अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
46
श्रेयः॑केतो वसु॒जित्सही॑यान्त्संग्राम॒जित्संशि॑तो॒ ब्रह्म॑णासि। अं॒शूनि॑व॒ ग्रावा॑धि॒षव॑णे॒ अद्रि॑र्ग॒व्यन्दु॑न्दु॒भेऽधि॑ नृत्य॒ वेदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्रेय॑:ऽकेत: । व॒सु॒ऽजित् । सही॑यान् । सं॒ग्रा॒म॒ऽजित् । सम्ऽशि॑त: । ब्रह्म॑णा । अ॒सि॒ । अं॒शून्ऽइ॑व । ग्रावा॑ । अ॒धि॒ऽसव॑ने । अद्रि॑: । ग॒व्यन् । दु॒न्दु॒भे॒ । अधि॑ । नृ॒त्य॒ । वेद॑: ॥२०.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रेयःकेतो वसुजित्सहीयान्त्संग्रामजित्संशितो ब्रह्मणासि। अंशूनिव ग्रावाधिषवणे अद्रिर्गव्यन्दुन्दुभेऽधि नृत्य वेदः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रेय:ऽकेत: । वसुऽजित् । सहीयान् । संग्रामऽजित् । सम्ऽशित: । ब्रह्मणा । असि । अंशून्ऽइव । ग्रावा । अधिऽसवने । अद्रि: । गव्यन् । दुन्दुभे । अधि । नृत्य । वेद: ॥२०.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय का उपदेश।
पदार्थ
(श्रेयःकेतः) कल्याण का ज्ञान देनेवाला, (वसुजित्) धन जीतनेवाला, (सहीयान्) अधिक बलवाला, (संग्रामजित्) संग्रामों का जीतनेवाला, और (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (संशितः) तीक्ष्ण किया हुआ (असि) तू है। (अद्रिः) निश्चल स्वभाव, (ग्रावा इव) जैसे सूक्ष्मदर्शी पण्डित (अधिषवणे) तत्त्व मन्थन में (अशूंन्) सूक्ष्म अंशों को [वश में करता है, वैसे ही], (दुन्दुभे) हे दुन्दुभि ! (गव्यन्) भूमि चाहता हुआ तू (वेदः) शत्रु का धन (अधि=अधिकृत्य) वश में करके (नृत्य) नृत्य कर ॥१०॥
भावार्थ
जैसे संग्राम में दुन्दुभि उत्साह बढ़ाता है और जैसे तत्त्ववेत्ता पुरुष तत्त्वों को जीत कर आनन्द भोगता है, वैसे ही प्रत्येक मनुष्य विज्ञान प्राप्त करके सदा सुखी रहे ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(श्रेयःकेतः) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति कि ज्ञाने−तन्। यद्वा, चायः की। उ० १।७४। इति निर्देशात्, चायृ पूजानिशामनयोः−तन्प्रत्यये धातोः किरादेशो गुणश्च। केतः प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। श्रेयसः कल्याणस्य प्रज्ञा यस्मात् सः (वसुजित्) धनस्य जेता (सहीयान्) अ० ४।३२।४। बलवत्तरः (संग्रामजित्) संग्रामाणां जेता (संशितः) तीक्ष्णीकृतः (ब्रह्मणा) वेदद्वारा (असि) (अंशून्) अंश विभाजने−कु। सूक्ष्मांशान् (इव) यथा (ग्रावा) अ० ३।१०।४। गॄ विज्ञापने−क्वनिप्। शास्त्रविज्ञापकः पण्डितः (अधिषवणे) सुयुरुवृञो युच्। उ० २।७४। इति षुञ् अभिषवे−युच्। तत्त्वानामधिकमन्थने (अद्रिः) अधिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति अद भक्षणे−क्रिन्। यद्वा नञ्+दॄ विदारणे−रिन्, टिलोपः। अविदारणीयः। निश्चलस्वभावः (गव्यन्) म० ३। भूमिमिच्छन् (दुन्दुभे) (अधि) अधिकृत्य (नृत्य) चेष्टां कुरु (वेदः) शत्रुधनम् ॥
विषय
सहीयान-संग्रामजित्
पदार्थ
१. ये युद्धवाद्य! तू (श्रेयः केत:) = कल्याण में निवास करनेवाला [कित निवासे], (वसुजित्) = धनों का विजय करनेवाला, (सहीयान्) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाल संग्रामजित्-संग्राम को जीतनेवाला (ब्रह्मणा संशितः असि) = सत्य द्वारा तीव्र किया गया है [ब्रह्म-truth] | युद्ध में जिसका पक्ष सत्य का होता है, वह मन में उत्साहवाला होने से इस युद्धवाद्य को भी उत्साहपूर्वक बजा पाता है। (इव) = जैसे (अधिषवणे) = ज्ञानोत्पादन की क्रिया में (अद्रिः ग्रावा) = आदरणीय [आद्रियते], विषयों से विदीर्ण न किया जानेवाला [न दीर्यते], ज्ञानोपदेष्टा [गणाति] (अंशुन्) = ज्ञान की रश्मियों पर नृत्य करनेवाला होता है, उसी प्रकार हे (दुन्दुभे) = युद्धवाद्य! तू (गव्यन्) = राष्ट्रभूमि की रक्षा की कामनावाला होता हुआ (वेदः अधिनत्य)-धनों पर नृत्य करनेवाला हो, शत्रु को पराजित करके राष्ट्र के धन को बढ़ानेवाला हो।
भावार्थ
युद्धवाद्य सत्य के पक्ष में उत्साह से बज उठता है और शत्रु-मर्षण करता हुआ राष्ट्रकोश का अभिवर्धक होता है।
भाषार्थ
