अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
नमो॑ऽस्त्वसि॒ताय॒ नम॒स्तिर॑श्चिराजये। स्व॒जाय॑ ब॒भ्रवे॒ नमो॒ नमो॑ देवज॒नेभ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒सि॒ताय॑ । नम॑: । तिर॑श्चिऽराजये । स्व॒जाय॑ । ब॒भ्रवे॑ । नम॑: । नम॑: । दे॒व॒ऽज॒नेभ्य॑: ॥५६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय बभ्रवे नमो नमो देवजनेभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । अस्तु । असिताय । नम: । तिरश्चिऽराजये । स्वजाय । बभ्रवे । नम: । नम: । देवऽजनेभ्य: ॥५६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दोष के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(असिताय) काले साँप के लिये (नमः) वज्र (अस्तु) होवे, (तिरश्चिराजये) तिरछी धारीवाले साँप के लिये (नमः) वज्र और (स्वजाय) लिपटनेवाले (बभ्रवे) भूरे साँप के लिये (नमः) वज्र होवे। (देवजनेभ्यः) विद्वान् जनों के लिये (नमः) सत्कार है ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों की संगति से अपने पापों का नाश करे, जैसे सर्प को वज्रादि से मार डालते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(नमः) नमयति शत्रून्। वज्रनाम−निघ० २।२०। (अस्तु) भवतु (असिताय) अ० ३।२७।१। कृष्णसर्पाय (नमः) वज्रः (तिरश्चिराजये) अ० ३।२७।२। तिरश्च्यः, तिर्यगवस्थिता राजयः पङ्क्तयो यस्य तथाविधाय सर्पाय (स्वजाय) अ० ३।२७।४। कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। इति ष्वञ्ज आलिङ्गने−क। अनिदितां हल उपधाया०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। आलिङ्गनशीलाय सर्पाय (बभ्रवे) पिङ्गलवर्णाय। अन्यद् गतम् ॥
विषय
सों के लिए नमस्कार
पदार्थ
१. (असिताय) = कृष्णवर्ण सर्पराज के लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो-इससे हम दूर ही रहते हैं, दूर से ही इसे प्रणाम करते हैं। (तिरश्चिराजये नम:) = तिर्यग् अवस्थित वलियोंवाले-तिरछी धारियोंवाले सर्प के लिए भी नमस्कार हो-इससे हम दूर से ही बचें। (स्वजाय) = शरीर में चिपट जानेवाले सर्प के लिए तथा (बभ्रवे) = भूरे रङ्गवाले सर्प के लिए (नमः) = नमस्कार हो-इनसे हम बचें और वज्रप्रहार से इन्हें समाप्त करें। २. (देवजनेभ्यः नमः) = सर्प-विष-चिकित्सा करनेवाले वैद्यों के लिए हम उचित सत्कार प्रास कराते हैं।
भावार्थ
'असित, तिरश्चिराजि, स्वज व बभू' नामक सभी सपों से हम बचें, सर्पविष चिकित्सकों का उचित आदर करें।
भाषार्थ
(असिताय) न सुफैद अर्थात् काले सर्प के लिये (नमः अस्तु ) वज्रप्रहार हो, (तिरश्चिराजये) टेढ़ी रेखाओं वाले सांप के लिये (नम:) वज्रप्रहार हो। (बभ्रवे) भूरे रङ्ग वाले (स्वजाय) तथा उत्तमगतिवाले अर्थात् फुर्तीले सांप के लिये (नमः) वज्रप्रहार हो, (देवजनेभ्यः) और देवजनों के लिये (नमः) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[नमः वज्रनाम (निघं० २॥२०)। स्वजाय=सु+ अज गतिक्षेपणयोः (भ्वादिः)].
विषय
सर्प का दमन और सर्पविष चिकित्सा।
भावार्थ
(असिताय नमः) असित—काले नाग का भी वश करने का उपाय है। (तिरश्चि-राजये नमः) पीठ पर तिरछी धारियों वाले सर्प का भी वश करने का उपाय है। (स्वजाय बभ्रुवे नमः) स्वज = शरीर से लिपट जानेवाले सर्प का भी वश करने का उपाय है। इन विशेष हुनरों के लिये (देवजनेभ्यः नमः) ऐसे उन सर्पों के वशोपाय जानने हारे विद्वानों का हम स्वयं आदर करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शन्तातिर्ऋषिः। १ विश्वेदेवाः, २, ३ रुद्रो देवता। १ उष्णिग्-गर्भा पथ्या पंक्तिः। २,३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Caution and Care against the Evil
Meaning
Let there be unfailing measures and antidotes to the cobra, unfailing antidote to the snake striped across, unfailing antidote to the viper, constrictor and the deep brown, honour and salutations to the noble, learned masters of knowledge and antidotes to snakes, snake bite and snake poison.
Translation
Our homage be to the asita or black (snake); homage to the tirasciriji or to the cross-lined; homage to the brown {babhru) constrictor; homage be to the svaja or self-bor, and to the.devajana ot enlightened ones,
Translation
Let there be deadly encounter against black serpent and let there be our war against serpent which has strips across. Let there be ready our weapons against brown viper and my homage to the physicians who treat venomous reptiles.
Translation
Use thunderbolt for the black serpent, for that with stripes across, for the brown viper that twists and clings round. Let us pay reverence to the learned who know the art of controlling these snakes.
Footnote
नमः— नयतिशत्रुन्। वज्रनाम–निघं०2-20. Just as serpents are controlled by serpent charmers, so should we control our vices by coming in contact with learned persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(नमः) नमयति शत्रून्। वज्रनाम−निघ० २।२०। (अस्तु) भवतु (असिताय) अ० ३।२७।१। कृष्णसर्पाय (नमः) वज्रः (तिरश्चिराजये) अ० ३।२७।२। तिरश्च्यः, तिर्यगवस्थिता राजयः पङ्क्तयो यस्य तथाविधाय सर्पाय (स्वजाय) अ० ३।२७।४। कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। इति ष्वञ्ज आलिङ्गने−क। अनिदितां हल उपधाया०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। आलिङ्गनशीलाय सर्पाय (बभ्रवे) पिङ्गलवर्णाय। अन्यद् गतम् ॥
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