अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सांमनस्यम्, अश्विनौ
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
110
सं जा॑नामहै॒ मन॑सा॒ सं चि॑कि॒त्वा मा यु॑ष्महि॒ मन॑सा॒ दैव्ये॑न। मा घोषा॒ उत्स्थु॑र्बहु॒ले वि॒निर्ह॑ते॒ मेषुः॑ पप्त॒दिन्द्र॒स्याह॒न्याग॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । जा॒ना॒म॒है॒ । मन॑सा । सम् । चि॒कि॒त्वा । मा । यु॒ष्म॒हि॒ । मन॑सा । दैव्ये॑न । मा । घोषा॑: । उत् । स्थु॒: । ब॒हु॒ले । वि॒ऽनिर्ह॑ते । मा । इषु॑: । प॒प्त॒त् । इन्द्र॑स्य । अह॑नि । आऽग॑ते ॥५४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा मा युष्महि मनसा दैव्येन। मा घोषा उत्स्थुर्बहुले विनिर्हते मेषुः पप्तदिन्द्रस्याहन्यागते ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । जानामहै । मनसा । सम् । चिकित्वा । मा । युष्महि । मनसा । दैव्येन । मा । घोषा: । उत् । स्थु: । बहुले । विऽनिर्हते । मा । इषु: । पप्तत् । इन्द्रस्य । अहनि । आऽगते ॥५४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आपस में एकता का उपदेश।
पदार्थ
(मनसा) आत्मबल के साथ (सम् जानामहै) हम मिले रहें, (चिकित्वा) ज्ञान के साथ (सम्) मिले रहें, (दैव्येन) विद्वानों के हितकारी (मनसा) विज्ञान से (मा युष्महि) हम अलग न होवें। (बहुले) बहुत (विनिर्हते) विविध वध के कारण युद्ध होने पर (घोषाः) कोलाहल (मा उत् स्थुः) न उठें, (इन्द्रस्य) बड़े ऐश्वर्यवान् राजा का (इषुः) बाण (अहनि) दिन [न्यायदिन] (आगते) आने पर [हम पर] (मा पप्तत्) न गिरे ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य पूर्ण पुरुषार्थ से एकमत रहने का प्रयत्न करें, और ऐसा काम न करें जिससे आपस में युद्ध होवे और पाप के कारण राजा के दण्डनीय होवें ॥२॥
टिप्पणी
२−(सम् जानामहै) समानज्ञाना भवाम (मनसा) आत्मबलेन (सम्) संजानामहै (चिकित्वा) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। कित ज्ञाने-क्वनिप्। छान्दसं द्विर्वचनम्, तृतीयाया डादेशः। चिकित्वना। ज्ञानेन (मा युष्महि) यु मिश्रणामिश्रणयोः, माङि लुङि सिचि रूपम्। मा वियुक्ता भूम (मनसा) विज्ञानेन (दैव्येन) देवहितेन (घोषाः) कोलाहलाः (मा उत् स्थुः) माङि लुङि रूपम्। उत्थिता मा भूवन् (बहुले) प्रचुरे (विनिर्हते) विविधं वधनिमित्ते युद्धे सति (इषुः) बाणः (मा पप्तत्) पत-लुङ्। मा पततु (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतो राज्ञः (अहनि) दिने। न्यायदिने (आगते) प्राप्ते ॥
विषय
'मन व बुद्धि' से परस्पर ऐक्य
पदार्थ
१. (मनसा) = मन के द्वारा हम (संजानामहै) = समान विचारवाले हों तथा (चिकित्वा) = [चिकित्वना] ज्ञान से भी हम (सम्) = संज्ञानवाले हों। हमारे मन व बुद्धि हमें संज्ञान की ओर ले-चलें। हम (दैव्येन मनसा) = दिव्य गुणवाले मन से (मा युष्महि) = कभी पृथक् न हों। २. (बहुले) = [बहुल The dark half of month] कृष्णपक्ष के अन्धकार के (विनिहते) = नष्ट कर दिये जाने पर (घोषा:) = अन्धकार में होनेवाली ध्वनियों (मा उत्स्थ:) = न उठें, अर्थात् राष्ट्र में न्याय व्यवस्था के ठीक होने से प्रकाश ही-प्रकाश हो, लोगों में हाहाकार न मचता रहे और (अहनि आगते) = दिन निकलने पर (इन्द्रस्य इषुः) = [अशनि:]-अशनिरूपा (मर्मभेदिनी) = परकीया वाक् (मा पासत्) = हमपर न गिरे। वैमनस्य के कारण दूसरों की कठोर वाणियों हमपर न गिरें, हम परस्पर अनुकूल वाणीवाले हों।
भावार्थ
हम मन व बुद्धि से परस्पर संज्ञानवाले हों। हमारा मन दिव्य हो। हमारे राष्ट्र से अन्धकार दूर हो, हाहाकार न होता रहे और हमपर विद्युत् के समान मर्मभेदिनी वाणियों न गिरें।
इसप्रकार संज्ञानवाला यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' [बड़ा] बनता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि ब्रह्मा ही है -
भाषार्थ
(मनसा) मन द्वारा (संजानामहै) हम संज्ञान अर्थात् ऐकमत्य को प्राप्त हों, (चिकित्वा) सम्यक-ज्ञान द्वारा (सम्) हम संज्ञान अर्थात् ऐकमत्य को प्राप्त हों, (दैव्येन मनसा) इस दिव्य मन और सम्यक् ज्ञान से (मा युष्महि) हम वियुक्त न हों। (बहुले विनिर्हते) महाघाती युद्ध में (घोषाः) आवाजें (मा उत् स्थुः) न उठें। (अहनि आगते) युद्ध का दिन आ जाने पर भी (इन्द्रस्य) सम्राट् की या सेनापति की (इषु) इषु [बाण] (मा पप्तत्) युद्धस्थल में न गिरे।
टिप्पणी
[मनसा अर्थात् विचारपूर्वक, और चिकित्सा अर्थात् सम्यक्-ज्ञानपूर्वक संज्ञान होना चाहिये ताकि यह संज्ञान स्थिरता प्राप्त कर सके। चिकित्वा= चिकित्वना]
विषय
परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ
हम लोग (मनसा) चित्त से सदा (सं जानामहै) आपस में मिल कर, सहमति करके रहा करें, और (सं चिकित्वा) उत्तम रीति से आपस के सब मामलों को समझ बूझ कर (दैव्येन) विद्वानों के (मनसा) मननशील चित्त के अनुसार होकर आपस में (मा युष्महि) फूट फूट कर, जुदा न रहें और (बहुले) बड़े (विनिर्हते) युद्धों के निमित्त (घोषाः) हाहाकार के शब्द (मा उत् स्थुः) न उठा करें, और (अहनि आ-गते) युद्ध के दिन के उपस्थित हो जाने पर भी (इन्द्रस्य) इन्द्र अर्थात् राजा का (इषुः) बाण (मा पप्तत्) युद्ध के निमित्त न चले या (इन्द्रस्य इषुः) राजा के बाण, या ऐश्वर्यवानों के बाण गरीबों पर न पड़ें। हम मिल कर रहें, समझ बूझ कर विचार कर आपस में न फूटें, महायुद्ध संसार में न हों. युद्ध-दिन के उपस्थित हो जाने पर भी राजाओं के शस्त्रास्त्र एक दूसरे पर न गिरें या ऐश्वर्यवान् पुरुषों के गरीबों पर आक्रमण न हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यकारिणावश्विनौ देवते। १ ककुम्मती अनुष्टुप् जगती। द्वयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Knowledge
Meaning
With equanimity of mind and soul let us know and be together in harmony. Being knowledgeable with divine mind and soul in unanimity, let us never disagree, never part, never divide. Even when mighty deadly occasions arise, let no voices of dissent and division arise so that when the day of reckoning arrives, the strike of Indra, ruler and ultimate master, falls not on us.
Translation
May we have proper understanding in mind; having been understood, may we remain united. May we never be devoid of divine spirit. May the noises of wanton slaughter not rise here. May the arrow of the resplendent Lord not fall (on us), when the day comes.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.54.2AS PER THE BOOK
Translation
May we have concordance in mind, unanimity in purpose and let us not part from the spirit of righteousness and conscientiousness. Let not arise there around us any din of frequent laughter and let not the arrow of lightning fall upon us in the day and in the night
Translation
May we agree in mind, agree in purpose, let us not fight against the spirit of the learned. Around us rise no din of frequent slaughter in battle. Let not the king’s arrow fly on the eve of the day of battle.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सम् जानामहै) समानज्ञाना भवाम (मनसा) आत्मबलेन (सम्) संजानामहै (चिकित्वा) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। कित ज्ञाने-क्वनिप्। छान्दसं द्विर्वचनम्, तृतीयाया डादेशः। चिकित्वना। ज्ञानेन (मा युष्महि) यु मिश्रणामिश्रणयोः, माङि लुङि सिचि रूपम्। मा वियुक्ता भूम (मनसा) विज्ञानेन (दैव्येन) देवहितेन (घोषाः) कोलाहलाः (मा उत् स्थुः) माङि लुङि रूपम्। उत्थिता मा भूवन् (बहुले) प्रचुरे (विनिर्हते) विविधं वधनिमित्ते युद्धे सति (इषुः) बाणः (मा पप्तत्) पत-लुङ्। मा पततु (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतो राज्ञः (अहनि) दिने। न्यायदिने (आगते) प्राप्ते ॥
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