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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जमदग्नि देवता - द्यावापथिवी, सूर्यः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - कामात्मा सूक्त
    191

    यथे॒मे द्यावा॑पृथि॒वी स॒द्यः प॒र्येति॒ सूर्यः॑। ए॒वा पर्ये॑मि ते॒ मनो॒ यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । इ॒मे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । स॒द्य: । प॒रि॒ऽएति॑ । सूर्य॑: । ए॒व । परि॑ । ए॒मि॒ । ते॒ । मन॑: । यथा॑ । माम् । का॒मिनी॑ । अस॑: । यथा॑ । मत् । न । अप॑ऽगा: ।अस॑:॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथेमे द्यावापृथिवी सद्यः पर्येति सूर्यः। एवा पर्येमि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । इमे इति । द्यावापृथिवी इति । सद्य: । परिऽएति । सूर्य: । एव । परि । एमि । ते । मन: । यथा । माम् । कामिनी । अस: । यथा । मत् । न । अपऽगा: ।अस:॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (इमे) इस (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि में (सूर्यः) लोकों का चलानेवाला सूर्य (सद्यः) शीघ्र (पर्येति) व्याप जाता है। (एव) वैसे ही (ते) तेरे लिये (मनः) अपना मन (परि एमि) मैं व्यापक करता हूँ, (यथा) जिस से तू (माम् कामिनी) मेरी कामना करनेवाली (असः) होवे, और (यथा) जिस से तू (मत्) मुझ से (अपगाः) बिछुरनेवाली (न)(असः) होवे ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सूर्य के समान नियम से परिश्रम करके विद्या प्राप्त करते हैं, वे परोपकारी होकर सुखी रहते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यथा) (इमे) परिदृश्यमाने (द्यावापृथिवी) आकाशं भूमिं च (परि एति) परितो व्याप्नोति (सूर्यः) लोकप्रेरको भास्करः (एव) एवम् (परि एमि) परितः प्राप्नोमि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    पति प्रेम से पत्नी को व्याप्त कर ले

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य इमे (द्यावापृथिवी) = इन युलोक व पृथिवीलोक को (सद्यः) = शीघ्र ही (पर्येति) = अपने प्रकाश से व्याप लेता है, (एव) = इसीप्रकार (ते मन:) = तेरे मन को मैं (पर्येमि) = प्रेम आदि से व्याप्त कर लेता हूँ। २. मैं ऐसा प्रयत्न करता हूँ (यथा) = जिससे (मां कामिनी अस:) = तू मुझे ही चाहनेवाली हो, (यथा) = जिससे (मत्) = मुझसे (न अप-गा: अस:) = दूर जानेवाली न हो।

    भावार्थ

    पति प्रेम से पत्नी के मन को व्याप्त करने का प्रयत्न करे। पत्नी अपने मन में पति से दूर होने का विचार भी न आने दे।

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य ( सद्य:) शीघ्र ( इमे, द्यावापृथिवी) इन द्युलोक और पृथिवी का ( परि एति ) परिक्रमण कर लेता है, ( एवा) इसी प्रकार (ते) तेरे (मनः ) मन का ( पर्येमि ) मैं परिक्रमण करता हूं । "यथा" इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    [परिक्रमण करना =मन के चारों ओर घेरा डालना, पति के घेरे में रहना, इस घेरे से बाहिर पत्नी को न जाने देना। यह भी पत्नी के साथ सद्-व्यवहार और प्रेम का परिणाम है। इस मन्त्र का व्याख्या में भी सायण ने "योषित्" अर्थात् पत्नी सम्बन्धी सम्बोधन माना है। मन्त्र में, मन्त्र २ के सदृश, सूर्य की भी शीघ्र गति को दर्शाया है, जो कि लगभग १२ घण्टों में महाकाश को पार कर जाता है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love

    Meaning

    Just as the sun instantly covers both heaven and earth together with light so do I cover and fill your mind with love that so you may be wholly mine and you never go away from me.

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    Translation

    As the sun reaches these two, heaven and earth, at once, so I reach your mind, so that you may be desirous of me, so that you may never be deserting (going away from) me.

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    Translation

    As in its rapid course (of expanding light throughout), the Sun encompasses the range of heaven and earth so I do compass round your mind so that you may remain my darling and never be separated from us.

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    Translation

    Just as the sun at dawn rapidly encompasses the Heaven and Earth with its light, so do I fix, knowledge, my mind on thee, that thou mayst be in love with me, O darling, never to depart!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यथा) (इमे) परिदृश्यमाने (द्यावापृथिवी) आकाशं भूमिं च (परि एति) परितो व्याप्नोति (सूर्यः) लोकप्रेरको भास्करः (एव) एवम् (परि एमि) परितः प्राप्नोमि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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