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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जमदग्नि देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अभिसांमनस्य सूक्त
    64

    आञ्ज॑नस्य म॒दुघ॑स्य॒ कुष्ठ॑स्य॒ नल॑दस्य च। तु॒रो भग॑स्य॒ हस्ता॑भ्यामनु॒रोध॑न॒मुद्भ॑रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽअञ्ज॑नस्य । म॒दुघ॑स्य । कुष्ठ॑स्य । नल॑दस्य । च॒ । तु॒र: । भग॑स्य । हस्ता॑भ्याम् । अ॒नु॒ऽरोध॑नम् । उत् । भ॒रे॒ ॥१०२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आञ्जनस्य मदुघस्य कुष्ठस्य नलदस्य च। तुरो भगस्य हस्ताभ्यामनुरोधनमुद्भरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽअञ्जनस्य । मदुघस्य । कुष्ठस्य । नलदस्य । च । तुर: । भगस्य । हस्ताभ्याम् । अनुऽरोधनम् । उत् । भरे ॥१०२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जितेन्द्रिय होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (आञ्जनस्य) संसार के प्रकट करनेवाले, (मदुघस्य) आनन्द के सींचनेवाले, (कुष्ठस्य) गुण जाँचनेवाले, (नलदस्य) बन्धन काटनेवाले, (तुरः) शीघ्रकारी, (च) और (भगस्य) बड़े ऐश्वर्यवाले ब्रह्म के (अनुरोधनम्) यथावत् पूजन को (हस्ताभ्याम्) अपने दोनों हाथों [में बल] के लिये (उत्) उत्तम रीति से (भरे) मैं धारण करता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य उस जगदीश्वर के अनन्त शुभगुणों का विचार करके प्रयत्नपूर्वक सदा प्रसन्न रहें ॥३॥ इति दशमोऽनुवाकः ॥ इति चतुर्दशः प्रपाठकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(आञ्जनस्य) अ० ४।९।३। आङ्+अञ्जू व्यक्तौ−ल्युट्। यथावत्संसारस्य व्यक्तीकारकस्य ब्रह्मणः (मदुघस्य) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति मद हर्षे−उ प्रत्ययः+घृ सेके भासे च−ड। हर्षसेचकस्य (कुष्ठस्य) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकस्य (नलदस्य) अ० ४।३७।३। णल बन्धने−अच्+दो अवखण्डने−क। बन्धनच्छेदकस्य (च) (तुरः) तुर त्वरणे−क्विप्। वरणशीलस्य (भगस्य) ऐश्वर्यवतो ब्रह्मणः (हस्ताभ्याम्) हस्तयोर्बलप्राप्तये (अनुरोधनम्) यथावत्पूजनम् (उत्) उत्कर्षेण (भरे) हृदये धरामि ॥

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    विषय

    आञ्जन, मधुष, कुष्ठ, नलद

    पदार्थ

    १.(आञ्जनस्य) = [अञ्ज-व्यक्ति] संसार को व्यक्त करनेवाले-प्रकृति से संसार को प्रकट करनेवाले (मधुघस्य) = [मद् सेचने] आनन्द का सेचन करनेवाले, (कुष्ठस्य) = [कुष निष्कर्षे] सब बुराइयों को बाहर कर देनेवाले, जीवन को पवित्र बना देनेवाले (च) = और इसप्रकार (नलदस्य) = बन्धनों को काट देनेवाले [नल बन्धने, दो अवखण्डने], (तुर:) = [तुर्वी हिंसायाम्] सब आसुर वृत्तियों का संहार करनेवाले व (भगस्य) = ऐश्वर्य के पुज्ज प्रभु के (अनुरोधनम्) = पूजन को, पूजा द्वारा अनुकूलता को (हस्ताभ्याम्) = हार्थों से, नकि कानों से (उद्भरे) = धारण करता हूँ। २. हाथों से पूजन को धारण करने का भाव यह है कि मैं अपने कर्तव्यकर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन करता हूँ [स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः] । गुण-कीर्तन तो श्रव्य भक्ति है। यहाँ ये कर्म आँखों से दीखते हैं। भूखे को रोटी देना, प्यासे को पानी पिलाना, रोगी का उपचार करना' प्रभु का हाथों द्वारा उपासन है। इसे करता हुआ उपासक जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करता है[आञ्जन], जीवन को आनन्द से सिक्त करता है [मदुघ], बुराइयों को दूर करता है [कुष्ठ], अन्ततः बन्धनों को काटनेवाला होता है [नलद]। यही मार्ग है जिससे कि उपासक आसुरवृत्तियों का हिंसन करके [तुर] वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त करता है [भग]।

    भावार्थ

    हम कर्तव्य कर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन करते हुए 'आञ्जन, मदुष, कुष्ठ, नलद, तुर व भग' बनें।

    विशेष

    विशेष-प्रभुपूजन द्वारा सब आसुर वृत्तियों को दूर करके जीवन को उत्कृष्ट दीप्ति से युक्त करनेवाला यह 'उच्छोचन' अगले सूक्त का ऋषि-द्रष्टा है।

    पञ्चदशः प्रपाठकः काम किया।

     

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    भाषार्थ

    (आञ्जनस्य) शरीर से शोभा वाला तथा तेरी कामना वाला (मदुघस्य) मधुर वचनों का दोहन करनेवाला अर्थात् मधुरभाषी, (कुष्ठस्य) मेरे प्रति तेरी विरक्तता के कारण कुत्सितावस्था में स्थित, (च) और (नलदस्य) तुझे भाषण देने वाला अर्थात् तेरे साथ बोल रहा, (तुरः) तेरे कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करने वाला, (भगस्य) तथा ऐश्वर्यसम्पन्न जो मैं हूं, उस मेरे (हस्ताभ्याम्) निज हाथों द्वारा (अनुरोधनम्) तेरी कामना का (उद्भरे) मैं उद्धार करता हूँ, उसे पूर्ण करता हूँ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में हस्ताभ्याम् से पूर्व "तस्य मम" का अध्याहार अपेक्षित है। आञ्जनस्य= अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः) में अभिव्यक्ति और कान्ति अर्थात् कामना अभिप्रेत है। मदुघस्य= मधुदुघस्य। यथा मदुघात्= मधुदुधात्, दुह प्रपूरणे। मधुशब्दोपपदात्, अस्मात् "दुहः कब् घश्च" (अष्टा० ३।२।७०) इति कप् प्रत्ययः, तत्सन्नियोगेन घत्वं च [हकारस्य]। मधुशब्दे धुलोपश्छान्दसः" (सायण, अथर्व १।३४।४)। कुष्ठस्य = कु = (कुत्सितावस्था)+स्थ, अथवा “कौ (पृथिव्याम्) + स्थितस्य" अर्थात् जीवित। नलदस्य = नल च (भाषार्थः, चुरादिः) + दा दाने। तुरः= त्वरायुक्तस्य। अनुरोधनम्= अनो रुघ कामे (दिवादिः)। उद्भरे = हुग्रहोर्भः छन्दसि।]

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    विषय

    दाम्पत्य प्रेम का उपदेश।

    भावार्थ

    स्त्री अपने पति के हाथों दिये हुए अञ्जन, मुलैठी या अन्य हर्षोत्पादक कूठ और अन्य सुगन्ध पदार्थो को स्वीकार करे। स्त्री उक्त पदार्थों को स्वीकार करती हुई कहती है—मैं (तुरः) शीघ्र ही प्राप्त होने वाले (भगस्य) सौभाग्यशील पुरुष के (हस्ताभ्याम्) हाथों से (आञ्जनस्य) अंजन (मदुघस्य) तृप्तिकारक तथा हर्षोत्पादक पदार्थ, कूठ और (नलदस्य) खस आदि पदार्थों के बने (अनुरोधनम्) प्रेम = अभिलाषा और कामना के अनुकूल पदार्थ को (उभरे) स्वीकार करती हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अभिसम्मनस्कामो जमदग्निर्ऋषिः। अश्विनौ देवते। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love of Life

    Meaning

    By both hands, with both passion and judgement, I hold on to the love and spirit of the omnipresent lord of glory, faster than energy itself, creator of this beautiful world, giver of joy, all watching lord of judgement and dispensation, and the ultimate saviour, redeemer and destroyer of suffering.

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    Translation

    With the hands Bhaga (good luck), I anoint your limbs with the ointment of antimony (anjana), sugar-cane (madugha), kustha and spikenard (nalada or nard), a quick means of winning love.

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    Translation

    I, the wife swiftly bear away the ointment and piece of Madugha and spikenard (Nalada) from the bands of husband as the lovely gift.

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    Translation

    For acquiring strength in both the hands, I nicely resort to the contemplation of God, the Maker of the universe, the Embodiment of joy, the Scrutinizer of virtues, the Annihilator of fetters, Agile and Prosperous.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(आञ्जनस्य) अ० ४।९।३। आङ्+अञ्जू व्यक्तौ−ल्युट्। यथावत्संसारस्य व्यक्तीकारकस्य ब्रह्मणः (मदुघस्य) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति मद हर्षे−उ प्रत्ययः+घृ सेके भासे च−ड। हर्षसेचकस्य (कुष्ठस्य) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकस्य (नलदस्य) अ० ४।३७।३। णल बन्धने−अच्+दो अवखण्डने−क। बन्धनच्छेदकस्य (च) (तुरः) तुर त्वरणे−क्विप्। वरणशीलस्य (भगस्य) ऐश्वर्यवतो ब्रह्मणः (हस्ताभ्याम्) हस्तयोर्बलप्राप्तये (अनुरोधनम्) यथावत्पूजनम् (उत्) उत्कर्षेण (भरे) हृदये धरामि ॥

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