अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सविता
छन्दः - त्रिपदा पिपीलिकमध्या पुरउष्णिक्
सूक्तम् - अमृतप्रदाता सूक्त
121
तमु॑ ष्टुहि॒ यो अ॒न्तः सिन्धौ॑ सू॒नुः स॒त्यस्य॒ युवा॑न॒म्। अद्रो॑घवाचं सु॒शेव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊं॒ इति॑ । स्तु॒हि॒ । य: । अ॒न्त: । सिन्धौ॑ । सू॒नु: । स॒त्यस्य॑ । युवा॑नम् । अद्रो॑घऽवाचम् । सु॒ऽशेव॑म् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु ष्टुहि यो अन्तः सिन्धौ सूनुः सत्यस्य युवानम्। अद्रोघवाचं सुशेवम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊं इति । स्तुहि । य: । अन्त: । सिन्धौ । सूनु: । सत्यस्य । युवानम् । अद्रोघऽवाचम् । सुऽशेवम् ॥१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (सत्यस्य) सत्य का (सूनुः) प्रेरक परमात्मा (सिन्धौ अन्तः) समुद्र [हृदय आदि गहरे स्थान] के भीतर है, (तम् उ) उस ही (युवानम्) संयोग वियोग करनेवाले, अथवा महाबली, (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहित वाणीवाले, (सुशेवम्) अत्यन्त सुख देनेवाले परमेश्वर की (स्तुहि) स्तुति कर ॥२॥
भावार्थ
जो सर्वव्यापक परमात्मा कल्याण वाणी वेदविद्या द्वारा दुःखों को हटा कर मोक्ष पद देता है, उसकी महिमा जान कर मनुष्य सदा पुरुषार्थ करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(तम्) प्रसिद्धम् (उ) एव (स्तुहि) प्रशंस (यः) परमात्मा (अन्तः) मध्ये (सिन्धौ) स्यन्दनशीले समुद्रे, हृदयादिगम्भीरदेशे (सूनुः) सुवः कित्। उ० ३।३५। इति षू प्रेरणे−नु। प्रेरकः (सत्यस्य) यथार्थस्य वेदज्ञानस्य (युवानम्) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः−कनिन्। संयोजकवियोजकम्। बलवन्तम् (अद्रोघवाचम्) द्रुह जिघांसायाम्−घञ्, हस्य घः। द्रोहरहितवाग्युक्तम्। कल्याणवाणिं परमेश्वरम् (सुशेवम्) अ० ४।२५।५। अतिशयेन सुखकरम् ॥
विषय
सत्यस्य सूनुः
पदार्थ
१. (तम् उ स्तुहि) = तू उस प्रभु का ही स्तवन कर (य:) = जो (अन्तः सिन्धौ) = गम्भीर हृदयदेश में या इस भवसागर में (सूनुः सत्यस्य) = सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं [ प्रेरणे], (युवानम्) = बुराइयों को हमसे पृथक्करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले हैं। २. उस प्रभु का स्तवन कर जो (अद्रोघवाचम्) = द्रोहशून्य वाणीवाले हैं, (सुशेवम्) = उत्तम कल्याण करनेवाले हैं।
भावार्थ
हे मनुष्य! तू हृदयदेश में सत्य की प्रेरणा देते हुए, बुराइयों से पृथक् करके कल्याण करनेवाले प्रभु का स्तवन कर।
भाषार्थ
(तम्, उ) उस की ही (स्तुहि) स्तुति कर, (यः) जो कि (सिन्धौ) हृदय समुद्र के (अन्तः) भीतर है, (सत्यस्य) सत्यज्ञान का (सूनु:) प्रेरक या उत्पादक है, (युवानम्) सदा युवा, (अद्रोधवाचम्) द्रोहरहित वेदवाणी का स्वामी और (सुशेवम्) उत्तम सुखदायक है।
टिप्पणी
[सिन्धुः= हृदय-समुद्र। यथा "सिन्धुसृत्याय" (अथर्व० १०।२।१२); तथा "हृद्यात् समुद्रात्" (यजु० १७-९३)। सूनु:= षू प्रेरणे (तुदादिः), तथा षूङ् प्रसवे (दिवादिः)। शेवम् सुखनाम (निघं० ३।६)]
भाषार्थ
(तम्, उ) उस की ही (स्तुहि) स्तुति कर, (यः) जो कि (सिन्धौ) हृदय समुद्र के (अन्तः) भीतर है, (सत्यस्य) सत्यज्ञान का (सूनु:) प्रेरक या उत्पादक है, (युवानम्) सदा युवा, (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहित वेदवाणी का स्वामी और (सुशेवम्) उत्तम सुखदायक है।