(श्रेयः केत:) श्रेय को जाननेवाला, (वसुजित्) धन विजयी, ( सहीयान्) सहनशील या पराभवकारी, (संग्रामजित्) संग्रामविजयी, ( ब्रह्मणा ) वेदोक्तविधि द्वारा [हे दुन्दुभिः] (संशितः असि) तू तेज किया गया है [ऊँची ध्वनि से युक्त किया गया है]। (अधिषवणे) पीसकर सोमरस निकालनेवाली शिला पर, (अशून् इव) जैसे सोमांशुओं को (अद्रिः) विदीर्ण करनेवाला (ग्रावा) वट्टा-पत्थर [नाचता है] वैसे (गव्यन्) शत्रु की पृथिवी को चाहता हुआ [दुन्दुभे ] हे दुन्दुभि ! (वेदः) शत्रु के धन को प्राप्त कर, (नृत्य) [प्रसन्नता से] नाच ।
टिप्पणी
[विजय-प्राप्ति पर ढोलची विजय-नाच करता है, उसके साथ ही, उसके विजयनाच में ढोल अर्थात दुन्दुभि नाच कर रहा होता है। केतः प्रज्ञा नाम (निघं० ३।९)। ब्रह्मणा=अथवा ब्रह्मा द्वारा, वेद द्वारा अथवा ब्रह्मवेद द्वारा अथर्ववेद द्वारा।]
विषय
दुन्दुभि या युद्धवीर राजा का वर्णन।
भावार्थ
(श्रेयः-केतः) श्रेय, अति श्रेष्ठ पद का ज्ञान कराने वाला, (वसु-जित्) राष्ट्रों, धनों और जनों का विजय करने वाला, (सहीयान्) शत्रुओं का वशकारी होने के कारण (संग्राम-जित्) संग्राम-विजयी होता हुआ भी तू (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेद और वेद के विद्वान् द्वारा (संशितः असि) अपनी शक्ति में बड़ा तीक्ष्ण है। (ग्रावा) प्रस्तर, लोढा जिस प्रकार (अधि-सवने) शिला पर (अंगून) सोमलता के खण्डों को स्वयं (अद्रिः) बिना टूटे कुचल डालता है उसी प्रकार हे (दुन्दुभे) नक्कारे ! या उसके समान गर्जने वाले राजन् ! तू (गव्यन्) विजय करता हुआ, (वेदः) धन पर (अधि नृत्य) वश कर, हमें प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Clarion call for War and Victory
Meaning
O vision, word and voice of life and the nation, lover and harbinger of well being, creator and winner of wealth and peace, patient and courageous, victor of the battles of life, you are trained and refined by the wisdom of Veda. Just as the soma makers grind the soma filaments to fineness, just as a settled sage and scholar analyses subtle ideas in philosophy, you in life’s struggles, acquiring lands and culture of the wealth and wisdom of life, rejoice yourself to the full.
Translation
O ensign of real happiness, winner of treasures, mighty, winner of battle, you have been whetted by the intellectual; as at the time of pressing out the crushing stones dance on the stalks of same plant, so, O war-drum, may you dance upon our enemy's possessions.
Translation
This war-drum is the signal of advantageous attainments, gaining wealth, source of might. Victory-giving means of the war and made keener with the skill. Let this war-drum dance attaining the possessions of our enemies like the firm stone which dances at the time of crushing soma plant.
Translation
O drum or King bent on advantage, mightier, gaining treasures, victor in war, knowledge hath made thee keener. Just as determined, far-seeing learned person, masters the finer aspects of things in his search after truth, s0 shouldst thou, hankering after victory, possess the foes' property!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(श्रेयःकेतः) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति कि ज्ञाने−तन्। यद्वा, चायः की। उ० १।७४। इति निर्देशात्, चायृ पूजानिशामनयोः−तन्प्रत्यये धातोः किरादेशो गुणश्च। केतः प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। श्रेयसः कल्याणस्य प्रज्ञा यस्मात् सः (वसुजित्) धनस्य जेता (सहीयान्) अ० ४।३२।४। बलवत्तरः (संग्रामजित्) संग्रामाणां जेता (संशितः) तीक्ष्णीकृतः (ब्रह्मणा) वेदद्वारा (असि) (अंशून्) अंश विभाजने−कु। सूक्ष्मांशान् (इव) यथा (ग्रावा) अ० ३।१०।४। गॄ विज्ञापने−क्वनिप्। शास्त्रविज्ञापकः पण्डितः (अधिषवणे) सुयुरुवृञो युच्। उ० २।७४। इति षुञ् अभिषवे−युच्। तत्त्वानामधिकमन्थने (अद्रिः) अधिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति अद भक्षणे−क्रिन्। यद्वा नञ्+दॄ विदारणे−रिन्, टिलोपः। अविदारणीयः। निश्चलस्वभावः (गव्यन्) म० ३। भूमिमिच्छन् (दुन्दुभे) (अधि) अधिकृत्य (नृत्य) चेष्टां कुरु (वेदः) शत्रुधनम् ॥
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