अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - चिकित्सा सूक्त
39
मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥९६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठमुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥९६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ओषधियों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
वे [ओषधे] (मा) मुझको (शपथ्यात्) शपथसम्बन्धी (अथो) और (वरुण्यात्) श्रेष्ठों में हुए [अपराध] से (अथो) और (यमस्य) न्यायकारी राजा के (पड्वीशात्) बेड़ी डालने से (उत) और (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) इन्द्रियों के दोष से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य प्रमादकारक द्रव्यों को छोड़ कर सात्विक भोजन करें। जिससे साधु स्वभाव रहकर सौगन्द, श्रेष्ठों के अपराध, राजा के बन्धन और इन्द्रियों के विकार से पृथक् रहें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से है−ऋग्० १०।९७।१५, यजु० १२।९० ॥
टिप्पणी
२−(मुञ्चन्तु) विसृजन्तु (मा) माम् (शपथ्यात्) शपथे भवात् (अथो) अपि च (वरुण्यात्) वरुणेषु वरेषु भवादपराधात् (उत) अपि (अथो) (यमस्य) न्यायिनो राज्ञः (पड्वीशात्) सर्त्तरटिः। उ० १।१३४। इति पश बन्धने−अटि, स च डित्+विश प्रवेशे−क, छान्दसो दीर्घः। पड्भिः पदनाम−निघ० ४।२। पड्भिः पानैरिति वा स्पाशनैरिति वा स्पर्शनैरिति वा−निरु० ५।३। पाशप्रवेशात् (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (देवकिल्बिषात्) किल्बिषम्−अ० ५।१९।५। इन्द्रियाणां दोषात् ॥
विषय
शपथ्य व वरुण्य रोगों से मुक्ति
पदार्थ
१. ये ओषधियाँ (मा) = मुझे (शपथ्यात् मुञ्चन्तु) = दुर्वचनजनित रोगों से मुक्त करें। सौम्य ओषधियों मन के उद्वेग आदि को दूर करके हमें कटुवचन बोलने से रोकती हैं। राजस् भोजन स्वभावत: कुछ उग्रता का कारण बनते हैं। (अथो) = अब (वरुणयात् उत) = जल के कारण हो जानेवाले रोगों से भी बचाएँ। दूषित जल से कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। २. (अथो) = और (यमस्य पड़वीशात्) = मृत्यु के पाशरूप असाध्य रोगों से भी ये हमें बचाएँ। (विश्वस्मात्) = सब (देवकिल्बिषात्) = इन्द्रिय-सम्बन्धी दोर्षों [रोगों] से भी ये हमें बचानेबाली हों।
भावार्थ
ओषधियाँ हमें दुर्वचन-जनित रोगों से, जल-सम्बन्धी रोगों से, असाध्यकल्प रोगों से तथा सब इन्द्रिय-दोषों से मुक्त करें।
भाषार्थ
ओषधियां (मा) मुझे (मुञ्चन्तु) मुक्त करें (शपथ्यात्) शपथ से उत्पन्न पाप से, (अथो) तथा (वरुण्यात्) जलोदर रोग से, (उत) भी। (अथो) तथा (यमस्य) नियन्ता-परमेश्वर या मृत्यु के (पड्वीशाद्) पाद-बन्धन अर्थात् पाद रोग से, तथा (विश्वस्मात्) सव (देवकिल्बिषात्) इन्द्रिय जन्य पाप से। देवाः= इन्द्रियाणि (महीधर, यजु० ४०।४)।
टिप्पणी
[शपथ झूठी होती है। यह भी रोगरूप है। सत्यवादी शपथ नहीं करता। वरुण का अर्थ है मेघ। अतः वरुण्य है जलीय रोग, अर्थात् जलोदर। पड्वोश= है पादों में प्रविष्ट रोग, श्लीपद्, Elephantiasis देव हैं इन्द्रियां। किल्बिष है पाप, जोकि निश्चय से विषरूप होता है, किल +विष]।
विषय
पाप-मोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
वे पापों को सन्तापित और दग्ध करनेवाली प्रजाएँ या व्यवस्थाएँ (मा) मुझको (शपथ्यात्) वाणी द्वारा दूसरे के प्रति दुर्वचन बोलने से उत्पन्न हुए अपराध (उत) और (वरुण्याद्) दमन करने योग्य झूठ बोलने आदि के अपराध से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें। (अथो) और (यमस्य) नियन्ता राजा की (पड्वीशात्) डाली हुई पैरों में पड़ी बेड़ियों से और (विश्वस्मात्) सब प्रकार के (देव-किल्विषात्) देव अर्थात् राजा, विद्वान् और अधिकारीगण के प्रति किये अपराध से मुक्त करें।
टिप्पणी
ऋ० १०।९७।१६ अथर्व० १७। ११२। २ यजु १२। ९०॥ (च०) ‘सर्वस्मात्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। देवता १,२ वनस्पतिः,३ सोमः। १,२ अनुष्टुभः,३ विराण्नामगायत्री। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Herbs and Freedom from
Meaning
May they save us from the hurt and affliction caused by censure and imprecation, from ailments caused by water, from the snares of Varuna, natural justice, from the fear of untimely death and from offence and violence against natural force. (This mantra is more a prayer for immunity and observance of discipline than for cure of the consequences of a breach of the discipline, or, let us say, it is for prevention and cure both.)
Translation
May those (herbs) free me from the malady caused by angry words, and also from what is caused by maladjustment of water (varunyat); then from the fetters of the controller (death) and also from all the sins committed against the bounties of Nature.
Translation
Let these herbs release us from the disease caused by anger or jealousy, let these herbs keep away us from the disease caused by rainy season, let these herbs free us from the disease caused by the scorching sun and let these herbs save us from the diseases caused by our negligence and violation of the natural and physical laws.
Translation
O learned persons, just as medicines relieve me from sickness, so should ye, relieve me from the curse's evil, the offence committed towards the virtuous, violation of the orders of the ruler, and the entire sin against the sages.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(मुञ्चन्तु) विसृजन्तु (मा) माम् (शपथ्यात्) शपथे भवात् (अथो) अपि च (वरुण्यात्) वरुणेषु वरेषु भवादपराधात् (उत) अपि (अथो) (यमस्य) न्यायिनो राज्ञः (पड्वीशात्) सर्त्तरटिः। उ० १।१३४। इति पश बन्धने−अटि, स च डित्+विश प्रवेशे−क, छान्दसो दीर्घः। पड्भिः पदनाम−निघ० ४।२। पड्भिः पानैरिति वा स्पाशनैरिति वा स्पर्शनैरिति वा−निरु० ५।३। पाशप्रवेशात् (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (देवकिल्बिषात्) किल्बिषम्−अ० ५।१९।५। इन्द्रियाणां दोषात् ॥
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