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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 124/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - दिव्या आपः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त
    65

    यदि॑ वृ॒क्षाद॒भ्यप॑प्त॒त्पलं॒ तद्यद्य॒न्तरि॑क्षा॒त्स उ॑ वा॒युरे॒व। यत्रास्पृ॑क्षत्त॒न्वो॒ यच्च॒ वास॑स॒ आपो॑ नुदन्तु॒ निरृ॑तिं परा॒चैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। वृ॒क्षात् । अ॒भि॒ऽअप॑प्तत् ।फल॑म् । तत् । यदि॑ । अ॒न्तरि॑क्षात् । स: । ऊं॒ इति॑ । वा॒यु: । ए॒व । यत्र॑ । अस्पृ॑क्षत् । त॒न्व᳡: । यत् । च॒ । वास॑स: । आप॑: । नु॒द॒न्तु॒ । नि:ऽऋ॑तिम् । प॒रा॒चै: ॥१२४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि वृक्षादभ्यपप्तत्पलं तद्यद्यन्तरिक्षात्स उ वायुरेव। यत्रास्पृक्षत्तन्वो यच्च वासस आपो नुदन्तु निरृतिं पराचैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। वृक्षात् । अभिऽअपप्तत् ।फलम् । तत् । यदि । अन्तरिक्षात् । स: । ऊं इति । वायु: । एव । यत्र । अस्पृक्षत् । तन्व: । यत् । च । वासस: । आप: । नुदन्तु । नि:ऽऋतिम् । पराचै: ॥१२४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 124; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की शुद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) यदि (वृक्षात्) वृक्ष से (तत् फलम्) वह [अशुद्ध] फल, और (यदि) यदि (अन्तरिक्षात्) आकाश से (सः उ वायुः) वही [अशुद्ध] वायु (एव) वैसे ही (अभ्यपप्तत्) गिर पड़ा है, और (यत्) जिसने (यत्र) जहाँ पर (तन्वः) शरीर का (च) और (वाससः) वस्त्र का (अस्पृक्षत्) स्पर्श किया है, (आपः) जल (निर्ऋतिम्) अलक्ष्मी [अशुद्धि] को (पराचैः) उलटे मुँह (नुदन्तु) हटा देवें ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे अशुद्ध फल वा अशुद्ध वायु से मलिन वस्त्र वा शरीर को जल से शुद्ध करते हैं, वैसे ही मनुष्य दोषों से दूषित आत्मा को यथार्थ ज्ञान से शुद्ध कर लेवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यदि) (वृक्षात्) (अभ्यपप्तत्) म० १। अभितः पतितम् (फलम्) (तत्) (यदि) (अन्तरिक्षात्) (सः) (उ) अवधारणे (वायुः) (एव) एवं तथा (यत्र) यस्मिन् भागे (अस्पृक्षत्) स्पर्शतेर्लुङि रूपम्। स्पर्शम् अकरोत् (तन्वः) शरीरस्य (यत्) (च) (वाससः) वस्त्रस्य (आपः) जलानि (नुदन्तु) प्रेरयन्तु (निर्ऋतिम्) अ० २।१०।१। अलक्ष्मीम्। अशुद्धिम् (पराचैः) पराङ्मुखीकृत्वा ॥

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    विषय

    फल-वायु-जल

    पदार्थ

    १. अथर्वा प्रार्थना करता है कि (यदि वृक्षात् अभि अपप्तत्) = यदि वृक्षों से कोई वस्तु मेरी ओर गिरे, अर्थात् मुझे प्राप्त हो तो (तत् फलम्) = वह फल ही हो। मैं वृक्षों के फलों का सेवन करनेवाला बनूं। (यदि अन्तरिक्षात् सः उ वायुः एव) = यदि अन्तरिक्ष से मुझे कोई वस्तु प्राप्त हो तो वह निश्चय से वायु ही हो। मैं अन्तरिक्ष की खुली वायु में निवास करनेवाला बनूं। तङ्ग गलियों में जहाँ वायु का खुला प्रवेश नहीं, वहाँ मेरा निवास न हो। २. (यत्र) = जहाँ कहीं भी शरीर पर मल का (अस्पृक्षत्) = स्पर्श हो (च) = और (यत्) = जो वस्त्र पर मल लगे तो उस (नितिम्) = मलरूप बुराई [Evil] को (आपः) = जल (पराचैः) = दूर ले-जाने की क्रियाओं द्वारा (तन्वः) = शरीर से और (वासस:) = वस्त्रों से (नुदन्तु) = परे धकेल दें।

    भावार्थ

    अथर्वा चाहता है कि १. वह वृक्षों के फलों का सेवन करे, २. अन्तरिक्ष की शुद्ध वायु में विचरे तथा ३.जलों द्वारा शरीर व वस्त्रों को शुद्ध रक्खे।

