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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्र देवता - वनस्पतिः छन्दः - त्रिपदा महाबृहती सूक्तम् - रोगनाशन सूक्त
    337

    रु॒द्रस्य॒ मूत्र॑मस्य॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑। वि॑षाण॒का नाम॒ वा अ॑सि पितॄ॒णां मूला॒दुत्थि॑ता वातीकृत॒नाश॑नी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒द्रस्य॑ । मूत्र॑म् । अ॒सि॒ । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑: । वि॒ऽसा॒न॒का । नाम॑ । वै । अ॒सि॒ । पि॒तृ॒णाम् । मूला॑त् । उत्थि॑ता । वा॒ती॒कृ॒त॒ऽनाश॑नी ॥४४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुद्रस्य मूत्रमस्यमृतस्य नाभिः। विषाणका नाम वा असि पितॄणां मूलादुत्थिता वातीकृतनाशनी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुद्रस्य । मूत्रम् । असि । अमृतस्य । नाभि: । विऽसानका । नाम । वै । असि । पितृणाम् । मूलात् । उत्थिता । वातीकृतऽनाशनी ॥४४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोग के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पुरुष] (रुद्रस्य) रुलानेवाले भीषण क्लेश का (मूत्रम्) छुड़ाने वा बन्ध करनेवाला बल और (अमृतस्य) अमरपन वा मुक्ति का (नाभिः) मध्यस्थ (असि) तू है। (विषाणका) विषाणका, विविध भक्ति का उपदेश करनेवाली (नाम) प्रसिद्ध (पितॄणाम्) पालन करनेवाले गुणों के (मूलात्) मूल से [आदि कारण परमेश्वर से] (उत्थिता) प्रकट हुई और (वातीकृतनाशनी) हिंसा कर्म की नाश करनेवाली शक्ति (वै) निश्चय करके (असि) तू है ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अनेक क्लेशों को सहते हैं और परमेश्वर का विश्वास करते हैं, वे ही सब प्रकार का सुख प्राप्त करते हैं ॥३॥ विषाण और विषाणिका ओषधिविशेष भी हैं ॥

    टिप्पणी

    ३−(रुद्रस्य) रोदेर्णिलुक् च। उ० २।२२। इति रोदयते−रक्। रुद्रो रौतीति सतो रोरूयमाणो द्रवतीति वा रोदयतेर्वा। निरु० १०।५। रोदकस्य भीषणक्लेशस्य (मूत्रम्) सिविमुच्योष्टेरू च। उ० ४।१६३। इति मुच्लृ मोक्षणे−ष्ट्रन्, टेः ऊ। यद्वा, मूङ् बन्धने−ष्ट्रन्। मोचकम्। मावकबन्धकबलम् (अमृतस्य) मोक्षस्य (नाभिः) मध्यस्थानम् (विषाणका) वि+षण सम्भक्तौ−घञ्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति विषाण+कै शब्दे−क। टाप्। उपपदमतिङ्। पा० २।२।१९। इति समासः। विषाणं विविधं सम्भजनं काययति कथयति या सा शक्तिः (नाम) प्रसिद्धौ (वै) निश्चयेन (असि) (पितॄणाम्) पालकगुणानाम् (मूलात्) आदिकारणात् परमेश्वरात् (उत्थिता) प्रादुर्भूता (वातीकृतनाशनी) वातेर्नित्। उ० ५।६। इति वा गतिहिंसनयोः−अति। छान्दसो दीर्घः। वातेर्हिंसायाः कृतस्य कर्मणो नाशयित्री ॥

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    विषय

    विषाणका वातीकृतनाशनी

    पदार्थ

    १. हे विषाणके! तू सदस्य-[रोदयति] इस रुलानेवाले भीषण रोग की मूत्रम् असि-[मुच् ष्ट्रन] छुड़ानेवाली है अमृतस्य नाभि:-हमारे जीवनों में नीरोगता को बाँधनेवाली है [णह बन्धने] । विषाणका नाम वा असि-'विषाणका' यह निश्चय से तेरा नाम है। तू विशेषेण सम्भजनीया है [षण सम्भक्तौ]। २. पितॄणां मूलात् उत्थिता-पालक ओषधियों के मूल से तू उत्पन्न हुई है, वातीकृतनाशनी-वातविकार से होनेवाले सब कष्टों का निवारण करनेवाली है।

    भावार्थ

    विषाणका नामक ओषधि भीषण रोगों से छुड़ानेवाली, नीरोगता देनेवाली व वात विकारों को नष्ट करनेवाली है।

    विशेष

    नीरोग बनकर यह 'अङ्गिराः' बनता है। इसका मस्तिष्क भी ज्ञानोज्ज्वल होता है, अर्थात् यह 'प्रचेताः' कहलाता है, मन में यह 'यम:'-संयमवाला होता है। अगले चार सूक्तों का यही ऋषि है। यह निष्पाप जीवनवाला बनता हुआ कहता है -

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    भाषार्थ

    (रुद्रस्य) अन्तरिक्षस्थ विद्युत् का (मूत्रम्) मूत्ररूप (असि) तू है [हे वसिष्ठ !] (अमृतस्य) अमृतत्व अर्थात् चिरकाल तक जीवन का तू (नाभिः) बन्धक है, स्थापक है। (विषाणका१) रोग को शरीर से विभक्त करने वाली ओषधि (नाम वै) नाम वाली निश्चय से (असि) तू है,(पितृणाम्) ऋतुओं की (मूलात्) मूलभूत२ ऋतु से (उत्थिता) तु उत्पन्न हुई है, (वातीकृतनाशनी) प्रकुपित वात से किये गये रोग का नाश करने वाली है।

