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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कपिञ्जलः देवता - गृध्रौ छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    60

    आ॑तो॒दिनौ॑ नितो॒दिना॒वथो॑ संतो॒दिना॑वु॒त। अपि॑ नह्याम्यस्य॒ मेढ्रं॒ य इ॒तः स्त्री पुमा॑ञ्ज॒भार॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽतो॒दिनौ॑ । नि॒ऽतो॒दिनौ॑ । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽतो॒दिनौ॑ । उ॒त । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒। अ॒स्य॒ । मेढ्र॑म् । य: । इ॒त: । स्त्री । पुमा॑न् । ज॒भार॑ ॥१००.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत। अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इतः स्त्री पुमाञ्जभार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽतोदिनौ । निऽतोदिनौ । अथो इति । सम्ऽतोदिनौ । उत । अपि । नह्यामि। अस्य । मेढ्रम् । य: । इत: । स्त्री । पुमान् । जभार ॥१००.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    काम और क्रोध के निवारण का उपदेश।

    पदार्थ

    (अथो) और भी (आतोदिनौ) दोनों सब ओर से सतानेवालों, (नितोदिनौ) नित्य सतानेवालों, (उत) और (संतोदिनौ) मिलकर सतानेवालों को (इतः) यहाँ पर [हमारे बीच] (यः) जिस किसी (स्त्री) स्त्री [वा] (पुमान्) पुरुष ने (जभार) स्वीकार किया है, (अस्य) उसके (मेढ्रम्) सेचनसामर्थ्य [वृद्धि शक्ति] को (अपि) सर्वथा (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष काम क्रोध में फँस जाते हैं, वे अनेक पापबन्धनों में पड़कर शक्तिहीन और वृद्धिहीन होकर कष्ट भोगते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(आतोदिनौ) तुद व्यथने-णिनि। सर्वतो व्यथनशीलौ (नितोदिनौ) नितरां व्यथयन्तौ (अथो) अनन्तरम् (सन्तोदिनौ) सम्भूय व्यथाकारिणौ (उत) अपि (अपि) सर्वथा (नह्यामि) बध्नामि (अस्य) (प्राणिनः) (मेढ्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। मिह सेचने-ष्ट्रन्। सेचनसामर्थ्यम्। वृद्धिशक्तिम् (यः) कश्चित् (इतः) अत्र। अस्मासु (स्त्री) (पुमान्) पुरुषः (जभार) हृञ् स्वीकारे। जहार। स्वीकृतवान् ॥

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    विषय

    आतोदिनौ संतोदिनौ

    पदार्थ

    १. ये काम-क्रोध (आतोदिनौ) = सर्वत: व्यथा प्राप्त करानेवाले हैं, (नितोदिनौ) = निश्चय से पीड़ित करनेवाले हैं (उत अथो) = और अब (संतोदिनौ) = मिलकर खुब ही कष्ट देनेवाले हैं। २. इन काम-क्रोध में (य:) = जो भी (इत:) = इधर हृदयदेश में (स्त्री पुमान् जभार) = [स्त्रियं पुमांसं वा] स्त्री या पुरुष को प्रहत करता है [जहार प्रहृतवान्] तो मैं इस काम-क्रोध के (मेड्रम्) = [मिह सेचने] सेचन को (अपि नह्यामि) = बद्ध करता हूँ। काम-क्रोध के सेचन को रोककर ही हम अपनी पीड़ाओं को दूर कर सकते हैं। नियमन किये गये काम-क्रोध पीड़ाकर नहीं होते।

    भावार्थ

    उच्छल रूप में काम-क्रोध हमारे हृदय पर आघात करके निश्चय से खुब ही पीड़ा पहुँचाते हैं। इनके सेचन का नियमन आवश्यक है। वशीभूत काम-क्रोध ही ठीक हैं।

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    भाषार्थ

    लोभ मोह (आतोदिनौ) पूर्णतया व्यथादाई हैं। (अथो) और (नितौदिनौ) नितराम् व्यथा दाई हैं। (उत) और (संतोदिनौ) ये दोनों मिल कर, या सम्यक् रूप में व्यथादाई हैं। (यः पुमान्) जिस पुमान् ने (इतः) यहाँ से [अर्थात् इस राष्ट्र में] (स्त्री= स्त्रीम्, स्त्रियम्) स्त्री का (जभार) अपहरण किया है, (अस्य) इसके (मेढ्रम्) लिङ्ग को (अपि) भी (नह्यामि) मैं राजा बान्ध देता हूं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "अस्य, यः, मेढ्रम्" पदों द्वारा पुमान् ही अपराधी है अतः उसे ही लिङ्ग-बन्धनरूपी दण्ड मिला है। अतः “स्त्री" पद "जहार" क्रिया का “कर्म" होना चाहिये। स्त्रीपद में "अम्" रूपी सुप् का छान्दसलोप है। स्त्रीसंभोगकामना, लिङ्गेन्द्रिय सम्बन्धी प्रातिस्विक लोभ है। प्रत्येक इन्द्रिय सम्बन्धी प्रातिस्विक लोभ पृथक्-पृथक् है]।

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    विषय

    जीव के आत्मा और मनकी ऊर्ध्वगति।

    भावार्थ

    ये दोनों मरण काल में शरीर से निकलते समय इस शरीर में (आ-तोदिनौ) सर्वत्र व्यथा उत्पन्न करते हैं, (नि-तौदिनौ) खूब ही तीव्र वेदना उत्पन्न करते हैं, (नि-तौदिनौ) समस्त अंगों में व्यथा उत्पन्न किया करते हैं। (यः) जो भी जीव (स्त्री) चाहे वह स्त्री हो और (पुमान्) चाहे वह पुरुष हो तो भी (इतः) इस लोक से (जभार*) दूसरे लोक में जाता है। मैं मृत्यु रूप व्यवस्थापक ईश्वर (अस्य) इस शरीरधारी प्राणी के (मेढम्) लिंग भाग को (अपि नह्यामिम) बांध देता हूं। मरणासन्न जीव को जीवन के अन्तिम समय मूत्र नहीं आता। ‘तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवतः इदं च परलोकस्थानं च। सान्ध्यं तृतीयं स्थानं तस्मिन् सन्ध्ये स्थाने पश्यति’ इत्यादि बृहदारण्यक उप० ४। ३। ९॥ कौशिक सूत्रकार ने मण्डूक का शिर काटने इस मन्त्र का विनियोग किया है। ठीक है। मनोविज्ञान और जीवनविज्ञान के जानने के लिये मेंडक का सिर काट कर नाड़ी और प्राणों की गति के उत्तम निरीक्षण करने की विधि वर्तमान के वैज्ञानिकों के अनुसार प्राचीन काल में भी थी। जिसको सायणादि ने नहीं समझा।

    टिप्पणी

    *हृ गतौ इत्यस्य ‘जभार’ गच्छामीत्यर्थः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कपिञ्जल ऋषिः। गृध्रौ देवते। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vultures of the Mind

    Meaning

    Both these are afflictive, constantly stinging, relentlessly piercing. Whoever the man or woman that bears this energy of love and passion, I control their passion to balance and bind them together to move on.

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    Translation

    These two, tormenting all over, tormenting downwards and tormenting all together, I bind the male organ of that him who, a man, has abducted a maiden from here.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.100.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    Like two things that thrust, like two things that pierce and like two things that strike mutual blows I bind the flowing energy of the man or woman who Possess it.

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    Translation

    I control lust and anger, that thrust, that pierce, that strike with mutual blows. I make the man or dame who shelters them lose all vitality and vigor.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(आतोदिनौ) तुद व्यथने-णिनि। सर्वतो व्यथनशीलौ (नितोदिनौ) नितरां व्यथयन्तौ (अथो) अनन्तरम् (सन्तोदिनौ) सम्भूय व्यथाकारिणौ (उत) अपि (अपि) सर्वथा (नह्यामि) बध्नामि (अस्य) (प्राणिनः) (मेढ्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। मिह सेचने-ष्ट्रन्। सेचनसामर्थ्यम्। वृद्धिशक्तिम् (यः) कश्चित् (इतः) अत्र। अस्मासु (स्त्री) (पुमान्) पुरुषः (जभार) हृञ् स्वीकारे। जहार। स्वीकृतवान् ॥

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