अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 124/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - दिव्या आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त
87
अ॒भ्यञ्ज॑नं सुर॒भि सा समृ॑द्धि॒र्हिर॑ण्यं॒ वर्च॒स्तदु॑ पू॒त्रिम॑मे॒व। सर्वा॑ प॒वित्रा॒ वित॒ताध्य॒स्मत्तन्मा ता॑री॒न्निरृ॑ति॒र्मो अरा॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । सु॒र॒भि । सा । सम्ऽऋ॑ध्दि: । हिर॑ण्यम् । वर्च॑: । तत् । ऊं॒ इति॑ । पू॒त्रिम॑म् । ए॒व । सर्वा॑ । प॒वित्रा॑ । विऽत॑ता । अधि॑ । अ॒स्मत् । तत्। मा । ता॒री॒त् । नि:ऽऋ॑ति: । मो इति॑ । अरा॑ति: ॥१२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव। सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत्तन्मा तारीन्निरृतिर्मो अरातिः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽअञ्जनम् । सुरभि । सा । सम्ऽऋध्दि: । हिरण्यम् । वर्च: । तत् । ऊं इति । पूत्रिमम् । एव । सर्वा । पवित्रा । विऽतता । अधि । अस्मत् । तत्। मा । तारीत् । नि:ऽऋति: । मो इति । अराति: ॥१२४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की शुद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(अभ्यञ्जनम्) तेल आदि लगाना, (सुरभिः) सुगन्ध चन्दनादि (सा समृद्धिः) वह सम्पत्ति (हिरण्यम्) सुवर्ण, (वर्चः) तेज, (तदु) वही (पवित्रमम्) पवित्रता (एव) वैसे ही है, (सर्वा) सब (पवित्रा) शोधन के साधन (अस्मद् अधि) हमारे ऊपर (वितता) फैले हुए हैं (तत्) इस लिये [हम को] (मा) न तो (निर्ऋतिः) अलक्ष्मी (मो) और न (अरातिः) कंजूस पुरुष (तारीत्) दबावे ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य पवित्र धार्मिक व्यवहारों से संसार के आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करके सदा सुख भोगे ॥३॥ इति द्वादशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
३−(अभ्यञ्जनम्) अभ्यङ्गसाधकं तैलादिकम् (सुरभि) सुगन्धं चन्दनादिकम् (सा) प्रसिद्धा (समृद्धिः) सम्पत्तिः (हिरण्यम्) सुवर्णान् (वर्चः) तेजः। बलम् (तत्) (उ) (पवित्रमम्) ड्वितः क्त्रिः। पा० ३।३।८८। इति बाहुलकात् पूञ् पवने−क्त्रिः। क्त्रेर्मम् नित्यम्। पा० ४।४।२०। इति मम्। शुद्धिसाधनम् (एव) एवम् (सर्वा) सर्वाणि (पवित्रा) शोधनानि (वितता) विस्तृतानि (अस्मदधि) अस्माकमुपरि (तत्) तस्मात् (मा) निषेधे (निर्ऋतिः) अलक्ष्मीः (मो तारीत्) अ० २।७।४। मैवातिक्रामत् (अरातिः) अ० २।७।४। अदाता कृपणः ॥
विषय
व 'निरृति व अराति' से दूर
पदार्थ
१. (अभ्यञ्जनम्) = आँखों में अञ्जन का प्रयोग और उससे नेत्र-मल को दूर करना, अर्थात् जानाञ्जन द्वारा अज्ञानतिमिर को दूर करना, (सुरभि) = सुगन्धित-[मधुर]-वाणी बोलना [सुरभिनों मुखा करता ण आयूंषि तारिषत्] (सा समृद्धिः) = वह सुपथ से कमाया धन, (हिरण्यम्) = वीर्य, (वर्च:) = रोगनिरोधक शक्ति (तत्) = वह सब (उ) = निश्चय से (पूत्रिमम् एव) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला है। धन भी जीवन को पवित्र रखने का साधन बनता है। धन के अभाव में 'बुभुक्षितः किन्न करोति पापम्-भूखा क्या पाप नहीं कर बैठता? २. (सर्वा पवित्रा) = पवित्र करने के सब साधन (अस्मत् अधि) = हमपर (वितता) = विस्तृत हुए-हुए हैं, (तत्) = इसलिए (मा) = मुझे (निर्ऋति: मा तारीत्) = अनिष्टकारिणी पापदेवता [मलदेवता] मत अतिक्रान्त करे (उ) = और (अराति: मा) = अदानवृत्ति मत अतिक्रान्त करनेवाली हो। पवित्रता के साधनों से आच्छादित मैं 'निति ब अराति' का शिकार न होऊँ-न दुर्गति-दुराचरणवाला बन न अदानवृत्तिवाला।
भावार्थ
ज्ञानाञ्जन-शलाका से अज्ञानतिमिर को दूर करना, 'मधुर शब्द, सुपथार्जित धन, वीर्य व रोग निरोधक शक्ति'-ये सब मेरे जीवन को पवित्र करें। पवित्रता के इन साधनों से आच्छादित हुआ-हुआ मैं दुराचरण व अदानवृत्ति से दूर रहूँ।
