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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अर्यमा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पतिलाभ सूक्त
    119

    अ॒यमा या॑त्यर्य॒मा पु॒रस्ता॒द्विषि॑तस्तुपः। अ॒स्या इ॒च्छन्न॒ग्रुवै॒ पति॑मु॒त जा॒याम॒जान॑ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । आ । या॒ति॒ । अ॒र्य॒मा । पु॒रस्ता॑त् । विसि॑तऽस्तुप: । अ॒स्यै । इ॒च्छन् । अ॒ग्रुवै॑ । पति॑म् । उ॒त । जा॒याम् । अ॒जान॑ये ॥६०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमा यात्यर्यमा पुरस्ताद्विषितस्तुपः। अस्या इच्छन्नग्रुवै पतिमुत जायामजानये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । आ । याति । अर्यमा । पुरस्तात् । विसितऽस्तुप: । अस्यै । इच्छन् । अग्रुवै । पतिम् । उत । जायाम् । अजानये ॥६०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह (विषितस्तुपः) प्रसिद्ध स्तुतिवाला (अर्यमा) अन्धकारनाशक सूर्य (अस्यै) इस (अग्रुवै) ज्ञानवती कन्या के लिये (पतिम्) पति, (उत) और (अजानये) अविवाहित पुरुष के लिये (जायाम्) पत्नी (इच्छन्) चाहता हुआ (पुरस्तात्) हमारे आगे (आ याति) आता है ॥१॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारिणी और ब्रह्मचारी वेद आदि शास्त्रों के अध्ययन से सूर्य के समान तेजस्वी अर्थात् ब्रह्मवर्चसी होकर युवा अवस्था में गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अयम्) पुरोदृश्यमानः (आ याति) आगच्छति (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अन्धकारनाशकः सूर्यः (पुरस्तात्) अस्माकमग्रे (विषितस्तुपः) वि-षो अन्तकर्मणि−क्त। स्तुवो दीर्घश्च। उ० ३।२५। इति ष्टुञ् स्तुतौ−प। विषितो विज्ञातः स्तुपः स्तुतिर्यस्य सः। प्रसिद्धस्तोमः (अस्यै) प्रसिद्धायै गुणवत्यै (इच्छन्) अभिलष्यन् (अग्रुवै) जत्र्वादयश्च। उ० ४।१०२। इति अगि गतौ−रु, ऊङ्। ज्ञानवत्यै कन्यायै (पतिम्) भर्तारम् (जायाम्) पत्नीम् (अजानये) जायारहिताय। अविवाहिताय पुरुषाय ॥

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    विषय

    विषितस्तुप 'अर्यमा'

    पदार्थ

    १. (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (वि-षित-स्तुप:) = विशेषरूप से बंधा हुआ है रश्मियों का समुच्य जिसमें, ऐसा (अयम्) = यह (अर्यमा) = सूर्य (आयाति) = आता है। रश्मि-समूह से युक्त सूर्य पूर्व दिशा में उदित होता है। यह सूर्य इस कन्या को भी एक-एक दिन करके यौवन प्राप्त करता है और आज (अस्यै अगृवै) = इस अविवाहित युवति के लिए (पतिम्) = पति को चाहता है, (उत) = और (अजानये) = जायारहित युवक के लिए (जायाम्) = पत्नी को चाहता हुआ यह सूर्य आता है। २. सूर्य अपनी प्रकाशमयी किरणों से युवक व युवतियों को यौवन प्राप्त कराता है और उनमें एक-दूसरे को प्राप्त करने की कामना जगाता है, मानो सूर्य ही इस कार्य को करनेवाला हो। वस्तुत: कन्या का पिता भी 'अर्यमा' है-('अर्यमेति तमाहुर्यों ददाति') = जो कन्या के हाथ को पति के हाथ में देते हैं तथा 'अरीन् यच्छति' नाम-क्रोध-लोभ आदि का नियमन करते हैं, साथ ही सूर्य की भाँति 'विषितस्तुप'-अपने अन्दर ज्ञानरश्मियों के समुच्छ्य को बाँधनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    आदर्श पिता सूर्य के समान है। वह अपनी युवति कन्या के लिए पति की कामना करता हुआ एक उत्तम युवक के लिए कन्या का हाथ ग्रहण कराता है।

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    भाषार्थ

    (विषितस्तुपः) बन्ध से मुक्त हुए रश्मिसमूह वाला (अयम् ) यह (अर्यमा) अन्धकार आदि अरियों का नियमन करने वाला आदित्य (आ याति) आया है (पुरस्तात्) हमारे संमुख या पूर्व में, (अस्ये) इस (अग्रुवै) अविवाहिता या अग्रगण्या (ऋ० १।१४०।८; दयानन्द), कन्या के लिये (पति ) पति को (उत) तथा (अजानये) जाया रहित पुरुष के लिये (जायाम्) जाया को (इच्छन्) चाहता हुआ।

