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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कबन्ध देवता - सान्तपनाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
    73

    नैनं॑ घ्नन्ति पर्या॒यिणो॒ न स॒न्नाँ अव॑ गछति। अ॒ग्नेर्यः क्ष॒त्रियो॑ वि॒द्वान्नाम॑ गृ॒ह्णात्यायु॑षे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ए॒न॒म् । घ्न॒न्ति॒ । प॒रि॒ऽआयिन॑: । न । स॒न्नान् । अव॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । अ॒ग्ने: । य: । क्ष॒त्रिय॑: । वि॒द्वान् । नाम॑ । गृ॒ह्णाति॑ । आयु॑षे ॥७६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नैनं घ्नन्ति पर्यायिणो न सन्नाँ अव गछति। अग्नेर्यः क्षत्रियो विद्वान्नाम गृह्णात्यायुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । एनम् । घ्नन्ति । परिऽआयिन: । न । सन्नान् । अव । गच्छति । अग्ने: । य: । क्षत्रिय: । विद्वान् । नाम । गृह्णाति । आयुषे ॥७६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 76; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (एनम्) उस [क्षत्रिय] को (पर्यायिणः) घेरनेवाले शत्रु (न) नहीं (घ्नन्ति) मारते हैं, और (न) न वह (सन्नान्) घात में बैठनेवालों को (अवगच्छति) जानता है। (यः) जो (विद्वान्) विद्वान् (क्षत्रियः) क्षत्रिय (अग्नेः) अग्नि के (नाम) नाम को (आयुषे) आयुष बढ़ाने के लिये (गृह्णाति) लेता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो राजा अग्नि के गुण जान कर कलाकुशल होकर अपना बल बढ़ाता है, वह शत्रुओं से सदा निर्भय रहता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(न) निषेधे (एनम्) क्षत्रियम् (घ्नन्ति) हिंसन्ति (पर्यायिणः) परि+इण्−घञ्, पर्याय−इनि। परितो गमनशीलाः शत्रवः (न) (सन्नान्) घातस्थान् शत्रून् (अवगच्छति) अवबुध्यते (अग्नेः) भौतिकस्य पावकस्य (यः) (क्षत्रियः) राजा (विद्वान्) (नाम) स्तावकं नामधेयम् (गृह्णाति) उच्चारयति (आयुषे) जीवनवर्धनाय ॥

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    विषय

    न पर्यायिणः, न सन्ना:

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (क्षत्रियः) = उत्तम बलवाला (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (आयुषे) = उत्कृष्ट दीर्घजीवन के लिए अग्ने:-उस अग्रणी प्रभु का गृह्णाति नाम लेता है-नाम का उच्चारण करता है, (एनम्) = इस प्रभु के उपासक को (पर्यायिण:) = चारों ओर से आनेवाले शत्रु न घन्ति-हिंसित नहीं करते। यह सन्नान्-उन शत्रुओं को समीपस्थरूप में भी (न अवगच्छति) = नहीं जानता, अर्थात् शत्रु इसके समीप स्थित होने में भी समर्थ नहीं होते।

    भावार्थ

    जो शक्तिशाली ज्ञानी पुरुष प्रभु के नाम का स्मरण करता है, उसपर शत्रु आक्रमण नहीं करते उसके समीप आने का भी साहस नहीं करते।

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    भाषार्थ

    (पर्यायिणः) सब ओर घेरा लगाकर आये हुए शत्रु (एनम्) इस क्षत्रिय को (न घ्नन्ति) नहीं मार पाते, (न) और न (सन्नान्) घेरा डाले बैठे शत्रुओं को वह (अवगच्छति) अवगत ही करता है, इन्हें कुछ जानता ही है, न इन की परवाह ही करता है, (यः) जो (क्षत्रियः) क्षत्रिय (विद्वान्) युद्धविद्या या क्षात्रविद्या का विज्ञ हुआ (आयुषे) निज, प्रजाजन और राष्ट्र के दीर्घ जीवन के लिये (अग्नेः) क्षात्राग्नि का (नाम गृह्णाति) नाम ग्रहण करता है, नाम जपता है, इसे प्राप्तव्य देव जानकर इस की उपासना में रत रहता है।

    टिप्पणी

    [पर्यायिणः=परित आगन्तारः शत्रवः (सायण)। सन्नान्= सद् + क्तः (कर्तरि)। सीदन्तीति सन्नाः, तान्।]

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    विषय

    ब्राह्मणरूप सांतपन अग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    (एनम्) पूर्वोक्त अग्निरूप विद्वान् निष्ठ ब्राह्मण के (पर्यायिणः) समीप आने वाले पुरुष भी (न घ्नन्ति) उसकी हिंसा नहीं करते, क्योंकि वह भी (सन्नान्) समीप बैठों को (न अवगच्छति) कुछ नहीं कहता। (यः क्षत्रियः) जो क्षत्रिय होकर भी (विद्वान्) ज्ञानवान् होकर (अग्नेः) अग्रणी रूप ब्राह्मण का (नाम गृह्णाति) नाम उच्चारण करता है वह भी (आयुषे) उसके दीर्घ जीवन के लिये होता है। प्रसिद्ध विद्वान् का आश्रय लेकर क्षत्रिय भी चिरकाल तक विनष्ट नहीं होता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कबन्ध ऋषिः। सांतपनोऽग्निर्देवता। १, २, ४, अनुष्टुभः। ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Armour of Fire

    Meaning

    The enemies, which surround the heroic soul that knows and internalises the power of Agni for health and life, cannot hurt and destroy him. Nor does he, strong as he is, recognise their presence or dangerous value against him. The Kshatriya who wears the armour of the light and fire of Agni is unassailable.

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    Translation

    Those, who surround him, are unable to kill him; he does not go down before the lurking foes - he the heroic prince, who invokes the name of the fire-divine (adorable Lord) for the length of life.

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    Translation

    To the Kshatriya who knowing the property of this fire uses it for the length of life neither slay the men who encompass him and nor he himself goes near the foes who lurk for him. [N.B. According to Gopatha Brahmana (Second Part II-3) Santapana agni is the Brahmans whose all-sacraments beginning with penetration ceremony and ending with sacred threads agnihotra etc. are well performed. In this sense the hymn gives the lesson that the Kshatriya varna responsible for the administration defense etc. of the country should always act according to the advice of the Brahmana Verna. Brahmana in society and state is the symbol of mind while Kshatriya of defense. Without keeping the power and defense under mind no nation can flourish.]

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    Translation

    Those who encompass the penitential Brahman slay him not, as he does not disturb those sitting near. A learned kshatriya takes the name of the austere Brahman for length of life.

    Footnote

    Takes the name: seeks the shelter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(न) निषेधे (एनम्) क्षत्रियम् (घ्नन्ति) हिंसन्ति (पर्यायिणः) परि+इण्−घञ्, पर्याय−इनि। परितो गमनशीलाः शत्रवः (न) (सन्नान्) घातस्थान् शत्रून् (अवगच्छति) अवबुध्यते (अग्नेः) भौतिकस्य पावकस्य (यः) (क्षत्रियः) राजा (विद्वान्) (नाम) स्तावकं नामधेयम् (गृह्णाति) उच्चारयति (आयुषे) जीवनवर्धनाय ॥

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