टिप्पणी
[सिन्धुः= हृदय-समुद्र। यथा "सिन्धुसृत्याय" (अथर्व० १०।२।१२); तथा "हृद्यात् समुद्रात्" (यजु० १७-९३)। सूनु:= षू प्रेरणे (तुदादिः), तथा षूङ् प्रसवे (दिवादिः)। शेवम् सुखनाम (निघं० ३।६)]
विषय
ईश्वरस्तुति।
भावार्थ
(तम् उ स्तुहि) हे विद्वन् ! ब्रह्मवेत्तः ! तू उसी की स्तुति कर (यः) जो (अन्तः-सिन्धौ) महा प्रवाह, सागर था मूल प्रकृतिरूप कारण में (सत्यस्य) इस सत्यमय जगत् का (सूनुः) प्रेरक और उसका उत्पादक और (युवानम्) बनाने और प्रलय करने वाला है, जो (अद्रोध-वाचम्) सदा द्रोहरहित, प्रेम की वाणी से स्मरण करने योग्य, एवं प्रेममय वाणी का उपदेष्टा और (सुशेवम्) सुख से सेवन करने योग्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सविता देवता। त्रिपदा पिपीलिकामध्या साम्नी जगती २- ३ पिपीलिका मध्या परोष्णिक्। तृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord of Immortality
Meaning
Worship that who rolls in the sea and vibrates in the depth of the heart, inspiring, exalting, life giving, eternal youthful, integrating, disintegrating and re¬ integrating the world of truth and reality, original source of the word of love free from jealousy and negativity, sole lord worthy of worship and service.
Translation
Praise him, who is the impeller towards truth in the midst of the ocean, who is young, is free from malicious speech, and is bestower of bliss.
Translation
Yea, worship and praise only Him who is the inspirer of truth, who is present in ocean or in the recess of heart, who is powerful force of integration and disintegration, whose command is inviolable and who is all-blissful.
Translation
Yea, praise Him Whose home is in the inmost recesses of the heart, Who is the Preacher of Truth, Whose Word is guileless, Who is a Gracious Friend..
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(तम्) प्रसिद्धम् (उ) एव (स्तुहि) प्रशंस (यः) परमात्मा (अन्तः) मध्ये (सिन्धौ) स्यन्दनशीले समुद्रे, हृदयादिगम्भीरदेशे (सूनुः) सुवः कित्। उ० ३।३५। इति षू प्रेरणे−नु। प्रेरकः (सत्यस्य) यथार्थस्य वेदज्ञानस्य (युवानम्) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः−कनिन्। संयोजकवियोजकम्। बलवन्तम् (अद्रोघवाचम्) द्रुह जिघांसायाम्−घञ्, हस्य घः। द्रोहरहितवाग्युक्तम्। कल्याणवाणिं परमेश्वरम् (सुशेवम्) अ० ४।२५।५। अतिशयेन सुखकरम् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
তমু স্টুহি যো অন্তঃ সিন্ধৌ সৃনুঃ সত্যস্য যুবানাম্। অদ্রোঘবাচং সুশেবম্।।৫।।
(অথর্ববেদ ৬।১।২)
পদার্থঃ (তম উ স্তুহি) তুমি তাঁর স্তুুতি করো, (যঃ) যিনি (অন্তঃ সিন্ধৌ) ভবসাগরের মধ্যে (সত্যস্য) সত্যের (সৃনুঃ) প্রেরণাদানকারী, (যুবানাম্) চির যৌবনসম্পন্ন, (অদ্রোঘ বাচম্) দ্রোহরহিত বাণীসম্পন্ন, (সুশেবম্) উত্তম কল্যাণকারী।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমাত্মা এক, তাঁর স্বরূপের কোন পরবর্তন হয় না। সকল মনুষ্যের সেই পরমাত্মার স্তুতি করা উচিৎ, কেননা তিনি আমাদের সঠিক মার্গ দেখিয়ে দেন। আমরা যখন ভবসাগরে নিমজ্জিত হই, তখন পরমাত্মাই আমাদের প্রেরণা দান করেন।।৫।।
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