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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    62

    मय्यग्रे॑ अ॒ग्निं गृ॑ह्णामि स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न। मयि॑ प्र॒जां मय्यायु॑र्दधामि॒ स्वाहा॒ मय्य॒ग्निम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑ । अग्रे॑ । अ॒ग्निम् । गृ॒ह्णा॒मि॒ । स॒ह । क्ष॒त्रेण॑ । वर्च॑सा । बले॑न । मयि॑ । प्र॒ऽजाम् । मयि॑ । आयु॑: । द॒धा॒मि॒ । स्वाहा॑ । मयि॑ । अ॒ग्निम् ॥८७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मय्यग्रे अग्निं गृह्णामि सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन। मयि प्रजां मय्यायुर्दधामि स्वाहा मय्यग्निम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मयि । अग्रे । अग्निम् । गृह्णामि । सह । क्षत्रेण । वर्चसा । बलेन । मयि । प्रऽजाम् । मयि । आयु: । दधामि । स्वाहा । मयि । अग्निम् ॥८७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेद के विज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    मैं (अग्रे) सब से पहिले वर्तमान (अग्निम्) सर्वज्ञ परमेश्वर को (मयि) अपने में (क्षत्रेण) [दुःख से बचानेवाले] राज्य, (वर्चसा) प्रताप और (बलेन सह) बल के साथ (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। मैं (मयि) अपने में (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान भृत्य आदि] को, (मयि) अपने में (आयुः) जीवन को, (मयि) अपने में (अग्निम्) अग्नि [शारीरिक और आत्मिक बल] को (स्वाहा) सुन्दर वाणी [वेदवाणी] के द्वारा (दधामि) धारण करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य अनादि, अनन्त, परमात्मा का भरोसा रखकर शारीरिक, आत्मिक बल बढ़ा कर राज्य आदि की वृद्धि करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(मयि) आत्मनि (अग्रे) सर्वप्रथमं वर्तमानम् (अग्निम्) सर्वज्ञं परमात्मानाम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (सह) सहितः (क्षत्रेण) क्षणु हिंसायाम्-क्विप्+त्रैङ् पालने-क। क्षतः क्षतात् त्रायकेण राज्येन (वर्चसा) प्रतापेन (बलेन) (मयि) (प्रजाम्) सन्ततिभृत्यादिरूपाम् (मयि) (आयुः) जीवनम् (दधामि) धारयामि (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा (मयि) (अग्निम्) विद्युतं शारीरिकात्मिकबलहेतुम् ॥

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    विषय

    'क्षत्र, वर्चस्, बल, प्रजा, आयु' का धारण

    पदार्थ

    १. (अग्रे) = सर्वप्रथम मैं (मयि) = अपने में (अग्निं गृह्णामि) = उस अग्रणी प्रभु को धारण करता हूँ, (परिणामतः क्षत्रेण वर्चसा बलेन सह) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल से, प्राणशक्ति से [वर्चसा] तथा मनोबल से युक्त होता हूँ। प्रभु का धारण 'क्षत्र, वर्चस् व बल' देता है। २. (मयि प्रजा दधामि) = मैं इस प्रभु-पूजन से उत्तम सन्तान को धारण करता हूँ। (मयि आयु:) = अपने में आयुष्य को धारण करता हूँ। (स्वाहा) = [सुआह]-सबसे उत्तम यह कथन है कि मयि अग्रिम-अपने में अग्नि को धारण करता हूँ। अग्नि के धारण से इन सबका धारण हो ही जाता है।

    भावार्थ

    अपने अन्दर प्रभु को धारण करने से हम 'क्षत्र, वर्चस्, बल, प्रजा व आयु' को धारण कर रहे होते हैं।

