अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 79/ मन्त्र 4
अमा॑वास्ये॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॑ परि॒भूर्ज॑जान। यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअमा॑ऽवास्ये । न । त्वत् । ए॒तानि॑ । अ॒न्य: । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । प॒रि॒ऽभू: । ज॒जा॒न॒ । यत्ऽका॑मा: । ते॒ । जु॒हु॒म: । तत् । न॒: । अ॒स्तु॒ । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥८४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अमावास्ये न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअमाऽवास्ये । न । त्वत् । एतानि । अन्य: । विश्वा । रूपाणि । परिऽभू: । जजान । यत्ऽकामा: । ते । जुहुम: । तत् । न: । अस्तु । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥८४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अमावास्ये) हे अमावास्या ! [सबके साथ निवास करनेवाली शक्ति, परमेश्वर !] (त्वत्) तुझ से (अन्यः) दूसरे किसी ने (परिभूः) व्यापक होकर (एतानि) इन (विश्वा) सब (रूपाणि) रूपवाले [आकारवाले] पदार्थों को (न) नहीं (जजान) उत्पन्न किया है। (यत्कामाः) जिस वस्तु की कामनावाले हम (ते) तेरा (जुहुमः) स्वीकार करते हैं, (तत्) वह (नः) हमारे लिये (अस्तु) होवे, (वयम्) हम (रयीणाम्) अनेक धनों के (पतयः) स्वामी (स्याम) बने रहें ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर ही अनुपम, सर्वशक्तिमान् और सब सृष्टि का कर्ता है, उसी की शरण लेकर विद्या सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके ऐश्वर्यवान् होवें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० १०।१२१।१०। और यजुर्वेद-अ० २३।६५ ॥
टिप्पणी
४−(अमावास्ये)-म० १। सर्वैः सह निवासशीले (न) निषेधे (त्वत्) त्वत्तः (एतानि) दृश्यमानानि (अन्यः) भिन्नः (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) मूर्तानि वस्तूनि (परिभूः) भू प्राप्तौ-क्विप्। व्यापकः (जजान) जन जनने-लिट्। उत्पादयामास (यत्कामाः) यद्वस्तु कामयमानाः (ते) तव (जुहुमः) हु दानादानयोः। स्वीकारं कुर्मः (तत्) कमनीयं वस्तु (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (वयम्) (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः (रयीणाम्) धनानाम् ॥
विषय
'निर्मात्री' अमावास्या
पदार्थ
१. हे (अमावास्ये) = सूर्य और चन्द्र के साथ-साथ निवासवाली प्रवृत्ते! (त्वत् अन्य:) = तुझसे भिन्न अन्य कोई देव (एतानि विश्वा रूपाणि) = इन सब रूप्यमाण भूतों को (परिभूः न जजान) = व्यापन करनेवाला नहीं उत्पन्न हुआ। अमावास्या ही सब रूपों को प्रादुर्भूत करनेवाली होती है। सूर्य और चन्द्र के समन्वय में ही सब उत्पादन निहित है। इनके समन्वय के अभाव में विनाश है। २. हे अमावास्ये! (यत्कामा:) = जिस फल की कामनावाले होते हुए हम (ते जुहुमः) = तेरे लिए हवियाँ देते हैं, (तत् नः अस्तु) = वह फल हमें प्राप्त हो और (वयम्) = हम (रयीणां पतयः स्याम) = धनों के स्वामी बनें, कभी धनों के दास न बन जाएँ।
भावार्थ
सूर्य-चन्द्र का समन्वय ही सब निर्माण का साधन बनता है। इसके समन्वय में ही इष्टसिद्धि है और यह समन्वय ही हमें धनों का स्वामी बनाता है।
भाषार्थ
(अमावास्ये) हे अमावास्या ! [मन्त्र ३] (त्वत् = त्वत्तः) तुझ से (अन्यः) भिन्न किसी ने (एतानि ) इन (विश्वा रूपाणि) सब रूपयुक्त, भूतभौतिक वस्तुओं को (न जजान) नहीं पैदा किया, (परिभू) तू ही इन सब के सब ओर विद्यमान है। (यत्कामाः) जिस कामना वाले (वयम्) हम (ते) तुझे (जुहुमः) आत्माहुति देते हैं, (नः) हमें (तत्) वह काम्य वस्तु (अस्तु) प्राप्त हो, (रयीणाम् पतयः स्याम) अर्थात् हम रयिओं [धनों] के स्वामी हो जाय।
टिप्पणी
