अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त
55
व॒यं तद॑स्य॒ सम्भृ॑तं॒ वस्विन्द्रे॑ण॒ वि भ॑जामहै। म्ला॒पया॑मि भ्र॒जः शि॒भ्रं वरु॑णस्य व्र॒तेन॑ ते ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । तत् । अ॒स्य॒ । सम्ऽभृ॑तम् । वसु॑ । इन्द्रे॑ण । वि । भ॒जा॒म॒है॒ । म्ला॒पया॑मि । भ्र॒ज: । शि॒भ्रम् । वरु॑णस्य । व्र॒तेन॑ । ते॒ ॥९५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं तदस्य सम्भृतं वस्विन्द्रेण वि भजामहै। म्लापयामि भ्रजः शिभ्रं वरुणस्य व्रतेन ते ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । तत् । अस्य । सम्ऽभृतम् । वसु । इन्द्रेण । वि । भजामहै । म्लापयामि । भ्रज: । शिभ्रम् । वरुणस्य । व्रतेन । ते ॥९५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(वयम्) हम लोग (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले राजा के साथ (अस्य) इस [शत्रु] के (संभृतम्) एकत्र किये हुए (तत्) उस (वसु) धन को (वि भजामहै) बाँट लेवें। [हे शत्रु !] (वरुणस्य) शत्रुनिवारक राजा की (व्रतेन) व्यवस्था से (ते) तेरी (भ्रजः) तमक और (शिभ्रम्) ढिठाई को (म्लापयामि) मैं मेटता हूँ ॥२॥
भावार्थ
राजा और राजपुरुष यथान्याय शत्रु को धनदण्ड आदि देकर निर्बल करदें ॥२॥
टिप्पणी
२−(वयम्) धार्मिकाः (तत्) (अस्य) शत्रोः (संभृतम्) संगृहीतम् (वसु) धनम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता राज्ञा सह (वि भजामहै) विभक्तं करवामहै (म्लापयामि) म्लै हर्षक्षये, ण्यन्तात् पुगागमः। नाशयामि (भ्रजः) टुभ्राजृ दीप्तौ-असुन्, ह्रस्वः। दीपनम् (शिभ्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शीभृ कत्थने-रक्, ह्रस्वः। आत्मश्लाघाम् (वरुणस्य) शत्रुनिवारकस्य राज्ञः (व्रतेन) धर्मणा व्यवस्थया (ते) तव ॥
विषय
दास के वसु का विभाजन
पदार्थ
१. (अस्य) = इस पुरोवर्ती शत्रुभूत जार के (संभृतं तत् वसु) = एकत्र किये हुए उस धन को (वयम्) = हम (इन्द्रेण विभजामहै) = शत्रुविद्रावक राजा के साथ विभक्त करते हैं। इस धन का एकभाग राजकोष को जाता है और दूसरा भाग जार से पीड़ित परिवार को प्राप्त होता है। २. हे जार! (ते) = तेरे (भज:) = दीप्त तेज को तथा (शिभम्) = [शीभृ कत्थने] आत्मश्लाषा को, (वरुणस्य व्रतेन) = पाप-निवारक देव के कर्म से-पापों को रोकनेवाले राजा की शासनव्यवस्था से (म्लापयामि) = क्षीण करता हूँ।
भावार्थ
राजा जार के धन का अपहरण करके आधा राजकोश में तथा आधा पीड़ित परिवार की सहायता के लिए दे दे। वह उचित दण्ड के द्वारा इस जार के तेज व घमण्ड को नष्ट करनेवाला हो।
भाषार्थ
(अस्य) इस व्यभिचारी के (तत्) उस (सम्भृतम्) एकत्रित किये (वसु) धन को (इन्द्रेण) सम्राट की आज्ञानुसार (वयम्) हम (विभजामहै) विभक्त कर लेते हैं। (ते) हे व्यभिचारिन् ! तेरे (शिभ्रम्= शुभ्रम्) शुक्ल, (भ्रजः) दीप्त वीर्य को (वरुणस्य) राष्ट्रपति के (व्रतेन) नियमानुसार (म्लापयामि) हर्षक्षयकारी कर देता हूं।
टिप्पणी
["इन्द्रेण, वरुणस्य" – "इन्द्रश्च सम्राद् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। इन्द्र है साम्राज्याधिपति१ और वरुण है साम्राज्य के अङ्गभूत राष्ट्र का अधिपति। "लिङ्गच्छेद तथा धन का विभाग" सम्राट् तथा जिस राष्ट्र का निवासी वह व्यभिचारी है उस राष्ट्र के अधिपति- इन दोनों के निर्णय के अनुसार होना चाहिये। म्लापयामसि= म्लै हर्षक्षये (भ्वादिः)। वीर्य और लिङ्ग के अभाव में भोगजन्य हर्ष प्राप्त नहीं हो सकता]।[१. साम्राज्य है “संयुक्त राज्य", जिस में कई राष्ट्र स्वेच्छापूर्वक संमिलित होते हैं। राष्ट्राधिपति को "वरुण" कहते हैं, जो कि निज राष्ट्र की प्रजा द्वारा निर्वाचित होता है। व्रियते इति वरुणः।]
विषय
नीच पुरुषों का दमन।
भावार्थ
(वयम्) हम राष्ट्रवासी प्रजाजन (अस्य) इस दुष्ट पुरुष के (सं-भृतम्) इकट्ठे किये (वसु) धन को (इन्द्रेण) राजा के साथ मिलकर (वि भजामहे) विशेष रूप से बांट लें। हे दुष्ट पुरुष ! मैं (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ राजा की (व्रतेन) बनाई शासन व्यवस्था के अनुसार (ते) तेरी (भ्रजः) चमचमाती धन सम्पत्ति के (शिभ्रम्) गर्व को अभी (म्लापयामि) विनष्ट किये देता हूँ। जों दुष्ट पुरुष अपने धन के गर्व से दूसरों पर अत्याचार करे और औरों के परिवारों की इज्जत ले, राजा, अपने कानून से, उसका धन हर ले उसकी सम्पत्ति का एक भाग राजा अपने कोष में ले और एक भाग समाज के हितकारी कार्य में लगाये।
टिप्पणी
‘वस्विन्द्रेण वि भजेमहि नभन्तामन्यके समे’ इति विशिष्टः पाठभेदः ऋ०। प्रथमद्वितीययोर्ऋचो ऋग्वेदे नाभाकः काण्व ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः देवताः। १ गायत्री। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ३ त्र्यवसाना षट्पदा भुरिग् जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Root out Violence
Meaning
We freeze and confiscate the collected strength of money and materials of the destroyer by the order of the ruler. O violent saboteur and destroyer, by the law of social justice we eliminate the fire of your passion and power.
Translation
With the aid of the resplendent Lord, may we divide the accumulated treasure of that infidel among us. With the ordinances of the ordainer (venerable) Lord (i.e., by the vrata of Varnua), I make languid, or dull the strength of your male organ (Sepah).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.95.2AS PER THE BOOK
Translation
Let us with the help of the king divide among us the treasure accumulated by the foe, I bring down your pride and glamour O enemy! by the law of Varuna, the powerful King.
Translation
May we divide the gathered treasure of the foe with the help of the king. I bring down thy pride and wantonness according to the administrative law of the king.
Footnote
The confiscated wealth of the enemy should go to the state treasury, to be spent for the social, moral and physical uplift of the subjects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(वयम्) धार्मिकाः (तत्) (अस्य) शत्रोः (संभृतम्) संगृहीतम् (वसु) धनम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता राज्ञा सह (वि भजामहै) विभक्तं करवामहै (म्लापयामि) म्लै हर्षक्षये, ण्यन्तात् पुगागमः। नाशयामि (भ्रजः) टुभ्राजृ दीप्तौ-असुन्, ह्रस्वः। दीपनम् (शिभ्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शीभृ कत्थने-रक्, ह्रस्वः। आत्मश्लाघाम् (वरुणस्य) शत्रुनिवारकस्य राज्ञः (व्रतेन) धर्मणा व्यवस्थया (ते) तव ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal