ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वि द्वी॒पानि॒ पाप॑त॒न्तिष्ठ॑द्दु॒च्छुनो॒भे यु॑जन्त॒ रोद॑सी । प्र धन्वा॑न्यैरत शुभ्रखादयो॒ यदेज॑थ स्वभानवः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । द्वी॒पानि॑ । पाप॑तन् । तिष्ठ॑त् । दु॒च्छुना॑ । उ॒भे इति॑ । यु॒ज॒न्त॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । प्र । धन्वा॑नि । ऐ॒र॒त॒ । शु॒भ्र॒ऽखा॒द॒यः॒ । यत् । एज॑थ । स्व॒ऽभा॒न॒वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि द्वीपानि पापतन्तिष्ठद्दुच्छुनोभे युजन्त रोदसी । प्र धन्वान्यैरत शुभ्रखादयो यदेजथ स्वभानवः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । द्वीपानि । पापतन् । तिष्ठत् । दुच्छुना । उभे इति । युजन्त । रोदसी इति । प्र । धन्वानि । ऐरत । शुभ्रऽखादयः । यत् । एजथ । स्वऽभानवः ॥ ८.२०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ क्षात्रधर्मस्यानुष्ठानकर्तॄणां शक्तिर्वर्ण्यते।
पदार्थः
(शुभ्रखादयः) हे शोभनभक्षाः (स्वभानवः) स्वयंराजमाना मरुतः ! (यत्, एजथ) यूयं यदा चेष्टध्वे तदा (द्वीपानि) द्वीपप्रदेशाः (विपापतन्) विपद्यन्ते (तिष्ठत्) स्थावरं च (दुच्छुना) दुःखेन युज्यते (उभे, रोदसी) उभे द्यावापृथिव्यौ (युजन्त) योजयन्ति एकत्र (धन्वानि) यदा ते धनूँषि (प्रैरत) प्रगच्छन्ति ॥४॥
विषयः
सेनां वर्णयति ।
पदार्थः
हे शुभ्रखादयः=शुद्धभोजनाः शोभनायुधा वा । हे स्वभानवः=स्वप्रकाशाः स्वतन्त्राः सेनाजनाः । यूयम् । यद्=यदा । एजथ=कम्पयथ । तदा । द्वीपानि=द्वयोः पार्श्वयोरापो येषु तान्युदमध्यस्थलानि । विपापतन्=अत्यर्थं पतन्ति । तिष्ठत्=स्थावरम् । दुच्छुना=दुःखेन युज्यते । उभे रोदसी=द्यावापृथिव्यौ चापि । दुच्छुना युजन्त=युज्येते । धन्वानि गमनशीलान्युदकानि च प्रैरत=प्रगच्छन्ति=शुष्यन्ति ॥४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब क्षात्रधर्म के अनुष्ठानी योद्धाओं की शक्ति का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(शुभ्रखादयः) हे शोभन आहारवाले (स्वभानवः) स्वयंप्रकाशमान योद्धाओ ! (यत्, एजथ) जब आप चेष्टा करने में प्रवृत्त होते हैं और आपके (धन्वानि) धनुष (प्रैरत) इतस्ततः जाने लगते हैं, जब (द्वीपानि) सब द्वीपप्रदेश (विपापतन्) विपत्ति में फँस जाते हैं (तिष्ठत्) और स्थावर (दुच्छुना) दुःखमग्न हो जाते हैं (उभे, रोदसी) द्यौ और पृथिवीलोक (युजन्त) एक में मिलने लगते हैं ॥४॥
भावार्थ
हे सर्वत्रविख्यात योद्धाओ ! जब आपके धनुष की टंकार चहुँ ओर गूँजने लगती है, तब सब लोक-लोकान्तर विपत्तिग्रस्त हो जाते हैं अर्थात् स्वभावसिद्ध क्षात्रधर्मवाले योद्धाओं का प्रभाव द्युलोक तथा पृथिवीलोक में सर्वत्र परिपूर्ण हो जाता है, इसलिये प्रत्येक क्षत्रिय का कर्तव्य है कि वह प्रकृतिसिद्ध क्षात्रधर्म का अनुष्ठान करते हुए अपने को बलवान् बनावे ॥४॥
विषय
सेना का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
