अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 6
घृ॒तं ते॑ अग्ने दि॒व्ये स॒धस्थे॑ घृ॒तेन॒ त्वां मनु॑र॒द्या समि॑न्धे। घृ॒तं ते॑ दे॒वीर्न॒प्त्य आ व॑हन्तु घृ॒तं तुभ्यं॑ दुह्रतां॒ गावो॑ अग्ने ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । दि॒व्ये । स॒धऽस्थे॑ । घृ॒तेन॑ । त्वाम् । मनु॑: । अ॒द्य । सम् । इ॒न्धे॒ । घृ॒तम् । ते॒ । दे॒वी: । न॒प्त्य᳡: । आ । व॒ह॒न्तु॒ । घृ॒तम् । तुभ्य॑म् । दु॒ह्र॒ता॒म् । गाव॑: । अ॒ग्ने॒ ॥८७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतं ते अग्ने दिव्ये सधस्थे घृतेन त्वां मनुरद्या समिन्धे। घृतं ते देवीर्नप्त्य आ वहन्तु घृतं तुभ्यं दुह्रतां गावो अग्ने ॥
स्वर रहित पद पाठघृतम् । ते । अग्ने । दिव्ये । सधऽस्थे । घृतेन । त्वाम् । मनु: । अद्य । सम् । इन्धे । घृतम् । ते । देवी: । नप्त्य: । आ । वहन्तु । घृतम् । तुभ्यम् । दुह्रताम् । गाव: । अग्ने ॥८७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेद के विज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वज्ञ परमेश्वर ! (ते) तेरा (घृतम्) प्रकाश (दिव्ये) दिव्य [सूक्ष्म] कारण में और (सधस्थे) मिलकर ठहरनेवाले कार्यरूप जगत् में है, (घृतेन) प्रकाश के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझ को (मनुः) मननशील पुरुष (अद्य) अब (सम्) यथावत् (इन्धे) प्रकाशित करता है। (ते) तेरे (घृतम्) प्रकाश को (देवीः) उत्तम गुणवाली, (नप्त्यः) न गिरनेवाली प्रजायें [हमें] (आ वहन्तु) प्राप्त करावें, (अग्ने) हे सर्वव्यापक जगदीश्वर ! (गावः) वेदवाणियाँ (तुभ्यम्) तेरे (घृतम्) प्रकाश को (दुह्रताम्) परिपूर्ण करें ॥६॥
भावार्थ
विचारवान् पुरुष परमेश्वर की सत्ता और शक्ति को कारण और कार्यरूप जगत् में साक्षात् करके संसार को पुरुषार्थी बनावें ॥६॥
टिप्पणी
६−(घृतम्) घृ सेके दीप्तौ च-क्त। दीप्तिः (ते) तव (अग्ने) सर्वज्ञ परमेश्वर (दिव्ये) विचित्रे कारणे (सधस्थे) सहस्थितिशीले कार्यरूपे संसारे (घृतेन) प्रकाशेन (त्वाम्) (मनुः) मननशीलः पुरुषः (अद्य) इदानीम् (सम्) सम्यक् (इन्धे) ञिइन्धी दीप्तौ, ण्यर्थः। दीपयति। विज्ञापयति (घृतम्) ज्ञानप्रकाशम् (ते) तव (देवीः) उत्तमगुणयुक्ताः (नप्त्यः) नप्तृनेष्टृत्वष्टृ०। उ० २।९५। नञ्+पत्लृ गतौ-तृच्, ङीप्, छान्दसं रूपम्। न पततीति नप्त्री। नप्त्र्यः। न पतनशीलाः प्रजाः (आ) अभिमुखम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (घृतम्) (तुभ्यम्) म० ३। तव (दुह्रताम्) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुडागमः। दुह्रताम्। प्रपूरयन्त (गावः) वेदवाचः−(अग्ने) हे सर्वव्यापक ॥
विषय
घृतं ज्ञानदीति
पदार्थ
१. 'घृ क्षरणदीप्त्योः' से बना 'घृतं' शब्द दीप्ति का वाचक है। हे (अग्ने) = परमात्मन्! (ते घृतम्) = आपकी दीसि (दिव्ये) = दिव्य गुणयुक्त (सधस्थे) = आत्मा व परमात्मा के मिलकर रहने के स्थान 'हृदय' में है। पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश दिखता है। इस (घृतेन) = ज्ञानदीति से ही (मनु:) = विचारशील व्यक्ति (अद्य) = अब (त्वां समिन्धे) = आपको दीप्त करता है, आपके प्रकाश को देखता है। २. (देवी: नप्त्यः) = दिव्य गुणोंवाली न पतनशील प्रजाएँ (ते घृतम्) = आपकी ज्ञानदीसि को (आवहन्तु) = प्राप्त करें। हे (अग्रे) = परमात्मन्! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए ये (गावः) = वेदवाणियाँ हमारे अन्दर (घृतम्) = ज्ञानदीसि का (दुहताम्) = प्रपूरण करें।
भावार्थ
पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। ज्ञानी मनुष्य ज्ञानदीप्ति द्वारा प्रभु को अपने में समिद्ध करता है। न पतनशील प्रजाएँ आपके प्रकाश को प्राप्त करती हैं, आपकी प्रासि के लिए ये वेदवाणियाँ हमारे अन्दर ज्ञान का प्रपूरण करें।
ज्ञानदीति प्राप्त करके मनुष्य सब बन्धनों से मुक्त होता हुआ वास्तविक सुख का निर्माण कर पाता है, अतः 'शुन:शेप' सुख का निर्माण करनेवाला होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि -
भाषार्थ
(अग्ने) हे परमेश्वराग्नि! (दिव्ये) दिव्य (सधस्थे ते) सहवास के स्थान में स्थित तेरे निमित्त (घृतम्) घृताहुतियां हों, (मनुः) प्रत्येक मनुष्य (अद्य) प्रतिदिन (त्वाम्) तुझे (घृतेन) घृताहुतियों द्वारा (समिन्धे) सम्यक् प्रकाशित करता है। (देवीः) दिव्यगुणों वाली (नप्त्यः) हमारी नाती-पुत्रियां (ते) तेरे लिये (घृतम्) घृताहुतियां (आ वहन्तु) प्राप्त कराएं (अग्ने) हे परमेश्वराग्नि! (गावः) गौएं (तुभ्यम्) तेरे लिये (घृतम्) घी (दुहृताम्) दुग्धरूप में प्रदान करें।
टिप्पणी
[दिव्य सधस्थ है हृदय। यह सहवास का स्थान है। हृदय में जीवात्मा तथा ईश्वर सहवास करते हैं, इकट्ठे रहते हैं। हवियों में श्रेष्ठ हवि है, घृत। घृत की आहुतियों द्वारा यज्ञिय अग्नि को प्रदीप्त कर, इस अग्नि में प्रविष्ट परमेश्वराग्नि प्रदीप्त करनी चाहिये। यथा "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः” (अथर्व० ४।३९।६)। घृताहुति के लिये गोघृत चाहिये, भैंस आदि का नहीं। मन्त्र में दैनिक अग्निहोत्र का वर्णन है]।
विषय
ईश्वर से बलों की याचना।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्ने ! प्रकाशस्वरूप आत्मन् ! (ते) तेरा (घृतम्) परम तेज (दिव्ये) दिव्य, तेजोमय या इन्द्रियों के (सधस्थे) सहस्थान इस शरीर में विद्यमान है। और (मनुः) मननशील मन या मननाभ्यासी साधक (त्वां) तुझको (घृतेन) तेजोरूप से ही (अद्य) सदा (सम्-इन्धे) भली प्रकार प्रकाशित करता है अर्थात् अपने भीतरी आत्मा में तेरे ज्योतिर्मय रूप को ही प्रज्वलित कर उसका साक्षात्कार करता है। (देवीः) दिव्यगुणों से सम्पन्न कान्तिमती (नप्त्यः) सम्बन्ध करने वाली, अर्थगामिनी ज्ञानेन्द्रियां (ते) तेरे लिए ही (घृतम्) ज्ञानमय घृत को (आवहन्तु) धारण करें। और हे (अग्ने) आत्मन् ! (गाव:) गमनशील इन्द्रियगण (तुभ्यम्) तेरे लिये ही (घृतम्) सुखरूप घृत को (दुहताम्) प्रदान करें। यज्ञाग्नि के पक्ष में स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ४, ५, ६ त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer to Agni
Meaning
Agni, let there be ghrta for divine yajnic service in the happy radiant hall and home. Let every man, brilliant and intelligent, light the fire in divine service, let our unfailing and divine daughters and grand daughters bring ghrta for service in yajna, and let cows yield abundant milk and ghrta in Agni-service.
Translation
O fire divine, may there be purified butter in-your-heavenly abode; a right-thinking man kindles you today with purified butter. May the never-letting down celestial waters bring purified butter for you. Let cows, O fire divine, yield purified butter for you.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.87.6AS PER THE BOOK
Translation
Let ghee be poured as oblation to fire in the place where men possessed of divine power reside, let the learned one inkindle this fire with ghee now, let the never-falling progeny bring ghee for this fire and let cows pour butter forth for it.
Translation
O soul, thy lustre is present in this beautiful body. A reflective sage always illumines thee with knowledge. May the excellent organs of cognition acquire knowledge for thee. O soul, let organs of action lend thee knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(घृतम्) घृ सेके दीप्तौ च-क्त। दीप्तिः (ते) तव (अग्ने) सर्वज्ञ परमेश्वर (दिव्ये) विचित्रे कारणे (सधस्थे) सहस्थितिशीले कार्यरूपे संसारे (घृतेन) प्रकाशेन (त्वाम्) (मनुः) मननशीलः पुरुषः (अद्य) इदानीम् (सम्) सम्यक् (इन्धे) ञिइन्धी दीप्तौ, ण्यर्थः। दीपयति। विज्ञापयति (घृतम्) ज्ञानप्रकाशम् (ते) तव (देवीः) उत्तमगुणयुक्ताः (नप्त्यः) नप्तृनेष्टृत्वष्टृ०। उ० २।९५। नञ्+पत्लृ गतौ-तृच्, ङीप्, छान्दसं रूपम्। न पततीति नप्त्री। नप्त्र्यः। न पतनशीलाः प्रजाः (आ) अभिमुखम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (घृतम्) (तुभ्यम्) म० ३। तव (दुह्रताम्) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुडागमः। दुह्रताम्। प्रपूरयन्त (गावः) वेदवाचः−(अग्ने) हे सर्वव्यापक ॥
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