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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 26
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    विश्वं॒ पश्य॑न्तो बिभृथा त॒नूष्वा तेना॑ नो॒ अधि॑ वोचत । क्ष॒मा रपो॑ मरुत॒ आतु॑रस्य न॒ इष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑म् । पश्य॑न्तः । वि॒भृ॒थ॒ । त॒नूषु॑ । आ । तेन॑ । नः॒ । अधि॑ । वो॒च॒त॒ । क्ष॒मा । रपः॑ । म॒रु॒तः॒ । आतु॑रस्य । नः॒ । इष्क॑र्त । विऽह्रु॑तम् । पुन॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वं पश्यन्तो बिभृथा तनूष्वा तेना नो अधि वोचत । क्षमा रपो मरुत आतुरस्य न इष्कर्ता विह्रुतं पुन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वम् । पश्यन्तः । विभृथ । तनूषु । आ । तेन । नः । अधि । वोचत । क्षमा । रपः । मरुतः । आतुरस्य । नः । इष्कर्त । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥ ८.२०.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 26
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मरुतः) हे योद्धारः ! (विश्वम्) सर्वं पूर्वोक्तभेषजम् (पश्यन्तः) जानन्तः (तनूषु) शरीरेषु (आ, विभृथ) आहृत्य पुष्णीत (तेन) तेन भेषजेन (नः) अस्मान् (अधिवोचत) शिष्ट (आतुरस्य) रोगातुरस्य (रपः) रोगम् (क्षमा) अपनयत (नः) अस्माकं मध्ये (विह्रुतम्) विच्छिन्नम् (पुनः, इष्कर्त) पुनरपि संस्कुरुत ॥२६॥ इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिबद्धे ऋक्संहिताभाष्ये अष्टममण्डले षष्ठाष्टके प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे मरुतः ! विश्वम्=पूर्वोक्तं सर्वं भेषजं पश्यन्तो यूयम् । तनुषु=शरीरभूतेषु अस्मासु । आविभृथ=आनीय स्थापयत । तेन । नोऽस्मान् । अधिवोचत=उपदिशत । चिकित्सन्तु । अस्माकं मध्ये । आतुरस्य=रोगिणः । रपः=पापम् । पापजनितरोग इत्यर्थः । रपसः=पापस्य । येन । क्षमा=शान्तिर्भवेत् । तथा । विहुतम्=विबाधितमङ्गम् । पुनः । इष्कर्त=निःशेषेण सम्पूर्णं कुरुत । निसो नलोपश्छान्दसः ॥२६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मरुतः) हे योद्धाओ ! (विश्वम्) पूर्वोक्त सकल ओषधियों को (पश्यन्तः) देखते जानते हुए आप (तनूषु) शरीरों के हेतु (आ, विभृथ) लाकर इकट्ठी करें (तेन) उन औषधों से (नः) हमारे ऊपर (अधिवोचत) चिकित्सा का शासन करें (आतुरस्य) इस प्रकार रोगियों की (रपः) व्याधि को (क्षमा) शान्त करें और जो (नः) हम लोगों में (विह्रुतम्) विच्छिन्न हो गया हो, उसको (पुनः) फिर (इष्कर्त) पूर्ण करें ॥२६॥

    भावार्थ

    हे वीर योद्धाओ ! पूर्वोक्त स्थानों से प्राप्त ओषधियों को भले प्रकार जानते हुए हमारे शरीरों की चिकित्सा करें, विच्छिन्न अङ्गों को पूरा करें और शल्यों को भरकर हमें नीरोग करें ॥२६॥ तात्पर्य्य यह है कि वेद में शल्यचिकित्सा=सर्जरी का वर्णन स्पष्ट है, क्योंकि उक्त मन्त्र में “आतुर” तथा “विह्रुत” शब्द कटे तथा टूटे हुए अङ्ग-प्रत्यङ्ग के लिये आये हैं, जो शल्यचिकित्सा को भलीभाँति स्पष्ट करते हैं। इसी प्रकार वेदों में यथास्थान सब विद्याओं का वर्णन स्पष्ट है ॥२६॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे दुष्टजनसंहारको सैनिकजनों ! (विश्वम्) सम्पूर्ण औषधों को (पश्यन्तः) देखते और जानते हुए आप उन्हें लाकर (तनूषु) आपके शरीरस्वरूप हम लोगों में (आविभृथ) स्थापित कीजिये और (तेन) उससे (नः) हमको कर्त्तव्याकर्त्तव्य का (अधिवोचत) उपदेश देवें । अथवा उससे हम लोगों की चिकित्सा करें । हे सैनिकजनों ! हम लोगों में (आतुरस्य) जो आतुर अर्थात् रोगी हो, उसके (रपः) पापजनिक रोग की (क्षमा) शान्ति जैसे हो, सो आप करें और (विहुतम्) टूटे अङ्ग को (पुनः) फिर (इष्कर्त) अच्छी तरह पूर्ण कीजिये ॥२६ ॥

    भावार्थ

    चिकित्सा करना भी सैनिकजनों का एक महान् कर्त्तव्य है ॥२६ ॥

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    विषय

    देह में मरुद्गण प्राणगण।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! हे ( मरुतः ) प्राणवत् सुखकारी जनो ! आप लोग ( तनूषु ) शरीरों में ( विश्वं पश्यन्तः ) सब विश्व को ज्ञानपूर्वक देखते हुए ( विश्वं बिभृथ ) समस्त प्राणी वर्ग वा देह में आत्मा को धारण कराओ, सबको पुष्ट करो। ( तेन ) उसे ज्ञानपूर्वक देखें, विवेक से ( नः अधिवोचत ) हमें भी उपदेश करो। ( नः ) हममें से ( आतुरस्य ) व्याधिपीड़ित मनुष्य के ( रपः ) रोग वा दुःखदायी कारण की ( क्षमा ) शान्ति हो। और ( नः ) हमारे शरीरों में ( वि-ह्रुतम् ) विपरीत भाव से अङ्गों में कुटिल भाव आगत्य हो तो उसे ( पुनः इष्कर्त्ता) फिर से ठीक कर दो।

    टिप्पणी

    इति चत्वारिंशो वर्गः॥ इत्यष्टमे मण्डले तृतीयोऽनुवाकः॥ इति षष्ठेऽष्टके प्रथमोध्यायः समाप्तः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    रोगशमन

    पदार्थ

    [१] हे प्राणो ! आप (विश्वं पश्यन्तः) = हमारे सब अंगों का ध्यान करते हुए (तनूषु) = शरीरों में (आविभृथ) = समन्तात् सब शक्तियों का धारण करो । (तेन) = सब शक्तियों के धारण के द्वारा (नः) = हमारे लिये (अधिवोचत) = आधिक्येन ज्ञान का उपदेश करो। सब शक्तियों के ठीक होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ, मन व मस्तिष्क भी ठीक कार्य करेंगे और परिणामत: ज्ञानवृद्धि होगी ही। [२] हे (मरुतः) = प्राणो ! (आतुरस्य) = व्याधि पीड़ित अंग के (रपः) = दोष का (क्षमा) = [ क्षरन्तिः] शमन हो । और (नः) = हमारे (विहृतम्) = कुटिल हुए हुए अंग को (पुनः) = फिर (इष्कर्त) = [निःशेषेण सम्पूर्ण कुरुत ] सम्पूर्ण करनेवाले होवो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के होने पर प्राण शरीर के सब अंगों की शक्तियों को ठीक रखते हैं, हमारे ज्ञान का वर्धन करते हैं। रोग का शमन करते हैं। विकृत अंग को फिर से ठीक कर देते हैं। अगले सूक्त में 'सोभरि काण्व' इन्द्र का स्तवन करते हैं-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, you watch the world and all that it contains. You bear and bring all that knowledge and competence on your person, and with that pray, bless our physical body system and our body politic. By virtue of that knowledge and experience speak to us. O heroes of nature and humanity, cure the weakness, sin and suffering of our sick and restore to full health and efficiency whatever is broken and lost.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चिकित्सा करणे हे सैनिकांचे एक मोठे कर्तव्य आहे. ॥२६॥

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