अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 123/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृगु
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त
41
जा॑नी॒त स्मै॑नं पर॒मे व्योम॒न्देवाः॒ सध॑स्था वि॒द लो॒कमत्र॑। अ॑न्वाग॒न्ता यज॑मानः स्व॒स्तीष्टा॑पू॒र्तं स्म॑ कृणुता॒विर॑स्मै ॥
स्वर सहित पद पाठजा॒नी॒त । स्म॒ । ए॒न॒म् । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । देवा॑: । सध॑ऽस्था: । वि॒द । लो॒कम् । अत्र॑ । अ॒नु॒ऽआ॒ग॒न्ता । यज॑मान: । स्व॒स्ति । इ॒ष्टा॒पू॒र्तम् । स्म॒ । कृ॒णु॒त॒ । आ॒वि: । अ॒स्मै॒ ॥१२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकमत्र। अन्वागन्ता यजमानः स्वस्तीष्टापूर्तं स्म कृणुताविरस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठजानीत । स्म । एनम् । परमे । विऽओमन् । देवा: । सधऽस्था: । विद । लोकम् । अत्र । अनुऽआगन्ता । यजमान: । स्वस्ति । इष्टापूर्तम् । स्म । कृणुत । आवि: । अस्मै ॥१२३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों से सत्सङ्ग का उपदेश।
पदार्थ
(सधस्थाः) हे साथ-साथ बैठनेवाले (देवाः) विद्वानो ! (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में वर्तमान (एनम्) इस [परमात्मा] को (स्म) अवश्य (जानीत) जानो, और (अत्र) इस [परमात्मा] में (लोकम्) संसार को (विद) जानो [और जिसके द्वारा] (यजमानः) परमेश्वर का पूजनेवाला (स्वस्ति) कल्याण (अन्वागन्ता) लगातार पावेगा, (इष्टापूर्तम्) यज्ञ, वेदाध्ययन, अन्नदान आदि पुण्य कर्म को, (अस्मै) इस परमेश्वर की प्राप्ति के लिये (स्म) अवश्य (आविः) प्रकाशित (कृणुत) करो ॥२॥
भावार्थ
सब मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से योगाभ्यास और धर्म्म का आचरण करके परमेश्वर को जान कर आनन्द करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(एनम्) सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (देवाः) विद्वांसः (विद) लोडर्थे−लट्। वित्त, जानीत (लोकम्) संसारम् (अत्र) अस्मिन् परमात्मनि (इष्टापूर्त्तम्) अ० २।१२।४। यज्ञवेदाध्ययनान्नप्रदानादिपुण्यकर्म। (कृणुत) कुरुत (आविः) प्रकाशे (अस्मै) परमात्मप्राप्तये। अन्यद् गतम्−म० १ ॥
विषय
यज्ञों से कल्याण व प्रभु-प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! (सधस्था:) = यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले आप (एनम्) = इस प्रभु को (परमे व्योमन् जानीत स्म) = परम आकाश में सर्वत्र व्याप्त जानो, और (अत्र) = इस जीवन में भी (लोकं विद) = उत्तम प्रकाशमय जीवन को प्राप्त करो [जानो]। २. यह निश्चय से समझ लो कि (यजमानः स्वस्ति अनु आगन्ता) = यह यज्ञशील पुरुष अधिक-से-अधिक सुख को प्रास करेगा, अत: तुम (अस्मै) = इस कल्याण व प्रभु-प्राप्ति के लिए (इष्टापूर्तम्) = यज्ञों व कूप-निर्माण आदि लोकहित के कार्यों को (आविः कृणुत) = अपने जीवन में प्रादुर्भूत करो। ये पवित्र कर्म ही तुम्हारा कल्याण करेंगे-ये प्रभु-प्राप्ति का साधन बनेंगे।
भावार्थ
यज्ञों व लोकहित के कार्यों के द्वारा हम स्वर्ग को प्राप्त करें और प्रभु को भी जानें।
भाषार्थ
(सधस्थाः देवाः) हे दिव्यगुणी सधस्थो ! (एनम्) इस यजमान को (परमे व्योमन्) परम रक्षक परमेश्वर में स्थित (जानीत) जानो (अत्र) इस परमेश्वर में (लोकम्) इसका लोक (विद= विदथ) जानो। (यजमानः) दानयज्ञ या ध्यानयज्ञ करने वाला (अनु) दान के पश्चात् (स्वस्ति) कल्याण मार्ग की ओर (आगन्ता) आएगा (अस्मै) इसके लिये हे दिव्य सदस्थो ! (इष्टापूर्तम्) इसके अभीष्ट [मोक्ष] की पूर्ति (कृणुत) करो। [सधस्थाः देवाः मन्त्र (१) में कथित महात्मा। लोकम्= परमेश्वर रूपी आश्रय, निवास स्थान।]
विषय
मुक्ति की साधना
भावार्थ
हे (सस्थाः देवाः) सदा साथ रहने वाले विद्वान् पुरुषो ! (एनम्) इस यज्ञकर्त्ता पुरुष को भी (परमे व्योमन्) परम उत्कृष्ट रक्षास्थान में प्राप्त हुआ (जानीत) जानो। (अत्र) इसी ही स्थान पर (लोकम्) इसका लोक=स्थान या भोग्य भोग जानो। (यजमानः) दान देने वाला और देवार्चन, ईश्वर-भजन करने वाला पुरुष ही यहां (स्वस्ति) कुशलपूर्वक (अनु आगन्ता) पहुँच सकता है। आप लोग (अस्मै) इस के लिये (इष्टापूर्तम्) इष्ट-यज्ञ आदि तथा ईश्वरपूजा आदि का आपूर्त = कूपतडागादि उपकारजनक कार्यों का (आविः कृणुत स्म) उपदेश करो। उन कार्यों को करके यह उच्चगति प्राप्त करे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘एवं जानाथ’ (द्वि०) ‘विद रूपमस्य’ (तृ०) ‘यदागच्छत् अयिमर्देवयानैः’ (च०) ‘इष्टापूर्ते कृणुनाथ’ इति यजुः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। १-२ त्रिष्टुभौ, ३ द्विपदा साम्नी अनुष्टुप्, ४ एकावसाना द्विपदा प्राजापत्या भुरिगनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
HeavenlyJoy
Meaning
O friends and inmates of the hall of yajna, know this that is in the highest heaven, and know that the world too is here in. The yajamana will come to all good and total well being. Do all acts of piety of choice as well as of obligation for it openly without fear or inhibition.
Translation
Do you recognize him in the highest heaven (parama vyoman). Of course, you know people here in the presant society. One who is engaged in sacrifice shall have peace; lead him to the joy that comes from good actions.
Translation
O Our friendly learned man! acknowledge and know Him (God) who resides in all-blessendness and know that this world exists in Him. There performer of yajna will attain pleasure and prosperity, show and teach this yajman the ways and means of Ishtapurta, the pious actions.
Translation
Ye learned Comrades, know this sacrificer as having attained to final beatitude. Know that state of emancipation as his place. A devotee of God alone can happily reach that stage. O learned persons preach unto him the contemplation of God and the performance of noble actions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(एनम्) सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (देवाः) विद्वांसः (विद) लोडर्थे−लट्। वित्त, जानीत (लोकम्) संसारम् (अत्र) अस्मिन् परमात्मनि (इष्टापूर्त्तम्) अ० २।१२।४। यज्ञवेदाध्ययनान्नप्रदानादिपुण्यकर्म। (कृणुत) कुरुत (आविः) प्रकाशे (अस्मै) परमात्मप्राप्तये। अन्यद् गतम्−म० १ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal