अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
ऋषिः - कबन्ध
देवता - सान्तपनाग्निः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
37
यो अ॑स्य स॒मिधं॒ वेद॑ क्ष॒त्रिये॑ण स॒माहि॑ताम्। नाभि॑ह्वा॒रे प॒दं नि द॑धाति॒ स मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽइध॑म् । वेद॑ । क्ष॒त्रिये॑ण । स॒म्ऽआहि॑ताम् । न । अ॒भि॒ऽह्वा॒रे । प॒दम् । नि । द॒धा॒ति॒ । स: । मृ॒त्यवे॑ ॥७६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्। नाभिह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । सम्ऽइधम् । वेद । क्षत्रियेण । सम्ऽआहिताम् । न । अभिऽह्वारे । पदम् । नि । दधाति । स: । मृत्यवे ॥७६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो पुरुष (क्षत्रियेण) दुःख से बचानेवाले क्षत्रिय करके (समाहिताम्) संभाली हुई (अस्य) इस [अग्नि] की (समिधम्) प्रकाश क्रिया को (वेद) जानता है (सः) वह पुरुष (अभिह्वारे) कुटिल स्थान में (मृत्यवे) मृत्यु पाने के लिये (पदम्) अपना पैर (न) नहीं (दधाति) जमाता है ॥३॥
भावार्थ
जहाँ पर राजप्रबन्ध से शिल्प, कला, यन्त्र आदि में अग्नि का यथावत् प्रयोग किया जाता है, वहाँ मनुष्य मृत्यु के कारण दरिद्रता आदि से निर्भय रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(यः) विद्वान् (अस्य) अग्नेः (समिधम्) प्रकाशक्रियाम् (वेद) वेत्ति (क्षत्रियेण) क्षत्रे राष्ट्रे साधुः। क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र−घ, जातौ। राज्ञा (समाहिताम्) सम्+आधा-क्त। सम्यक् निष्पादिताम् (न) निषेधे (अभिह्वारे) ह्वृ कौटिल्ये−घञ्। अतिकुटिलस्थाने। भयास्पदे (पदम्) (निदधाति) निक्षिपति (सः) पुरुषः (मृत्यवे) मृत्युं प्राप्तुम् ॥
विषय
सर्व जिहां मृत्युपदम्
पदार्थ
१. (क्षत्रियेण) = [क्षत्रं बलम्] बल में उत्तम पुरुष से (समाहितम्) = हृदय में स्थापित की गई (अस्य) = इस 'सान्तपन अग्नि' प्रभु की (समिधम्) = दीप्ति को (यः) = वेद-जो जानता है, अर्थात् एक सबल पुरुष जब हृदय में प्रभु-दर्शन करता है तब (स:) = वह (अभितारे) = कुटिलता के मार्ग में (मृत्यवे) = मृत्यु के लिए (पदं न निदधाति) = पग नहीं रखता।
भावार्थ
एक क्षत्रिय-भोगवृत्ति से ऊपर उठने के द्वारा सबल पुरुष हृदय में प्रभु की दीसि को देखता है। यह प्रभु-दर्शन करनेवाला व्यक्ति कभी कुटिलता के मार्ग में पग नहीं रखता। कटिलता को यह मृत्यु का मार्ग समझता है-'सर्व जिह्यं मृत्युपदम्।
भाषार्थ
(यः) जो प्रजाजन (अस्य) इस धर्मयुद्ध की अग्नि को (समिधम्) समिधा को (वेद) जानता है, जो कि (क्षत्रियेण) क्षत्रिय द्वारा (समाहिताम्) सम्यक् अर्थात् धर्मपूर्वक आधानरूप में स्थापित की जाती है, वह प्रजाजन (अभिह्वारे) कुटिल अर्थात् छल-कपट की नीति में (पदम्) पैर को (न निदधाति) नहीं रखता, पदन्यास नहीं करता, और न (मृत्यवे) मृत्यु के लिये पदन्यास करता है।
टिप्पणी
[अभिह्वारे= अभि + ह्वृ कौटिल्ये (भ्वादिः)। कुटिल है छल-कपट से युद्ध करना। यह नीति सच्चे क्षत्रिय को नहीं भाती। सच्चा क्षत्रिय धर्मानुमोदित छल-कपट रहित युद्ध को अपनाता है। क्षत्रिय की समिधा है 'एकोभूत-दाष्ट्रसम्पत्ति' तथा सैन्पवर्ग। वह इन दोनों को युद्ध-यज्ञाग्नि में हुत कर देता है, परन्तु छलकपट का आश्रय नहीं लेता।]
विषय
ब्राह्मणरूप सांतपन अग्नि का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो विद्वान् (अस्य) इस पूर्वोक्त अग्नि की (क्षत्रियेण) क्षत्रिय द्वारा (सम् आहिताम्) प्रतिष्ठित की हुई (समिधम्) समिधा को (वेद) जान लेता है (सः) वह (मृत्यवे) अपनी मौत के लिये (अभिह्वारम्) कुटिल मार्ग में (पदं न निदधाति) पैर नहीं रखता। अर्थात् जो यह जानता है कि ब्राह्मणों की रक्षा और उनका उत्तेजन क्षत्रिय = राजा के द्वारा है वह ब्राह्मण के अपमान आदि अनुचित कार्य में पैर नहीं रखता। वैसा करने से राजा स्वयं ब्रह्मनिन्दक को दण्ड देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कबन्ध ऋषिः। सांतपनोऽग्निर्देवता। १, २, ४, अनुष्टुभः। ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Armour of Fire
Meaning
Whoever knows the light and fire of this Agni, collected and realised by heroic souls of meditative discipline in life, never puts his foot into the slough of death and despondency.
Translation
Whoever knows the fuel of this (fire-divine) piled up by a heroic prince - he never seats his foot on a dangerous spot that may lead to death.
Translation
The man who knows its fuel laid in order by the Kshatriya varna sets not his foot upon the steep declivity that leads to death.
Translation
He who knows the life and property of the austere Brahmin are protect ted by the king, does not set his foot upon showing disrespect to him for fear of being heavily punished by the king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) विद्वान् (अस्य) अग्नेः (समिधम्) प्रकाशक्रियाम् (वेद) वेत्ति (क्षत्रियेण) क्षत्रे राष्ट्रे साधुः। क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र−घ, जातौ। राज्ञा (समाहिताम्) सम्+आधा-क्त। सम्यक् निष्पादिताम् (न) निषेधे (अभिह्वारे) ह्वृ कौटिल्ये−घञ्। अतिकुटिलस्थाने। भयास्पदे (पदम्) (निदधाति) निक्षिपति (सः) पुरुषः (मृत्यवे) मृत्युं प्राप्तुम् ॥
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