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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - क्षत्रभृदग्नि सूक्त
    42

    मृ॒गो न॑ भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त्पर॑स्याः। सृ॒कं सं॒शाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न्ताढि॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒ग: । न । भी॒म: । कु॒च॒र: । गि॒रि॒ऽस्था: । प॒रा॒ऽवत॑: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् । पर॑स्या: । सृ॒कम् । स॒म्ऽशाय॑ । प॒विम् । इ॒न्द्र॒ । ति॒ग्मम् । वि । शत्रू॑न् । ता॒ढि॒ । वि । मृध॑: । नु॒द॒स्व॒ ॥८९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगम्यात्परस्याः। सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून्ताढि वि मृधो नुदस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृग: । न । भीम: । कुचर: । गिरिऽस्था: । पराऽवत: । आ । जगम्यात् । परस्या: । सृकम् । सम्ऽशाय । पविम् । इन्द्र । तिग्मम् । वि । शत्रून् । ताढि । वि । मृध: । नुदस्व ॥८९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (भीमः) भयानक (कुचरः) टेढ़े चलनेवाले [ऊँचे-नीचे, दायें-बायें जानेवाले] (गिरिष्ठाः) पहाड़ों पर रहनेवाले (मृगः न) [आखेट ढूँढ़नेवाले] सिंह आदि के समान आप (परावतः) समीप देश और (परस्याः) दूर दिशा से (आ जगम्यात्) आते रहें। (तिग्मम्) उत्साहवाले (सृकम्) बाण और (पविम्) वज्र को (संशाय) तीक्ष्ण करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि) विशेष कर (ताढि) ताड़ना कर और (मृधः) हिंसकों को (वि नुदस्व) निकाल दे ॥३॥

    भावार्थ

    राजा सिंह के समान पराक्रमी होकर शस्त्र-अस्त्रों को तीक्ष्ण करके शत्रुओं को जीत प्रजा को सुखी रक्खे ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१८–०।२। और यजु० १८।७१। इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अथर्व० ७।२६।२ ॥

    टिप्पणी

    ३−(सृकम्) सृवृभू०। उ० ३।४१। सृ गतौ-कक्। बाणम् (संशाय) शो तनूकरणे−ल्यप्। तीक्ष्णीकृत्य (पविम्) वज्रम्-निघ० २।२०। (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (तिग्मम्) अ० ४।२७।७। तिग्मं तेजतेरुत्साहकर्मणः-निघ० १०।६। उत्साहवन्तम् (वि) विशेषेण (ताढि) तड आघाते-लोट्। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।१—१७। हेरार्धधातुकत्वाद् णिलोपः। ताडय (वि) विविधम् (मृधः) हिंसकान् (नुदस्व) प्रेरय। अन्यद् गतम्-अ० ७।२६।२ ॥

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    विषय

    मृगः, न भीमः

    पदार्थ

    १. वे इन्द्र (मृग:) = अन्वेषणीय हैं, उपासक 'योग' द्वारा प्रभु को हृदय में देखने का प्रयत्न करते हैं। (न भीम:) = वे प्रभु भयंकर नहीं हैं। (कचर:) = सर्वत्र प्रथिवी पर विचरण करनेवाले हैं [क्वायं न चरतीति वा] अथवा कहाँ नहीं हैं, अर्थात् सर्वत्र हैं, (गिरिष्ठा:) = वेदवाणियों में स्थित हैं, (परस्याः परावतः) = अतिशयेन दूर लोक से भी (आजगम्यात्) = हमें प्राप्त होते है। २. हे प्रभो! (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक! आप (सूकम्) = सरणशील (तिग्मम्) = तीव्र (पविम्) = बज को (संशाय) = सम्यक् तीक्ष्ण कीजिए। (शत्रून् विताढि) = उस वज्र से शत्रुओं का ताड़न कीजिए और (मृधः विनुदस्व) = संग्रामोद्युक्त-युयुत्सु अन्य शत्रुओं को भी विशेषरूप से दूर प्रेरित कीजिए।

