अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त
46
यास्ते॑ श॒तं ध॒मन॒योऽङ्गा॒न्यनु॒ विष्ठि॑ताः। तासां॑ ते॒ सर्वा॑सां व॒यं निर्वि॒षाणि॑ ह्वयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ते॒ । श॒तम् । ध॒मन॑य: । अङ्गा॑नि । अनु॑ । विऽस्थि॑ता: । तासा॑म् । ते॒ । सर्वा॑साम् । व॒यम् । नि: । वि॒षाणि॑ । ह्व॒या॒म॒सि॒ ॥९०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते शतं धमनयोऽङ्गान्यनु विष्ठिताः। तासां ते सर्वासां वयं निर्विषाणि ह्वयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ते । शतम् । धमनय: । अङ्गानि । अनु । विऽस्थिता: । तासाम् । ते । सर्वासाम् । वयम् । नि: । विषाणि । ह्वयामसि ॥९०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कर्म के फल का उपदेश।
पदार्थ
(याः) जो (शतम्) सौ [असंख्य] (धमनयः) नाड़ियाँ (ते) तेरे (अङ्गानि अनु) अङ्गों में (विष्ठिताः) फैली हुई हैं। (ते) तेरी (तासाम्) उन (सर्वासाम्) सब [नाड़ियों] के (विषाणि) विषों को (नि=निष्कृष्य) निकाल कर (वयम्) हम (ह्वयामसि=०−मः) पुकारते हैं ॥२॥
भावार्थ
जैसे वैद्य शरीर के भीतरी रोगों को समझ कर दूर करता है, वैसे ही विद्वान् आत्मदोषों को मिटावे ॥२॥
टिप्पणी
२−(याः) (ते) तव (शतम्) बह्व्यः (धमनयः) नाड्यः, अङ्गानि शरीरावयवान् (अनु) अनुसृत्य (विष्ठिताः) विविधं स्थिताः (तासाम्) (ते) तव (सर्वासाम्) धमनीनाम् (वयम्) (निः) निष्कृष्य (विषाणि) दुःखानि (ह्वयामसि) आह्वयामः ॥
विषय
विषप्रभाव दूरीकरण
पदार्थ
१. हे शूलरोगिन् ! (ते अंगानि अनु) = तेरे हाथ-पैर आदि अङ्गों में (याः शतं धमनय:) = जो सैकड़ों नाड़ियाँ (विष्ठिता:) = विविधरूप में अवस्थित हैं (ते) = तेरी (तासां सर्वासाम्) = उन सब नाडियों की (निर्विषाणि) = पीड़ा को दूर करनेवाले-विष को बाहर कर देनेवाले औषधों को (वयं हृयामसि) = हम सम्पादित करते हैं। विष दूर होते ही दर्द तो दूर हो ही जाएगा।
भावार्थ
धमनियों में विषप्रभाव हो जाने से अङ्ग-प्रत्यङ्ग में पीड़ा आरम्भ हो जाती है। विष को दूर करनेवाले औषध से हम उस पीड़ा को दूर करते हैं।
भाषार्थ
(ते) तेरी (याः) जो (शतम्) सौ (धमनयः) रक्त नाड़ियां (अङ्गानि) अङ्गों (अनु) में (विष्ठिताः) विविध स्थानों में स्थित हैं, (ते) तेरी (तासाम्, सर्वासाम्) उन सब नाड़ियों के (विषाणि) विषों को (वयम) हम (निर् ह्वथामसि) बाहर कर देते हैं।
टिप्पणी
[रोग अङ्गों में विष फैला देते हैं। धमनियां हैं, लाल रक्त-की-नाड़ियां, जिन में स्पन्दन होता रहता है]।
विषय
रोग-पीड़ाओं को दूर करने के उपायों का उपदेश।
भावार्थ
(याः) जो (ते) तेरे शरीर की (शतं धमनयः) सैकड़ों नाड़ियां (अङ्गानि) शरीर के अंगों अंगों में (अनु-विष्ठिताः) व्यापक हो रही हैं। (ते) तेरी (तासां सर्वासाम्) उन सबों के (निर्विषाणि) अंगों को विषरहित, शुद्ध करने के उपाय (ह्वयामसि) करें। शरीर में विष (Poison) बैठ जाने से अंगों में दर्द होता है इसलिये पीड़ा को दूर करने के लिये शरीर के विषों को दूर करना चाहिये। दर्द आप से आप दूर हो जायगा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १-२ अनुष्टुभौ। ३ आसुरी भुरिग् उष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Extraction of the ‘arrow’
Meaning
Hundreds are the blood vessels spread out over all your body parts. We take out the poisons from all those blood vessels.
Translation
The hundreds arteries, that lie within your limbs, from all of them we draw the poison out.
Translation
We make ineffectual the poison from all those vessels and canals which are hundred in number spreading throughout the members of your frame.
Translation
O patient, from all the hundred nerves spread throughout the organs of thy body, from all those vessels and canals, we, the physicians, through medicine, drive out the poisonous matter!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(याः) (ते) तव (शतम्) बह्व्यः (धमनयः) नाड्यः, अङ्गानि शरीरावयवान् (अनु) अनुसृत्य (विष्ठिताः) विविधं स्थिताः (तासाम्) (ते) तव (सर्वासाम्) धमनीनाम् (वयम्) (निः) निष्कृष्य (विषाणि) दुःखानि (ह्वयामसि) आह्वयामः ॥
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