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    भाषार्थ

    (क्षत्रेण) क्षावभावना, (वर्चसा) अध्यात्म तेज, (बलेन) तथा शारीरिक बल के (सह) साथ (अग्रे) प्रथम (मयि) मुझ में अपने में (अग्निम्) परमेश्वराग्नि को (गृह्णामि) मैं ग्रहण करता हूं। (मयि) मुझ में अर्थात् अपने में (प्रजाम्) उत्पादक वीर्य को (मयि) मुझमें अर्थात् अपने में (आयुः) आयु को (दधामि) में स्थापित करता हूं, (स्वाहा) स्वाहा के उच्चारण पूर्वक (मयि) मुझ में अर्थात् अपने में (अग्निम्) परमेश्वराग्नि को मैं स्थापित करता हूं।

    टिप्पणी

    ["अग्नि" यह परमेश्वर का नाम भी है। यथा “तदेवाग्निस्तदादित्यः" (यजु० ३२।२)। अग्नि को जीवन में धारण करने के लिये क्षात्रदृढ़ता चाहिये, अध्यात्मतेज तथा शारीरिक बल चाहिये। प्रजा= प्रजोत्पादक वीर्य१। परमेश्वर को अपने में धारण करने के लिये वीर्यशक्ति की आवश्यकता है। तभी योगाभ्यास द्वारा परमेश्वर का साक्षात्कार सम्भव है। योग में वीर्यनिग्रह चाहिये। यथा “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् " (योग १।२०)। वीर्यनिग्रह से आयु भी बढ़ती और सुखदायी होती है। मन्त्र में भौतिक अग्नि अभिप्रेत नहीं]। [१. वीर्य कारण है भोर प्रजा है कार्य। कारण में कार्योपचार है। यथा “आयुर्वै घृतम्"।]

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    विषय

    ईश्वर से बलों की याचना।

    भावार्थ

    (अग्रे) प्रथम मैं (मयि) अपने आत्मा में (अग्निम्) उस प्रकाशस्वरूप अग्नि, तेजस्वी परमात्मा को (क्षत्रेण) वीर्य, (वर्चसा) तेज और (बलेन) बल के धारण करने के (सह) साथ साथ (गृह्णामि) धारण करता हूँ। मैं (मयि) अपने में (प्रजां) प्रजा को और (मयि) अपने में (आयुः) दीर्घ जीवन को (दधामि) धारण करता हूँ। (स्वाहा) सबसे अच्छे रूप में यों कहना ही उत्तम है कि मैं (मयि) अपने में (अग्निम्) ‘अग्नि’ को धारण करता हूँ। अर्थात् ‘अग्नि’ को धारण करने का तात्पर्य वेद के वचनानुसार अपने में क्षत्र = वीर्य, वर्च = तेज और बल = शारीरिक शक्ति को ज्ञान के साथ धारण करना और प्रजाओं के साथ दीर्घ जीवन को धारण करना ही है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ४, ५, ६ त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer to Agni

    Meaning

    First of all, with strength, honour and lustre of mind, and excellence worthy of the order of the brave, I accept and internalise the presence of Agni, lord of light, and then I attain progeny, health and age, fire and passion of life and the sacred Word of the knowledge of Divinity.

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    Translation

    First I acquire the fire-divine along with the dominating power, splendour and strength. I put in myself the progeny, in myself the long life, and in myself the fire-divine. Svaha.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.87.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    I first appropriate fire or heat in me with power, with vigor and with strength. I (through this Agni) give me offspring, lengthen my life and maintain heat energy in me. Whatever is uttered here is true and hail it.

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    Translation

    I first appropriate God, with power, with splendor, and with might. Through Vedic knowledge, I preserve in myself children, longevity, physical and spiritual strength.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(मयि) आत्मनि (अग्रे) सर्वप्रथमं वर्तमानम् (अग्निम्) सर्वज्ञं परमात्मानाम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (सह) सहितः (क्षत्रेण) क्षणु हिंसायाम्-क्विप्+त्रैङ् पालने-क। क्षतः क्षतात् त्रायकेण राज्येन (वर्चसा) प्रतापेन (बलेन) (मयि) (प्रजाम्) सन्ततिभृत्यादिरूपाम् (मयि) (आयुः) जीवनम् (दधामि) धारयामि (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा (मयि) (अग्निम्) विद्युतं शारीरिकात्मिकबलहेतुम् ॥

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