    टिप्पणी

    [मूत्रम् जलम् (सायण)। नाभि: = बन्धकं स्थापकम् ( सायण), नह [णह] बन्धने (दिवादिः)। विषाणका= विशेषेण रोगनिवर्तनस्य संभक्त्री (सायण)। जल ओषधि है, ओषधि पद स्त्रोलिङ्गी है। अतः मन्त्र में स्त्रीलिङ्गी प्रयोग हुए हैं, जो कि जल का ही कथन करते हैं।] विशेष कथन– वैदिक साहित्य में "पितरः" का प्रयोग ऋतुओं के लिये भी हुआ है। पितरों अर्थात् ऋतुओं की मूल ऋतु अभिप्रेत है "वर्षा ऋतु"। वर्षा ऋतु के सम्बन्ध से संवत्सर को वर्ष कहते हैं। वसिष्ठ अर्थात् जल को मन्त्र में वर्षा-ऋतु से उत्थित कहा है। वर्षा से प्राप्त किया जल शुद्ध पवित्र होता है, उस में भौमतत्त्व मिले नहीं होते। इसलिये वह जल चिकित्सा के लिये उत्तम होता है, और मन्त्रोक्त वातरोग के विनाश के लिये उपयुक्त है। पृथिवी की एक विशिष्ट गति के कारण जिसे कि "Precession of equinoxs"३ कहते हैं। समय-समय पर भिन्न-भिन्न ऋतुओं से संवत्सर-काल प्रारम्भ होता रहता है, यह ज्योतिःशास्त्र का सिद्धान्त है लगभग २४ हजार वर्षों में ऋतुचक्र पुनः पूर्वस्थिति में आ जाता है, अर्थात् ऋतुचक्र या संवत्सर जिस ऋतु से प्रारम्भ हुआ था, उस ऋतु से पुनः प्रारम्भ हो जाता है।] [१. वि + षण संभक्तौ (भ्वादिः)। २. जिस ऋतु से संवत्सर या वर्ष का प्रारम्भ हुआ, वह ऋतु मूलरूप है। ३. The shifting of the equinoctial points from east to west अर्थात् जिन स्थानों पर सूर्य के आगमन पर दिन-रात बराबर होते हैं, उन स्थानों का पूर्व से पश्चिम की ओर बदल जाना। तथा- A slow backward motion of the equinoctial points along the ecliptic, caused by the greater attraction of the sun and moon on the excess of matter of the equator such, that the times at which the sun crosses the equator comes at shorter intervals than they should otherwise do. रविमार्ग में उन दो स्थानों का, जहां कि दिन-रात बराबर हो जाते हैं, [मार्च २१ तथा सितम्बर २३ को] दिन और रात के स्थानों का पीछे की ओर शनैः-शनैः खिसकते जाना, जो कि सूर्य और चन्द्रमा द्वारा, भूमध्य रेखा पर अधिक द्रव्य के होने पर होता है, जिस से भूमध्य रेखा पर सूर्य के आने का समय पूर्वापेक्षया कम हो जाता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Herbal Cure

    Meaning

    You are the shower of the cloud, you are the centre and concentration of the sanative nectar. You are Vishanaka by name, a sure cure of genetic ailments and those caused by wind disorder.

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    Translation

    You are the stream that the thunder cloud (rudra) pours, the close relations of ambrosia, or you are the visanaka plant (herb) springing from the origin of the elders and you are curer of the wind-caused diseases.

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    Translation

    This is the tincture curative plant and is the central part of nectar. This is named as Vishanaka. This springs from the root of the herbs which protect it and it removes the diseases caused by the rheumatic affections and fluxes.

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    Translation

    Rainy water from the thundering cloud is the source of prolonged life. O medicine thy name is Vishanaka. Thou removest illness caused by wind, and uproots the disease inherited from father and mother.

    Footnote

    Water is the urine of thundering. Rain water is considered to be the purest, and most healing and efficacious in nature. Vishanaka medicine denotes the family of medicinal plants named as Ajshringhi, Avartakishringhi, virishchkali, Satala and Rohini. Vishanaka (AsclepiasGerminata)=karkața=sringi and satala, Sanskrit-English Dictionary of Monier Monier Williams.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(रुद्रस्य) रोदेर्णिलुक् च। उ० २।२२। इति रोदयते−रक्। रुद्रो रौतीति सतो रोरूयमाणो द्रवतीति वा रोदयतेर्वा। निरु० १०।५। रोदकस्य भीषणक्लेशस्य (मूत्रम्) सिविमुच्योष्टेरू च। उ० ४।१६३। इति मुच्लृ मोक्षणे−ष्ट्रन्, टेः ऊ। यद्वा, मूङ् बन्धने−ष्ट्रन्। मोचकम्। मावकबन्धकबलम् (अमृतस्य) मोक्षस्य (नाभिः) मध्यस्थानम् (विषाणका) वि+षण सम्भक्तौ−घञ्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति विषाण+कै शब्दे−क। टाप्। उपपदमतिङ्। पा० २।२।१९। इति समासः। विषाणं विविधं सम्भजनं काययति कथयति या सा शक्तिः (नाम) प्रसिद्धौ (वै) निश्चयेन (असि) (पितॄणाम्) पालकगुणानाम् (मूलात्) आदिकारणात् परमेश्वरात् (उत्थिता) प्रादुर्भूता (वातीकृतनाशनी) वातेर्नित्। उ० ५।६। इति वा गतिहिंसनयोः−अति। छान्दसो दीर्घः। वातेर्हिंसायाः कृतस्य कर्मणो नाशयित्री ॥

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