम्) पातारम्। जनकम् (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। धनम्−निघ० २।१०। (ईडे) याचामि−निरु० ७।१५। याचे (ज्येष्ठम्) प्रवृद्धतमम् (मर्यादम्) मर्यादा−अर्शआद्यच्। मर्यादावन्तम्। परमेश्वरम् (अह्वयन्) ह्वेञ्−लङ्। आहूतवन्तः कवयः (स्वस्तये) अ० १।३०।२। आनन्दाय (दर्शन्) पश्यन्तु (नु) क्षिप्रम् [ताः] (वरुण) हे वरणीय परमात्मन् (याः) (ते) तव (विष्ठाः) अ० ४।१।१। व्यवस्थाः (आवर्व्रततः) आङ्+वृतु वर्तने। यङ्लुगन्तात्−शतृ, छान्दसं रूपम्। आवर्वृततः। समन्ताद् बहुवर्तनशीलस्य संसारस्य (कृणवः) कृवि हिंसाकरणयोः गतौ च−लेटि मध्यमपुरुषः लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति अट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इति इकारलोपः। त्वम् आविष्कुर्याः (वपूंषि) म० २। रूपाणि ॥
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