    भावार्थ

    प्रभु 'अन्वेषणीय, प्रिय, सर्वव्यापक व वेदप्रतिपाद्य' हैं। वे प्रभु हमें प्राप्त हों और हमारे शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाले हों। __ शत्रुओं को नष्ट करके स्थिरवृत्तिवाला यह उपासक 'अथर्वा' बनता है। यह अथर्वा अगले तीन सूक्तों का ऋषि है

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    भाषार्थ

    (मृगः न) सिंह के सदृश (भीमः) भयङ्कर (कुचरः) पृथिवी पर विचरने वाला, (गिरिष्ठाः) तथा पर्वतों पर जाकर स्थित होने वाला सम्राट् (परस्याः परावतः) दूर से भी दूर के स्थान से (आजगम्यात्) सम्राट् पद के लिये आ जाय। (इन्द्र) हे सम्राट् ! (सृकम्) सरणशील, (तिग्मम्, पविम्) तीक्ष्ण वज्र को (संशाय) सम्यक्-तीक्ष्ण कर के (शत्रून्) शत्रुओं पर (विताढि) प्रहार कर, और (मृधः) संग्रामकारियों को (विनुदस्व) साम्राज्य से परे धकेल।

    टिप्पणी

    [पविः वज्रनाम (निघं० २।२०)। ताढि वचकर्मा (निघं० २‌।१९)। तड आघाते (चुरादिः)। अभिप्राय यह कि सम्राट् पद के लिये योग्य व्यक्ति, चाहे कहीं भी रहता हो, उसे स्वीकृत करना चाहिये]।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (भीमः) भयंकर (गिरि-स्थाः) पर्वत निवासी (मृगः न) पशु, सिह जिस प्रकार वीरता से अपने शिकार पर टूटता है, उसी प्रकार इन्द्र शत्रुओं पर (परस्याः परावतः) दूरसे भी दूर से (आ जगम्यात्) आ टूटता है। हे (इन्द्र) राजन् ! तू अपने (सृकं) दूर तक जाने वाले, प्रसरणशील (पविम्) वज्र को (सं-शाय) खूब तीक्ष्ण करके उस (तिग्मं) तीक्ष्ण शस्त्र से (शत्रून्) शत्रुओं को (वि ताढि) खूब अच्छी तरह मार और (मृधः) संग्राम कारी लोगों का (वि नुदस्व) विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। १ जातवेदा अग्निर्देवता। २, ३ इन्द्रो देवता। त्रिष्टुप। जगती। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Ruler

    Meaning

    Like a terrible tiger roaming around at will over the mountains, may the ruler come from farthest of the far distances. O mighty ruler, Indra, having sharpened the flaming arrow and blazing bolt, beat off the enemies and throw out the violent adversaries.

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    Translation

    Like a terrible and wild beast of mountains coming to attack from a distant place, whetting your sharp-cutting bolt, O army-chief, may you attack the enemies furiously and drive them away from the battle (never to return). (Also Yv. XVIII.71; Rg. X.180.2)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.89.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    O King! you approach your subject from the farthest distance like a fierce wild beast roaming on the ground and mountain. O mightily one! you, whetting your deadly weapon and blade crush down the foes and scatter them who hate.

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    Translation

    O King, like a dreadful, wild tiger roaming in the mountains with a crooked pace, thou attackest the foe from the farthest distance. Whetting thy bolt and thy sharp arrow, O King, crush down our foes, and destroy those who want to attack us.

    Footnote

    See Yajur, 18-71.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सृकम्) सृवृभू०। उ० ३।४१। सृ गतौ-कक्। बाणम् (संशाय) शो तनूकरणे−ल्यप्। तीक्ष्णीकृत्य (पविम्) वज्रम्-निघ० २।२०। (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (तिग्मम्) अ० ४।२७।७। तिग्मं तेजतेरुत्साहकर्मणः-निघ० १०।६। उत्साहवन्तम् (वि) विशेषेण (ताढि) तड आघाते-लोट्। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।१—१७। हेरार्धधातुकत्वाद् णिलोपः। ताडय (वि) विविधम् (मृधः) हिंसकान् (नुदस्व) प्रेरय। अन्यद् गतम्-अ० ७।२६।२ ॥

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