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    भाषार्थ

    (यदि वृक्षात्) यदि वृक्ष से (अभि) मेरी ओर (फलम्) फल [स्वयं पककर१] (अपप्तत्) गिरा है (तत्) तो वह और (यदि अन्तरिक्षात्) यदि अन्तरिक्ष से [अल्पवर्षा जल] भी गिरा है तो (स) वह (उ) निश्चय से, (वायुः एव) प्राणप्रदवायु के सदृश ही है। तथा (तन्वः) शरीर के (यत्र) जिस अङ्ग में (च) और (वाससः) वस्त्र के जिस स्थान में (यत्) जो अपवित्र वस्तु (अस्पृक्षत्) स्पर्श कर गई है, लग गई है तो उस (निर्ऋतिम्) कष्टप्रद वस्तु को (अपः) शुद्ध जल (पराचः) पृथक् कर देने की विधियों द्वारा (नुदन्तु) पृथक् कर दें।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशों का कथन हुआ है। वृक्ष से स्वयं फल का गिरना उसकी परिपक्वावस्था का सूचक है। उसका सेवन प्राणप्रद वायु के सदृश प्राणप्रद है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष से वर्षाजल का गिरना भी वायुसमान प्राणप्रद है। वर्षाजल शुद्ध होता है, और भूमि पर गिरकर वह अशुद्ध हो जाता है, उसमें भूमि के तत्त्वों का मिश्रण हो जाता है। इस लिये इन शुद्ध जलों द्वारा शरीर और वस्त्र के मल को धोने का वर्णन हुआ है। यह मल निर्ऋति है, कृच्छ्रापत्ति है। निर्ऋतिः कृच्छापत्तिः (निरु० २।२।८; निर्ऋति पद)। अपप्तत्= पत्लृ गतौ, लृदित्त्वात् च्लेः अङ् आदेशः "पतः पुम्" (अष्टा० ७।४‌।१९) इति पुम् आगमः (सायण)। अस्पृक्षत् = स्पृशतेश्छान्दसो लुङ, च्लेः क्सादेश: (अष्टा० ३।१।४५), (सायण)।] [१. कृत्रिम विधि से पकाए फल उतने गुणकारी नहीं होते जितने कि शाला पर पके गुणकारी होते हैं।]

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    विषय

    शौच साधन।

    भावार्थ

    (यदि) यदि (वृक्षात्) वृक्ष से (फलं अभि-अपप्तम्) फल गिरे और (यदि अन्तरिक्षात्) यदि अन्तरिक्ष से जल गिरे तो (सः उ वायुरेव) वह भी वायु ही है, वह भी प्राणशक्ति का बढ़ाने वाला जीवन रूप है। (तन्वः) शरीर के (यत्र) जिस भाग पर (अस्पृक्षत्) यदि मेल स्पर्श करे और (यत् वाससः) कपड़े के जिस भाग पर वह स्पर्श करे उस स्थान पर से ही (आप) जल (निर्ऋति) घृणाजनक मैल को (परांचे:) दूर (नुदन्तु) हटादें। अर्थात् वर्षा का जल, वृक्ष का फल दोनों पवित्र पदार्थ हैं। फल से शरीर और जल से वस्त्र स्वच्छ रहते हैं। इसी प्रकार हमारे कर्मवृक्ष से फल प्राप्त होता है, अन्तर्यामी परमात्मा से जीवन प्राप्त होता है। वे आत्मा और शरीर दोनों के मलों को दूर करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निर्ऋत्यपसरणकामोऽथर्वाऋषिः। मन्त्रोक्ता उत दिव्या आपो देवताः। त्रिष्टुभः॥ तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Rain

    Meaning

    If it falls from the tree, it is the fruit, if from the sky it is a drop, either way it is, a refreshing breeze which, wherever it touches, body or garment, let it, with cool currents, drive away want and adversity far away.

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    Translation

    If it falls from a tree, it is a fruit: if from the midspace, then it is surely the wind only. Where it touches a part of the body or of clothing, from there may the waters dispel distress (perdition) away from us.

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    Translation

    It is a fruit if any tree has dropped it, it is a breath if it has descended from the sky, let the waters drive away troubles from where it has touched my body or garment.

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    Translation

    It is a fruit if any tree hath dropped it, a breath, if from the sky it hath descended. Where it hath touched my body or my garment, thence may the waters drive dirt away.

    Footnote

    It means water. Water purifies our clothes, fruit purifies our body. We reap fruit from the tree of our actions. Omnipresent God grants us life, which removes the dirt of the soul and body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यदि) (वृक्षात्) (अभ्यपप्तत्) म० १। अभितः पतितम् (फलम्) (तत्) (यदि) (अन्तरिक्षात्) (सः) (उ) अवधारणे (वायुः) (एव) एवं तथा (यत्र) यस्मिन् भागे (अस्पृक्षत्) स्पर्शतेर्लुङि रूपम्। स्पर्शम् अकरोत् (तन्वः) शरीरस्य (यत्) (च) (वाससः) वस्त्रस्य (आपः) जलानि (नुदन्तु) प्रेरयन्तु (निर्ऋतिम्) अ० २।१०।१। अलक्ष्मीम्। अशुद्धिम् (पराचैः) पराङ्मुखीकृत्वा ॥

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