ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 26
विश्वं॒ पश्य॑न्तो बिभृथा त॒नूष्वा तेना॑ नो॒ अधि॑ वोचत । क्ष॒मा रपो॑ मरुत॒ आतु॑रस्य न॒ इष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑म् । पश्य॑न्तः । वि॒भृ॒थ॒ । त॒नूषु॑ । आ । तेन॑ । नः॒ । अधि॑ । वो॒च॒त॒ । क्ष॒मा । रपः॑ । म॒रु॒तः॒ । आतु॑रस्य । नः॒ । इष्क॑र्त । विऽह्रु॑तम् । पुन॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वं पश्यन्तो बिभृथा तनूष्वा तेना नो अधि वोचत । क्षमा रपो मरुत आतुरस्य न इष्कर्ता विह्रुतं पुन: ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम् । पश्यन्तः । विभृथ । तनूषु । आ । तेन । नः । अधि । वोचत । क्षमा । रपः । मरुतः । आतुरस्य । नः । इष्कर्त । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥ ८.२०.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
विषय - पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ -
(मरुतः) हे दुष्टजनसंहारको सैनिकजनों ! (विश्वम्) सम्पूर्ण औषधों को (पश्यन्तः) देखते और जानते हुए आप उन्हें लाकर (तनूषु) आपके शरीरस्वरूप हम लोगों में (आविभृथ) स्थापित कीजिये और (तेन) उससे (नः) हमको कर्त्तव्याकर्त्तव्य का (अधिवोचत) उपदेश देवें । अथवा उससे हम लोगों की चिकित्सा करें । हे सैनिकजनों ! हम लोगों में (आतुरस्य) जो आतुर अर्थात् रोगी हो, उसके (रपः) पापजनिक रोग की (क्षमा) शान्ति जैसे हो, सो आप करें और (विहुतम्) टूटे अङ्ग को (पुनः) फिर (इष्कर्त) अच्छी तरह पूर्ण कीजिये ॥२६ ॥
भावार्थ - चिकित्सा करना भी सैनिकजनों का एक महान् कर्त्तव्य है ॥२६ ॥
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