भाषार्थ
(अभ्यञ्जनम्) मलने का तैल, (सुरभि) सुगन्धित चन्दन आदि (सा समृद्धिः) वह समृद्धिरूप है, (हिरण्यम्) सुवर्ण और (वर्चः) शारीरिक तेज (तत् उ) वे (पुत्रिमम्) पवित्रता के साधन ही हैं। (सर्वा पवित्रा= सर्वाणि पवित्राणि) सब पवित्र कर्म (अस्मत् अधि) हम से (वितता = विततानि) विस्तृत हुए हैं, (तत्) अतः (मा) न (निर्ॠतिः) कष्टापत्ति (तारीत्) हमें दवाएं, (मो) न (अरातिः) अदान भावना दबाएं।
टिप्पणी
[हिरण्य१= सुवर्णभस्म। यह रोगों का विनाश करके शरीर को नीरोग करती है, नीरोगता ही पवित्रता है। शारीरिक नीरोगता से शारीरिक तेज या बल बढ़ता है। शारीरिक बल की वृद्धि से रोग शरीर पर आक्रमण नहीं करते, शरीर के स्वस्थ रहते [सूक्त १२४ मन्त्र १ में प्रोक्त] छन्दों का स्वाध्याय आदि शुभकर्मों के कारण न कृच्छ्रापत्ति अर्थात् शारीरिक कष्ट दबाते हैं, न कंजूसी आदि मानसिक दुर्भावनाएं दबाती हैं। तारीत्= अतिक्रामतु (सायण)।][१. होम्योपैथी में विशुद्ध हिरण्य का भी प्रयोग होता है जिसे कि "Aurum metallicum" कहते हैं।]
विषय
शौच साधन।
भावार्थ
(अभ्यञ्जनम्) शरीर में तैल आदि का मलना, आंखों में अंजन करना, (सुरभि) सुगन्धित पदार्थ, (हिरण्यम्) सुवर्ण और (वर्चः) शरीर में ब्रह्मचर्य के तेज का होना (सा) वह सब (समृद्धिः) समृद्धि ही है। और (तद् उ) वह भी (पूत्रिमम् एव) पवित्र ही है। ये (सर्वा) सब ही (पवित्रा) पवित्र पदार्थ (वितता) इस संसार में नाना प्रकार से फैले हुए हैं। (अधि अस्मत्) हम पर (निर्ऋतिः) अलक्ष्मी या मलिनता या घृणाजनक गन्दगी (मा तारीत्) न आवे और (अरातिः मा उ) न मानसिक अनुदारता हम पर आवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निर्ऋत्यपसरणकामोऽथर्वाऋषिः। मन्त्रोक्ता उत दिव्या आपो देवताः। त्रिष्टुभः॥ तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Rain
Meaning
It is the soothing balm, joyous fragrance, prosperity, gold, lustrous splendour, purifying sanctity. Over the world, all purifiers are extensively spread over us. Let no want, no adversity, no calamity ever befall us.
Translation
O sweet-smelling ointment, the prosperity, the gold, the splendour, all that is surely purifying. All the purifiers are spread over us. Therefore, may the distress (Perdition) never overwhelm us, nor the niggardness (arati).
Translation
It is a fragrant ointment, it is happy fortune, it is splendorous vigor and it is purified from all impurities. All these purifying substances are scattered in this world. Let not any impurity come to us and let not any malignity sub-due us.
Translation
It is a fragrant ointment, happy fortune, sheen all of gold, yea, purified from blemish. Spread over us are all purifications. May not poverty and parsimony subdue us.
Footnote
It means Water.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अभ्यञ्जनम्) अभ्यङ्गसाधकं तैलादिकम् (सुरभि) सुगन्धं चन्दनादिकम् (सा) प्रसिद्धा (समृद्धिः) सम्पत्तिः (हिरण्यम्) सुवर्णान् (वर्चः) तेजः। बलम् (तत्) (उ) (पवित्रमम्) ड्वितः क्त्रिः। पा० ३।३।८८। इति बाहुलकात् पूञ् पवने−क्त्रिः। क्त्रेर्मम् नित्यम्। पा० ४।४।२०। इति मम्। शुद्धिसाधनम् (एव) एवम् (सर्वा) सर्वाणि (पवित्रा) शोधनानि (वितता) विस्तृतानि (अस्मदधि) अस्माकमुपरि (तत्) तस्मात् (मा) निषेधे (निर्ऋतिः) अलक्ष्मीः (मो तारीत्) अ० २।७।४। मैवातिक्रामत् (अरातिः) अ० २।७।४। अदाता कृपणः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal