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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    49

    शि॒वे ते॑ स्तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑संता॒पे अ॑भि॒श्रियौ॑। शं ते॒ सूर्य॒ आ त॑पतु॒ शं वातो॑ वातु ते हृ॒दे। शि॒वा अ॒भि क्ष॑रन्तु॒ त्वापो॑ दि॒व्याः पय॑स्वतीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श‍ि॒वे इति॑ । ते॒ । स्ता॒म् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒सं॒ता॒पे इत्य॑स॒म्ऽता॒पे । अ॒भि॒ऽश्रियौ॑ । शम् । ते॒ । सूर्य॑: । आ । त॒प॒तु॒ । शम् । वात॑: । वा॒तु॒ । ते॒ । हृ॒दे । शि॒वा: । अ॒भि । क्ष॒र॒न्तु॒ । त्वा॒ । आप॑: । द‍ि॒व्या: । पय॑स्वती: ॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ। शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते हृदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श‍िवे इति । ते । स्ताम् । द्यावापृथिवी इति । असंतापे इत्यसम्ऽतापे । अभिऽश्रियौ । शम् । ते । सूर्य: । आ । तपतु । शम् । वात: । वातु । ते । हृदे । शिवा: । अभि । क्षरन्तु । त्वा । आप: । द‍िव्या: । पयस्वती: ॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी (शिवे) मङ्गलकारी, (असन्तापे) सन्तापरहित और (अभिश्रियौ) सब ओर से ऐश्वर्यप्रद (स्ताम्) होवें। (सूर्यः) सूर्य (ते) तेरे लिये (शम्) शान्ति से (आ तपतु) तपता रहे, और (वातः) पवन (ते) तेरे (हृदे) हृदय के लिये (शम्) शान्ति से (वातु) चले। (शिवाः) मङ्गलकारी, (दिव्याः) दिव्य गुणवाले, (पयस्वतीः) दूध [उत्तम रस] वाले (आपः) जल (त्वा अभि) तेरे लिये (क्षरन्तु) बहें ॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्य आकाश पृथिवी आदि पदार्थों से यथावत् उपकार लेकर सुख प्राप्त करें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(शिवे) कल्याणकारिण्यौ (ते) तुभ्यम् (स्ताम्) भवताम् (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (असन्तापे) सन्तापरहिते (अभिश्रियौ) अभितः सर्वतः श्रीर्लक्ष्मीर्याभ्यां ते। अभिश्रीप्रदे (शम्) यथा तथा सुखम् (ते) त्वदर्थम् (सूर्यः) आदित्यः (आ तपतु) प्रकाशयतु (शम्) सुखम् (वातः) वायुः (वातु) वहतु (ते) तव (हृदे) हृदयाय (शिवाः) मङ्गलकारिण्यः (अभि) प्रति (क्षरन्तु) स्रवन्तु (त्वा) त्वाम् (आपः) जलानि (दिव्याः) उत्तमगुणाः (पयस्वतीः) पयसा दुग्धेन श्रेष्ठरसेन युक्ताः ॥

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    विषय

    सब देवों की अनुकूलता

    पदार्थ

    १.(ते) = तेरे लिए (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (शिवे) = कल्याकारी, (असन्तापे) = सन्ताप को दूर करनेवाले व (अभिश्रियौ) = तुझे मस्तिष्क व शरीर में भी श्री प्राप्त करानेवाले (स्ताम्) = हों। (सूर्य:) = सूर्य भी (ते) = तेरे लिए (शं आतपतु) = शान्तिकर होकर तपे। (वात:) = वायु भी (हृदे) = तेरे हृदय के लिए (शं वातु) = शान्तिकर होकर बहे । २. (त्वा) = तेरे प्रति (दिव्या:) = धुलोक में होनेवाले (पयस्वती:) = प्रशस्त आप्यायन शक्तियों से युक्त (आप:) = जल (शिवा: अभिक्षरन्तु) = कल्याणकर होकर क्षरित हों-बहें।

    भावार्थ

    सब बाह्य जगत् हमारे लिए अनुकूलतावाला हो, जिससे हम स्वस्थ रहते हुए निरन्तर आगे बढ़ पाएँ।

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    भाषार्थ

    (अभिश्रियो) शोभा और सम्पत्तियों को प्राप्त हुए (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी (ते) तेरे लिये (शिवे) कल्याणकारी (स्ताम्) हों; (असन्तापे) [और सम्पत्ति प्रदान कर तेरे लिये] मानसिक-सन्ताप अर्थात् चिन्ता को हटाने वाले हों। (ते) तेरे लिये (सूर्य) सूर्य (शम्) सुख-शान्ति पूर्वक (आतपतु) सदा तपे, (ते) तेरे (हृदे) हृदय के लिये (वातः) वायु (शम्) सुख-शान्ति (वातु) प्रवाहित करे। (दिव्याः) दिव्य तथा (पयस्वतीः) स्वादिष्ट, मधुर (आपः) जल (त्वा अभि) तेरे प्रति, (शिवाः) कल्याणकारी हुए (क्षरन्तु) क्षारित हों, प्रस्रवित हों।

    टिप्पणी

    [अभिश्रियो= अभिप्राप्तश्रियौ, सम्पत्तियों वाले, सम्पत्तियों के कारणभूत तथा शोभायुक्त। असंतापे= सम्पत्ति के अभाव में मानसिक संताप अर्थात् चिन्ता रहती है। द्यावापृथिवी संपत्ति प्रदान कर तुझे सन्ताप से मुक्त करें]।

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    विषय

    दीर्घ जीवन का उपदेश।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! (ते) तेरे लिये (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, (अभिश्रियौ) सब सरफ से शोभायमान या सब तरफ से आश्रय देनेवाली, (असन्तापे) संताप, क्लेश से रहित, सुखकारी, (शिवे) शुभ कल्याणकारी (स्ताम्) हो। हे पुरुष ! (ते) तेरे लिये (सूर्यः) सूर्य (शम्) कल्याण, सुखकारीरूप में (आ तपतु) तपे, प्रकाशित हो, और पृथ्वी को संतप्त करे। और (ते हृदे) तेरे हृदय के अनुकूल (वातः) वायु भी (शम्) कल्याण और सुखकारी होकर (वातु) बहे। (शिवाः) शुभ, सुखकारी, (दिव्याः) आकाश से उत्पन्न, दिव्य, गुणकारी, (पयस्वतीः) पुष्टिकारक अन्नों से समृद्ध (आपः) वर्षा की जलधाराएँ (त्वा) तेरे देश के प्रति (अभि क्षरन्तु) सब ओर से आवें भूमि पर पड़ें और भूमियों को सींचें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, २, ७ भुरिजः। ३, २६ आस्तार पंक्तिः, ४ प्रस्तार पंक्तिः, ६,१५ पथ्या पंक्तिः। ८ पुरस्ताज्ज्योतिष्मती जगती। ९ पञ्चपदा जगती। ११ विष्टारपंक्तिः। १२, २२, २८ पुरस्ताद् बृहत्यः। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १९ उपरिष्टाद् बृहती। २१ सतः पंक्तिः। ५,१०,१६-१८, २०, २३-२५,२७ अनुष्टुभः। १७ त्रिपाद्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    May the earth and heaven, both unafflictive and inoppressive, be kind and gracious to you. May the sun shine with peace and prosperity on you. May the winds blow for peace and pleasure of your heart. May the rain showers, divine and generous, bring you peace and plenty.

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    Translation

    May heaven and earth be propitious to you, free from suffering and full of splendour. May the sun shine hot to your joy and happiness. May the wind blow happiness in your heart. May the celestial waters, full of milk, flow graciously to you.

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    Translation

    Let the heaven and the earth causing no trouble and bringing pleasure be auspicious for you, O man! Let the sun shine pleasantly and let the wind blow sweetly to your heart. Let the celestial waters possessing sweetness be auspicious for you.

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    Translation

    Gracious to thee be Heaven and Earth, bringing no grief, and bestowing wealth! Pleasantly shine the sun for thee, the Wind blow sweetly to thy heart! Let the celestial Waters full of sweetness like milk flow happily for thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(शिवे) कल्याणकारिण्यौ (ते) तुभ्यम् (स्ताम्) भवताम् (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (असन्तापे) सन्तापरहिते (अभिश्रियौ) अभितः सर्वतः श्रीर्लक्ष्मीर्याभ्यां ते। अभिश्रीप्रदे (शम्) यथा तथा सुखम् (ते) त्वदर्थम् (सूर्यः) आदित्यः (आ तपतु) प्रकाशयतु (शम्) सुखम् (वातः) वायुः (वातु) वहतु (ते) तव (हृदे) हृदयाय (शिवाः) मङ्गलकारिण्यः (अभि) प्रति (क्षरन्तु) स्रवन्तु (त्वा) त्वाम् (आपः) जलानि (दिव्याः) उत्तमगुणाः (पयस्वतीः) पयसा दुग्धेन श्रेष्ठरसेन युक्ताः ॥

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