अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 139/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त
37
सं॒वन॑नी समुष्प॒ला बभ्रु॒ कल्या॑णि॒ सं नु॑द। अ॒मूं च॒ मां च॒ सं नु॑द समा॒नं हृद॑यं कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽवन॑नी । स॒म्ऽउ॒ष्प॒ला । बभ्रु॑ । कल्या॑णि । सम् । नु॒द॒ । अ॒मूम् । च॒ । माम् । च॒ । सम् । नु॒द॒ । स॒मा॒नम् । हृद॑यम् । कृ॒धि॒ ॥१३९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
संवननी समुष्पला बभ्रु कल्याणि सं नुद। अमूं च मां च सं नुद समानं हृदयं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽवननी । सम्ऽउष्पला । बभ्रु । कल्याणि । सम् । नुद । अमूम् । च । माम् । च । सम् । नुद । समानम् । हृदयम् । कृधि ॥१३९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(बभ्रु) हे पालनशील ! (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणी विद्या ! (संवननी) यथावत् सेवनीय और (समुष्पला) यथाविधि निवास की रक्षा करनेहारी तू [हम दोनों को] (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा। (अमूम्) उस [विदुषी] को (च च) और (माम्) मुझ को (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा, [हम दोनों के] (हृदयम्) हृदय को (समानम्) एक (कृधि) कर दे ॥३॥
भावार्थ
जो स्त्री-पुरुष पूर्ण विद्वान् होकर गृहस्थ बनते हैं, वे ही परस्पर उपकार करके सदा सुखी रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(संवननी) सम्यक् सेवनीया (समुष्पला) वस निवासे−क्विप्। वचिस्वपियजादीनां किति। पा० ६।१।१५। इति सम्प्रसारणम्। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। पल गतौ रक्षणे−अच्, टाप्। सम्यग् उषो गृहस्य पला पालयित्री विद्या (बभ्रु) अ० ४।२९।२। डुभृञ् कु, ऊङ्। अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः। पा० ७।३।१०७। इति ह्रस्वः। हे पालनशीले (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणि विद्ये (सम्) संयोज्य (नुद) प्रवर्तय (अमूम्) विदुषीम् (च) (माम्) विद्वांसम् (समानम्) एकम् (हृदयम्) (कृधि) ॥
विषय
अन्योन्य हृदयाकर्षण
पदार्थ
१. हे (बभ्रू) = जीवन में हमारा भरण करनेवाली! (कल्याणि) = मंगलकारिणि विद्ये! तू (संवननी) = सम्यक् सेवनीय च हमें (समुष्पला) = [सं वस् पल गतौ रक्षणे च] उत्तम निवास की ओर ले जानेवाली है। तू (संनुद) = हमें सम्यक् प्रेरित कर । २. (अमूं च मां च संनुद) = उस युवति को और मुझे एक-दूसरे के प्रति प्रेरित कर। (समानं हृदयं कृधि) = हमें समान हृदयवाला बना। मेरा हृदय उस युवति का हदय हो, उस युवति का हृदय मेरा हृदय हो।
भावार्थ
युवक व युवति विद्यादि गुणों से एक-दूसरे के हृदय को अपने प्रति आकृष्ट करें।
भाषार्थ
(बभ्रु) हे भरण-पोषण करने वाले ! (कल्याणि) हे कल्याण करने वाली पारमेश्वरी माता! (सबननी) तू सम्यक् रूप से हमारी भक्ति चाहती है, (समुष्पला) सम्यक् रूप में [कामादि] का दहन कर हमें गति प्रदान करती है, तू हम पति-पत्नी को (संनुद) सम्यक् मार्ग में प्रेरित कर (अमूम् च) उस मेरी पत्नी को, (माम् च) और मुझ पति को (सं नुद) सम्यक् मार्ग में प्रेरित कर, (समानम् हृदयम् कृधि) हमारे दोनों के हृदयों को "एक" कर दे, या समान भावनाओं वाले कर दे।
टिप्पणी
[सं वननी= सम् + वन (संभक्तौ, भ्वादिः); वनु याचने (तनादिः)। समुष्पला= सम्+ उष (दाहे) + पल (गतौ, भ्वादिः)।] [१. नि शुष्य= नितरां शोषयित्वा।]
विषय
सौभाग्यकरण और परस्परवरण।
भावार्थ
हे ओषधे ! तू (सं-वननी) स्त्री पुरुषों के परस्पर वरण कराने वाली (सम्-उष्पला) स्त्री पुरुष दोनों के सहवास की रक्षा करनेवाली है। हे (बभ्रु) पोषण करने वाली ! हे (कल्याणि) सुखदायिनी ! (अमूम्) उस प्राणप्रिया स्त्री को (सं नुद) मेरे प्रति प्रेरित कर और (मां च) मुझको उसके प्रति (सं नुद) प्रेरित कर जिससे एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव से आकृष्ट रहें और हमारे (हृदयम्) दोनों के हृदय को (समानं कृधि) समान, एक दूसरे के प्रति एक जैसा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् जगती। २-३ अनुष्टुभौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Conjugal Happiness
Meaning
O spirit of conjugality full of love and mutuality, excitingly inspiring and keen for familial settlement, generous harbinger of good fortune, inspire and move both her and me, arise and let our hearts be equally drawn to each other.
Translation
O brown-coloured, beautiful herb, you are a reconciler arouser. May you urge her to meet; may urge me to meet. May you make our hearts like. (samanam hrdayam krdhi)
Translation
Let this tawny fair pleasure-giving plant drive us the wife and husband, together and let it drive together her and me and make us both one in heart and mind.
Translation
O fostering, auspicious, adorable knowledge, the guardian of domestic life, draw us together, her and me, and give us both one mind.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(संवननी) सम्यक् सेवनीया (समुष्पला) वस निवासे−क्विप्। वचिस्वपियजादीनां किति। पा० ६।१।१५। इति सम्प्रसारणम्। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। पल गतौ रक्षणे−अच्, टाप्। सम्यग् उषो गृहस्य पला पालयित्री विद्या (बभ्रु) अ० ४।२९।२। डुभृञ् कु, ऊङ्। अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः। पा० ७।३।१०७। इति ह्रस्वः। हे पालनशीले (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणि विद्ये (सम्) संयोज्य (नुद) प्रवर्तय (अमूम्) विदुषीम् (च) (माम्) विद्वांसम् (समानम्) एकम् (हृदयम्) (कृधि) ॥
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