[परिभूः= जैसे दुर्ग की रक्षा के लिये, उसके चारों ओर खाई होती है, वैसे आप भूतभौतिक जगत् की रक्षा के लिये उसके सब ओर विद्यमान हैं, "परि (सब ओर) + भूः (सत्तायाम्)"। "सब ओर" का अभिप्राय है चारों ओर, ऊपर-नीचे, तथा पार्श्वो में (रयीणाम्= प्राकृतिक तथा आत्मिक सम्पत्तियां]।
विषय
स्त्री के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अमावास्ये) सहवासशीले गृहपत्नि ! (त्वद्) तुझसे (अन्यः) दूसरा कोई (एतानि) इन (विश्वा रूपाणि) समस्त पुत्र आदि पदार्थों को (परि-भूः) शक्तिमती होकर (न) नहीं (जजान) पैदा करता। (यत्कामाः) जो कामना रख कर हम (जुहुमः) वीर्य आदि का त्याग करते हैं हे परमशक्ते ! (तत् नः) वह पुत्र आदि हमें (अस्तु) प्राप्त हो। और (वयं) हम (रयीणाम्) समस्त धन सम्पत्तियों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हों। परम ब्रह्मशक्ति के पक्ष में—हे अमावास्ये ! सब के साथ विद्यमान (न त्वद् अन्यः एतानि विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान) तेरे से अतिरिक्त कोई भी दूसरी शक्ति सर्वव्यापक हो कर इन समस्त नाना लोकों को उत्पन्न नहीं करती। (यत्कामाः ते जुहुमः तत् नः अस्तु) जिस मोक्ष पद के लाभ की आकांक्षा करके तेरे प्रति हम आत्मत्याग करते हैं वह हमारी अभिलाषा पूर्ण हो। (वयं स्याम पतयो रयीणाम्) हम रयि—वीर्य, बल और धनों के स्वामी हों।
टिप्पणी
(प्र०) ‘प्रजापते’ (द्वि०), ‘विश्वा जातानि परिता वभूव’ इति।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता अमावास्या देवता। १ जगती। २, ४ त्रिष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Integrative Spirit
Meaning
O Amavasya, divine spirit of peace and total integration, universal shelter cover of love and union, none other than you creates and comprehends these world forms of life. We pray, may all that we love and desire with yajnic homage for fulfilment, be true and be accomplished, and may we be masters of wealth, honour and excellence.
Translation
O new moon’s night, none other than you has been born, who may embrace all the forms (and beings). With what desires we offer oblations to you, may that be ours. May we become masters of riches. (Also Yv. X.20).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.84.4AS PER THE BOOK
Translation
None else except this Amavasya born powerful to over-whelm all the forms of the worldly object with its darkness. May we have whatever we long for when we perform the yajna of Amavasya and may we be the lord of riches.
Translation
O woman, none besides thee, has the strength to give birth to these children. Give us our heart’s desire when we approach thee. May we be the lords of riches!
Footnote
Heart’s desire: A nice son. The verse can be interpreted thus also, if we understand ‘Amavasya’ to mean God. O God, none besides Thee, comprehends all these created worlds. Give us our heart’s desire when we invoke Thee. May we be the lords of riches, Sec Rig, 10-121-10 and Yajur, 23-65.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अमावास्ये)-म० १। सर्वैः सह निवासशीले (न) निषेधे (त्वत्) त्वत्तः (एतानि) दृश्यमानानि (अन्यः) भिन्नः (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) मूर्तानि वस्तूनि (परिभूः) भू प्राप्तौ-क्विप्। व्यापकः (जजान) जन जनने-लिट्। उत्पादयामास (यत्कामाः) यद्वस्तु कामयमानाः (ते) तव (जुहुमः) हु दानादानयोः। स्वीकारं कुर्मः (तत्) कमनीयं वस्तु (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (वयम्) (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः (रयीणाम्) धनानाम् ॥
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