(शुभ्रखादयः) हे शुद्धभोजनो अथवा हे शोभनयुधो ! (स्वभानवः) हे स्वप्रकाश हे स्वतन्त्र ! (यद्) जब (एजथ) आप भयङ्कर मूर्ति धारण कर जगत् को कँपाते हैं, तब (द्वीपानि) द्वीप-द्वीपान्तर (वि+पापतन्) अत्यन्त गिरने लगते हैं । (तिष्ठत्) स्थावर वस्तु भी (दुच्छुना) दुःख से युक्त होती है (रोदसी+युजन्त) द्युलोक और पृथिवी भी दुःख से युक्त होती है (धन्वानि) जल-स्थल भी (प्रैरत) सूख जाते हैं ॥४ ॥
भावार्थ
राजसेनाएँ सदा प्रजाओं की रक्षा के लिये ही नियुक्त की जाती हैं, इसी काम में सदा धर्म पर वे तत्पर रहें ॥४ ॥
विषय
मरुतों अर्थात् वीरों, विद्वानों के कर्तव्य । वायु और जल लाने वाले वायु प्रवाहों के वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार वायुगण, (द्वीपानि वि पापतम् ) नाना द्वीपों में भ्रमण करते, ( उभे रोदसी ) आकाश और पृथ्वी दोनों को ( दुच्छुना ) दुःख से ही युक्त कर देते हैं। वे मरुद्गण आकाश पिण्डों को लपेट कर भूमि पर गिराते हैं और ( तिष्ठत् ) भूमिस्थ वृक्षों को (दुच्छुना) दुःखदायी पतनादि से युक्त करते हैं। और वे ( स्वभानवः ) अपनी कान्ति से युक्त ( शुभ्र-खादयः) शुभ्र दीप्ति वाले होकर ( धन्वानि ऐरत ) जलों को नीचे गिराते हैं इसी प्रकार हे विद्वानो और वीर पुरुषो ! आप लोग ( द्वीपानि वि पापतन् ) नाना द्वीपों को विजयादि कार्यों के लिये जाया आया करो। (उभे रोदसी) दोनों स्वपक्ष परपक्ष को ( दुच्छुना युजन्त ) दुःख, शोकादि से युक्त करते हैं। आप सब ( स्व-भानवः ) अपने धन की दीप्ति से युक्त और ( शुभ्र-खादयः ) स्वच्छ भोजन और स्वच्छ खड्गादि वाले, ( यत् एजथ: ) जब २ जाते हों तो ( धन्वानि ऐरत ) धनुषों को आगे बढ़ाओ और चलाओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शुभ्रखादयः- स्वभानवः
पदार्थ
[१] हे (शुभ्रखादयः प्रः) = चमकते हुए आयुधोंवाले, (स्वभानवः) = अपनी दीप्तिवाले, अर्थात् बिना वेश के स्वयं भी तेजस्विता से चमकनेवाले वीर सैनिको ! (यद्) = जब (एजथ) = आप हिलते हो, गतिमय होते हो तो (द्वीपानि विपापतन्) = द्वीप के द्वीप हिल उठते हैं। (तिष्ठत्) = सब स्थान वृक्ष आदि (दुच्छुना) = बुरी तरह से हिल जाते हैं [शन् To move]। ये सैनिक चलते हैं तो पृथिवी से उठी धूलि आकाश तक पहुँचती है। इस प्रकार ये सैनिक (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (युजन्त) = मिला-सा देते हैं। [२] हे सैनिको ! आप (धन्वानि) = इन मरुस्थलों को (प्र ऐरत) = प्रकर्षेण गतिवाला करते हो। मरुस्थल अपने रेत को कहीं का कहीं पहुँचा देते हैं। सारा रेगिस्तान कम्पित- सा हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ- दीप्त अस्त्रों से सुसज्जित, तेजस्विता से दीप्त सैनिक जब चलते हैं, तो सारा प्रदेश ही चल-सा पड़ता है, सब स्थावर चीजें हिल जाती हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
O self-refulgent Maruts, when you in your blazing armour stir and move, islands sink at their banks, the evil stand still, both heaven and earth shake and the deserts rage with flying sands.
मराठी (1)
भावार्थ
राजसेना सदैव प्रजेच्या रक्षणासाठीच नियुक्त केली जाते. या कामात असून ती धर्मात तत्पर असावी. ॥४॥
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