अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
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हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्ययी॑ । नौ: । अ॒च॒र॒त् । हिर॑ण्यऽबन्धना । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । पुष्प॑म् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त॒ ॥९५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना दिवि। तत्रामृतस्य पुष्पं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्ययी । नौ: । अचरत् । हिरण्यऽबन्धना । दिवि । तत्र । अमृतस्य । पुष्पम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥९५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(हिरण्ययी) तेजवाली [अग्नि वा बिजुली वा सूर्य से चलनेवाली] (हिरण्यबन्धना) तेजोमय बन्धनवाली (नौः) नाव (दिवि) चलने के व्यवहार में (अचरत्) चलती थी। (तत्र) वहाँ पर (अमृतस्य) अमृत के (पुष्पम्) विकाश, (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) विद्वान् लोगों ने (अवन्वत) माँगा है ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग तीक्ष्णबुद्धि मनुष्य द्वारा, अग्नि, बिजुली और सूर्य विद्या से, अग्निपोत, पुष्पक विमान आदि यान बना कर आनन्द पाते हैं ॥२॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ५।४।४ ॥
टिप्पणी
२−(हिरण्ययी) तेजोमयी अग्निना विद्युता सूर्येण वा गन्त्री (दिवि) गमने ॥ अन्यद्यथा−अ० ५।४।४ ॥
विषय
कुष्ठ
पदार्थ
व्याख्या द्रष्टव्य-५.४.३-४।
१. हे अग्ने-परमात्मन्! आप (ओषधीनाम्) = [ओष: धीयते आस] परिपाक जिनमें धारण किया जाता है, उन सब ओषधियों के (गर्भः असि) = गर्भ हो-गर्भ की भाँति उनमें अवस्थित हो। (उत) = और (हिमवताम्) = शीत स्पर्शवाली अन्य वनस्पतियों को भी (गर्भ:) = गर्भ के समान धारण करनेवाले हो। २. आप वस्तुत: (विश्वस्य) = सारे (भूतस्य) = प्राणिसमूह के व ब्राह्माण्ड के अन्दर (गर्भ:) = गर्भवत् अवस्थित हो। ऐसे आप (मे) = मेरे (इमम्) = इस व्यक्ति को (अगदं कृधि) = नीरोग कीजिए। आप इसके अन्दर भी उसी प्रकार अवस्थित हुए इसे नीरोग करनेवाले होओ।
भावार्थ
प्रभु आग्नेय व सौम्य पदार्थों में गर्भवत् स्थित हैं। हमारे अन्दर भी स्थित होते हुए प्रभु हमें नीरोग करें।
भाषार्थ
(हिरण्ययी) सुवर्णमयी (हिरण्यबन्धना) सुवर्ण के रस्से से बन्धी हुई (नौः) नौका (दिवि) द्युलोक में (अचरत्) चली है, (तत्र) उस काल में (देवाः) देवों ने (अमृतस्य चक्षणम्) अमृत की दृष्टि के रूप में (पुष्पम्) फल को (कुष्ठम्) कूठ रूप (अवन्वत) याचित किया ।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि कुष्ठ के फूल के भी वही गुण हैं जोकि कुष्ठ के हैं। द्युलोकस्थ नौका के तारागण हिरण्यसदृश चमकते हैं, और उन की रश्मियां रस्सी रूप हैं जिन द्वारा तारा गण परस्पर बन्धे हुए हैं, और नौका के नौकारूप को बनाए हुए हैं। रात्रिकाल में द्युलोक में यह नौका "विशेष समय" में दृष्टिगोचर होती है, नौका काल में कुष्ठ या कुष्ठ पुष्प का संग्रह करना चाहिये। नौः अचरत्= पृथिवी निज धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर भ्रमण [Revolve) करती है, अतः द्युलोक पूर्व-से-पश्चिम की ओर गति करता प्रतीत होता है। नौका भी द्युलोकस्थ है, अत: वह भी द्युलोक रूपी-समुद्र में पूर्व-से-पश्चिम की ओर चलती हुई [अचरत्] प्रतीत होती है]।
विषय
कुष्ठ औषधि और सर्वव्यापक परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
व्याख्या देखो ५। ४। ४।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। वनस्पतिर्मन्त्रोक्ता च देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kushtha
Meaning
There in heaven the golden boat of golden tackle floats in the light divine. There by the golden boat the divines obtained the kushtha herb, the very flower of immortality.
Translation
A golden ship (hiranya mayi), of golden tackle (hiranya - bandhana) roamed about in sky. There gods achieved victory on the Kustha (leprosy) - a flower of immortality (amrtasya puspam)
Translation
The golden boat, this body, which is bound with golden threads, the nerves veins etc. is moving in this world of splendor. The learned physicians tell this Kushtha the flower of long life (immortality) to apply therein.
Translation
In the head, a yogi perceives the intellect as a boat wherewith he crosses the journey of life. It is imbued with virtuous traits, and wrought with golden qualities. In that does God reveal Himself. The yogis long there for God, Who pervades the material body.
Footnote
It', 'that', 'there' refer to the intellect. See Atharva, S-4-4,
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(हिरण्ययी) तेजोमयी अग्निना विद्युता सूर्येण वा गन्त्री (दिवि) गमने ॥ अन्यद्यथा−अ० ५।४।४ ॥
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