अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - परस्परचित्तैदीकरण सूक्त
53
अ॒भि ति॑ष्ठामि ते म॒न्युं पार्ष्ण्या॒ प्रप॑देन च। यथा॑व॒शो न वादि॑षो॒ मम॑ चित्तमु॒पाय॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ति॒ष्ठा॒मि॒ । ते॒ । म॒न्युम् । पार्ष्ण्या॑ । प्रऽप॑देन । च॒ । यथा॑ । अ॒व॒श: । न । वादि॑ष: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥४२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि तिष्ठामि ते मन्युं पार्ष्ण्या प्रपदेन च। यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । तिष्ठामि । ते । मन्युम् । पार्ष्ण्या । प्रऽपदेन । च । यथा । अवश: । न । वादिष: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥४२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
क्रोध की शान्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (ते) तेरे (मन्युम्) क्रोध को [तेरी] (पार्ष्ण्या) एड़ी से (च) और (प्रपदेन) ठोकर से (अभि तिष्ठामि) मैं दबाता हूँ। (यथा) जिस से (अवशः) परवश (न=न भूत्वा) न होकर (वादिषः) तू बातचीत करे, (मम) मेरे (चित्तम्) चित्त में (उप−आयसि) तू पहुँच करता है ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य क्रोधवश न होकर परस्पर शान्तचित्त रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अभि तिष्ठामि) अभिभवामि (ते) तव (मन्युम् क्रोधम्) (पार्ष्ण्या) पादापरभागेन (प्रपदेन) पादाग्रेण (यथा) येन प्रकारेण (अवशः) परवशः। क्रोधवशः (न) न भूत्वा (वादिषः) वदेर्लेटि अडागमः, सिप् च। त्वं ब्रूयाः (मम) (चित्तम्) अन्तःकरणम् (उप−आयसि) अ० १।३४।२। उपागच्छसि। आदरेण सर्वतः प्राप्नोषि ॥
विषय
यथा अवशा: न वादिषः
पदार्थ
१. मैं (ते मन्युम्) = तेरे क्रोध को (पायो) = पैर के अपरभग से-एड़ी से (च) = तथा (प्रपदेन) = पादान से (अभितिष्ठामि) = ऊपर स्थित होकर निष्पीड़ित कर डालता हूँ। २. (यथा) = जिससे (अवश:) = क्रोध के परवश हुआ-हुआ तू (न वादिष:) = ऊटपटौंग बोलनेवाला न हो और (मम चित्तम् उपायसि) = मेरे मन को तू समीपता से प्रास होता है-मेरे मन के अनुकूल मनवाला होता है।
भावार्थ
हम क्रोध को पैर की ठोकर से ठुकरा दें। क्रोध के परवश होकर कटुवचन न बोलें। हम एक-दूसरे से मिलें हुए चित्तवाले हों।
भाषार्थ
(ते) तेरे (मन्पुम्) मन्पु को (पार्ष्ण्या) पैर की एड़ी द्वारा, (च) और (प्रपदेन) पैर के अगले भाग द्वारा (अभि तिष्ठामि) मैं कुचल देती हूं, (यथा) जिससे कि (अवशः) अपने आप को वश में न रखता हुआ तू (न वादिषः) कुछ न कह सके, और (मम चित्तम्) मेरे चित्त के (उप आयसि) समीप अनुकूल, तू आ जाय, हो जाय।
टिप्पणी
[अभितिष्ठामि, जैसे किसी बस्तु पर पैरों द्वारा स्थित होकर उसे कुचल दिया जाता है, उसी तरह तेरे मन्यु को मैं कुचल देती हूं। वादिषः= वद + लेट् लकार में अट्, सिप्, तथा उपधावृद्धि 'सिब्बहुलं छन्दसि णिद्वक्तव्यः" (अष्टा० ३।१।३४)] ।
विषय
क्रोध को दूर करके परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ
क्रोध शान्त करने का तीसरा उपाय बतलाते हैं। हे क्रोधी पुरुष (ते मन्युम्) तेरे क्रोध को (पाष्णर्या) अपनी एडी से और (प्र-पदेन) अपने पैरों के अगले भाग से (अभि तिष्ठामि) दबा कर उस पर वश करता हूँ। जिस प्रकार आते हुए वेग को अपनी एड़ी और पंजों पर मजबूती से खड़ा होकर सहा जाता है उसी प्रकार दूसरे के क्रोध के वेग को धीरता और मजबूती से खड़े रह कर सहना चाहिए। (यथा अवशः) जिससे लाचार होकर (न वादिषः) फिर तू क्रोध के वचन न बोले और (मम चित्तम्) मेरे चित्त के (उप आयसि) समीप में आकर मेरा मित्र बन जाय। जिसको मित्र बनाना है उसके क्रोध के उद्वेगों को धीरता से सहन करना चाहिए।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परस्परचित्तैककरणे भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्युर्देवता १, ३ अनुष्टुभः (१, २ भुरिजौ) तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Anger
Meaning
With a kick and under the heel, I cast down and bury your anger so that you are one and calm at heart with me and do not talk like one possessed.
Translation
I trample upon your anger with my heel and sole, so that you may be of one mind with -me and will not talk as if uncontrolled (avasah).
Translation
I tread your anger down with heel and toe so that you do yield to you to my will to speak no more in anger.
Translation
O angry person, I trample on thine anger, I tread it down with heel and toe. So dost thou yield thee to my will, so that being subdued thou utterest no more angry words.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अभि तिष्ठामि) अभिभवामि (ते) तव (मन्युम् क्रोधम्) (पार्ष्ण्या) पादापरभागेन (प्रपदेन) पादाग्रेण (यथा) येन प्रकारेण (अवशः) परवशः। क्रोधवशः (न) न भूत्वा (वादिषः) वदेर्लेटि अडागमः, सिप् च। त्वं ब्रूयाः (मम) (चित्तम्) अन्तःकरणम् (उप−आयसि) अ० १।३४।२। उपागच्छसि। आदरेण सर्वतः प्राप्नोषि ॥
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