अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
49
मा व॒निं मा वाचं॑ नो॒ वीर्त्सी॑रु॒भावि॑न्द्रा॒ग्नी आ भ॑रतां नो॒ वसू॑नि। सर्वे॑ नो अ॒द्य दित्स॒न्तोऽरा॑तिं॒ प्रति॑ हर्यत ॥
स्वर सहित पद पाठमा । व॒निम् । मा । वाच॑म् । न॒: । वि । ई॒र्त्सी॒: । उ॒भौ । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । आ । भ॒र॒ता॒म् । न॒: । वसू॑नि । सर्वे॑ । न॒: । अ॒द्य। दित्स॑न्त: । अरा॑तिम् । प्रति॑ । ह॒र्य॒त॒ ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
मा वनिं मा वाचं नो वीर्त्सीरुभाविन्द्राग्नी आ भरतां नो वसूनि। सर्वे नो अद्य दित्सन्तोऽरातिं प्रति हर्यत ॥
स्वर रहित पद पाठमा । वनिम् । मा । वाचम् । न: । वि । ईर्त्सी: । उभौ । इन्द्राग्नी इति । आ । भरताम् । न: । वसूनि । सर्वे । न: । अद्य। दित्सन्त: । अरातिम् । प्रति । हर्यत ॥७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे अदान शक्ति] (मा) न तो (नः) हमारी (वनिम्) भक्ति को और (मा) न (वाचम्) वाणी को (वि ईर्त्सीः) असिद्ध कर। (उभौ) दोनों (इन्द्राग्नी) जीव और अग्नि [पराक्रम] (नः) हमारे लिये (वसूनि) अनेक धन (आ भरताम्) लाकर भरें। (अद्य) आज (नः) हमें (दित्सन्तः) दान की इच्छा करनेवाले (सर्वे) हे सब गुणो ! (अरातिम्) अदान शक्ति को (प्रति) प्रतिकूलपन से (हर्यत) प्राप्त हो ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य पूर्ण श्रद्धा और सत्य प्रतिज्ञा से आत्मिक और शारिरिक बल बढ़ाकर विद्या धन और सुवर्ण आदि धन बढ़ाकर निर्धनता को हटावें ॥६॥
टिप्पणी
६−(मा) निषेधे (वनिम्) भक्तिम् (वाचम्) वाणीम् (नः) अस्माकम् (वि) विरुद्धम् (वि मा ईर्त्सीः) म० १। ऋधु वृद्धौ सनि माङि लुङि रूपम्। विगतसिद्धिं निष्फलां मा कुरु (उभौ) द्वौ (इन्द्राग्नी) इन्द्रो जीवात्मा, अग्निः पराक्रमश्च (आ) आनीय (भरताम्) पोषयताम् (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (सर्वे) (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) वर्तमाने दिने (दित्सन्तः) दातुमिच्छन्तः (अरातिम्) अदानशक्तिम् (प्रति) प्रातिकूल्येन (हर्यत) हर्य गतिकान्त्योः। गच्छत ॥
विषय
वनिम्-वाचम्
पदार्थ
१. उपासक प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! (न:) = हमारी (वनिम्) = सम्भजनवृत्ति को बाटैंकर खाने की वृत्ति को (मा) = मत (वि इर्त्सी:) = विगत वृद्धिवाला कीजिए-हमारी सम्भजनवृत्ति घटे नहीं बढ़ती ही जाए। हमारी (वाचम्) = इस ज्ञान की वाणी को भी (मा) = मत विगत वृद्धिवाला कीजिए। हमारे ज्ञान की वाणियाँ भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाएँ। (उभौ) = ये दोनों (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश की देवता इन्द्र और अग्नि (न:) = हमारे लिए (वसूनि आभरताम्) = वसुओं का-धनों का भरण करनेवाले हों। २. (नः सर्वे) = हमारे कुल के सब लोग दिप्सन्तः सदा धनों के देने की कामनावाले हों। हे हमारे कुल के सब लोगो! तुम (अरातिं प्रतिहर्यत) = अदानवृत्ति पर आक्रमण करनेवाले होओ [हर्य गतौ], आदनवृत्ति को समाप्त करके देने की वृत्तिवाले बनो।
भावार्थ
हम सम्भजन की वृत्तिवाले व स्वाध्यायशील बनें। बल व प्रकाश हमें वसुओं को प्राप्त करानेवाले हों। हमारे कुल में सभी दान की वृत्तिवाले हों, अदानवृत्ति पर आक्रमण करके हम उसे विनष्ट कर डालें।
भाषार्थ
(मा) न (नः) हमारी (वनिम्) याचना को, (मा) न ( वाचम्) याचना सम्बन्धी वाणी को [हे दाता !] (वीर्त्सी:) बीरता अर्थात् हठात् तु उपक्षीण कर, असफल कर, (इन्द्राग्नी) सम्राट् और अग्रणी-प्रधानमन्त्री (उभो) दोनों (न:) हमें (वसूनि) धन (आ भरताम् =आहरताम् ) प्राप्त कराएँ । (अद्य) आज ( न: ) हमारे (सर्वे) सब (दित्सन्तः) दान देने की इच्छावाले तुम (अरातिम् ) अदानभावना को (प्रति हर्यत) प्रगत करो, दूर करो।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि दाता हमारी याचना तथा तत्सम्बन्धी वाणी को असफल न करे, अपितु सम्राट् और प्रधानमन्त्री भी हम याचकों को धन प्रदान करें। प्रति हर्येत= प्रति+हर्य गतौ (भ्वादि:), विरोध में दूर करना । वनिम् =वनु वाचने (तनादिः)। इन्द्रः =सम्राट्, "इन्द्रश्च सम्राड वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)।]
विषय
अधीन भृत्यों को वेतन देने की व्यवस्था।
भावार्थ
हे स्वामिन् ! (वनिं) किसी के वेतन-वृत्ति आदि को (मा वि-ईर्त्सीः) मत रोक और (मा वाचं) वेद-वाणी के उपदेशों को भी मत रोक। (इन्द्राग्नी) ऐश्वर्यवान् राजा और विद्यावान् ज्ञानी पुरुष (नः) हमें (वसूनि) वास और जीवन योग्य पदार्थों को (आ भरताम्) बराबर सब प्रकार से प्राप्त कराते रहें। हे (दित्सन्तः) दान करने में उत्सुक पुरुषो ! (नः) हमें (अद्य) दैनिक (अरातिं प्रति) वेतन न प्रदान करने वाले कंजूस के प्रति आप लोग (प्रति हर्यत) आक्रमण करो। उसका मुकाबला करो जिससे कि वे अन्यों का स्वत्व न मारें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बहवो देवताः। १-३, ६-१० आदित्या देवताः। ४, ५ सरस्वती । २ विराड् गर्भा प्रस्तारपंक्तिः। ४ पथ्या बृहती। ६ प्रस्तारपंक्तिः। २, ३, ५, ७-१० अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
No Miserliness, No Misery
Meaning
O misery, O adversity, do not shake my words of prayer and dedication of the heart. Do not deprive me of the gifts of Sarasvati. May Indra and Agni, divine power and light, spirit of confidence and light of wisdom, bring us wealth, honour and excellence. Let all our powers of generosity and love today drive out meanness, misery and niggardliness from our life.
Subject
Arati - Niggards
Translation
May you not frustrate my desire, nor my words. May the Lord resplendent and adorable bestow plenty of riches on us. May all those, who are willing to give gifts to us give up niggardliness today:
Translation
Let not this misery make our devotion and dedication and words fruitless. May God and person of perseverance bring us all sorts of wealth. Let all the qualities of gift giving us everything work against the misery.
Translation
O master, don't detain our pay, nor reject our demand for it. May the king and learned persons bring us treasures. Ye all, ever fain to give us gifts, should condemn and oppose the miser, who refuses to pay us our wages.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(मा) निषेधे (वनिम्) भक्तिम् (वाचम्) वाणीम् (नः) अस्माकम् (वि) विरुद्धम् (वि मा ईर्त्सीः) म० १। ऋधु वृद्धौ सनि माङि लुङि रूपम्। विगतसिद्धिं निष्फलां मा कुरु (उभौ) द्वौ (इन्द्राग्नी) इन्द्रो जीवात्मा, अग्निः पराक्रमश्च (आ) आनीय (भरताम्) पोषयताम् (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (सर्वे) (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) वर्तमाने दिने (दित्सन्तः) दातुमिच्छन्तः (अरातिम्) अदानशक्तिम् (प्रति) प्रातिकूल्येन (हर्यत) हर्य गतिकान्त्योः। गच्छत ॥
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