    टिप्पणी

    [विषित= वि+ षिञ् बन्धने (स्वादिः) स्तुप:= ष्टुप समुच्छ्राये (चूरादिः); समुच्छ्रायः= Elevation Height (आप्टे) ऊपर उठा हुआ ऊंचा। आयाति = आदित्यस्थ परमेश्वर आया है, "तात्स्थ्यात्१ ताच्छब्द्यम्" परमेश्वर आदित्य में स्थित है, अतः परमेश्वर को आदित्य कहा है। यथा "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म ॥ " (यजु० ४०।१७)। इच्छन्= चाहता हुआ, इच्छा करता हुआ। इच्छा या चाहना चेतन का धर्म है, जड़ का नहीं। आदित्य जड़ है, चेतन नहीं, अतः आदित्य का लाक्षणिक अर्थ है आदित्य पुरुष अर्थात् आदित्यस्थ परमेश्वर। अग्रुवै = अग्रुवे,२ कन्यायै, पतिमिच्छन् (सायण)। अजानये = अ+जायायै, "जायाया निङ" (अष्टा० ५।४।१३४)] । [१. यथा "मञ्चाः क्रोशन्ति" = मञ्चस्याः पूरुषाः क्रोशन्ति। २. अथवा "अगि गतौ"+ रु: औणादिक प्रत्यय (४।१०२-१०४), बाहुलकात्= गतिशीला, निरालसा कन्या के लिये। अग्रुवे= अग्रु+उवङ्+चतुर्थ्येकवचन। तथा अग्रवः = अग्रु+ उवङ्+ प्रथमाविभक्ति बहुवचन।]

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    विषय

    कन्यादान और स्वयंवर।

    भावार्थ

    (अयम्) यह (अर्यमा) कन्या का दान करने वाला पुरुष (पुरस्तात्) अपने समक्ष (विषित-स्तुपः) नाना स्तुति योग्य गुणों को प्रकट करता हुआ (अस्यै) इस अपनी (अग्रुवै) कन्या के लिये (पतिम् इच्छन्) पति के प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ (उत) और (अजानये) विना पत्नी के पुरुष के लिये योग्य (जायाम्) पुत्रोत्पादक भार्या को प्राप्त कराने की इच्छा करता हुआ (आयाति) आता है। इस सूक्त में—‘अर्यमा इति तम् आहुर्यो ददाति। तै० १। १। २। ४॥ दाता या कन्या का प्रदाता पुरुष अर्यमा कहाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अर्यमा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Marriage

    Meaning

    Here upfront comes Aryama, this adorable sun, person, the friend, desirous of getting a husband for this virgin, and a wife for this bachelor. (‘Aryama’ in this mantra is an interesting word, interpreted as sun, a friend or any person such as the bridegroom’s or the bride’s friend, conducting the bridegroom to the bride or the bride to the bridegroom. If we insist that Aryama is the sun, then sun is the vital giver of life energy which has led the bridegroom to maturity of virility, and the girl to maturity of puberty. If we interpret ‘Aryama’ as the ‘seeker and conductor’ of the bride or the bride groom, we would of appreciate the tradition, celebrated in secular literature, of the ‘messenger-conductor’ between the lover and the beloved. In choice-cum-arranged marriages, Aryama could be a parent, a teacher, a friend or any other person, a friend-cum-advisor, a confidant too.)

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    Subject

    Aryaman

    Translation

    Here comes .in front the match-maker (aryaman) having white hair, seeking a husband for this maiden and also a wife ' for wifeless man.

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    Translation

    Here comes with all Praise worthy qualities Aryaman, the man seeking bride-groom for his daughter or seeking bride for his son, desiring husband for his daughters and bride for his unmarried son.

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    Translation

    Here comes the illustrious father of the bride, seeking a husband for this bride, a wife for this unmarried man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अयम्) पुरोदृश्यमानः (आ याति) आगच्छति (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अन्धकारनाशकः सूर्यः (पुरस्तात्) अस्माकमग्रे (विषितस्तुपः) वि-षो अन्तकर्मणि−क्त। स्तुवो दीर्घश्च। उ० ३।२५। इति ष्टुञ् स्तुतौ−प। विषितो विज्ञातः स्तुपः स्तुतिर्यस्य सः। प्रसिद्धस्तोमः (अस्यै) प्रसिद्धायै गुणवत्यै (इच्छन्) अभिलष्यन् (अग्रुवै) जत्र्वादयश्च। उ० ४।१०२। इति अगि गतौ−रु, ऊङ्। ज्ञानवत्यै कन्यायै (पतिम्) भर्तारम् (जायाम्) पत्नीम् (अजानये) जायारहिताय। अविवाहिताय पुरुषाय ॥

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