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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    सु॒भग॒: स व॑ ऊ॒तिष्वास॒ पूर्वा॑सु मरुतो॒ व्यु॑ष्टिषु । यो वा॑ नू॒नमु॒तास॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽभगः॑ । सः । वः॒ । ऊ॒तिषु॑ । आस॑ । पूर्वा॑सु । म॒रु॒तः॒ । विऽउ॑ष्टिषु । यः । वा॒ । नू॒नम् । उ॒त । अस॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुभग: स व ऊतिष्वास पूर्वासु मरुतो व्युष्टिषु । यो वा नूनमुतासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽभगः । सः । वः । ऊतिषु । आस । पूर्वासु । मरुतः । विऽउष्टिषु । यः । वा । नूनम् । उत । असति ॥ ८.२०.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मरुतः) हे मरुतः ! (सः) स जनः (वः, ऊतिषु) युष्माकं रक्षासु सतीषु (सुभगः, आस) सुभगो भवति यो वः (पूर्वासु, व्युष्टिषु) प्रथमविवासदिनेषु परिचरति (यः, वा) अथवा यः (नूनम्, उत, असति) निश्चयं युष्मच्छरणो भवति ॥१५॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे मरुतः=हे सेनागणाः । वः=युष्माकम् । ऊतिषु=रक्षासु मध्ये । यो जनः । आस=वर्तते । सः । सुभगः=शोभनधनो भवति । कदा । पूर्वासु+व्युष्टिषु=विवासितेषु अतीतेषु यद्वा पूर्वासु आगामिनीषु दिवसेषु । उत=अपि च । वा+नूनम्=निश्चयेन युष्माकं योजना । असति=भवति । स जनः सुखेषु तिष्ठति । सेनाभिः सुरक्षिते देशे सर्व एव जनः सुखेन तिष्ठति । अतएव लोभेन वा कामेन वा क्रोधेन वा अपमानादिना वा प्रेरिता सत्यः सेनाः कदापि प्रजोपद्रवं न कुर्युः । किन्तु प्रेम्णा प्रजाः पालयेयुः ॥१५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मरुतः) हे योद्धाओ ! (सः) वह मनुष्य (वः, ऊतिषु) आपकी रक्षा से युक्त होकर (सुभगः, आस) सुन्दरभाग्यवाला होता है जो आपके (पूर्वासु, व्युष्टिषु) प्रथम प्रवास में अपने गृह में आने पर सत्कार करता है (यः, वा) अथवा जो (नूनम्, उत) निश्चय ही (असति) आपका शरणागत होकर रहता है ॥१५॥

    भावार्थ

    जो प्रजाजन उपर्युक्त गुणसम्पन्न योद्धाओं को अपने घर बुलाकर उनका विविध पदार्थों से सत्कार करते और जो निश्चय ही उनके शरणागत होकर रहते हैं, वे सौभाग्यशाली होते हैं, या यों कहो कि जो प्रजावर्ग उक्त प्रकार के योद्धाओं को अपना रक्षक बनाते हैं, वे सदा सुखी रहते और निर्भय होकर ईश्वरीयधर्म का देश में प्रचार करते हैं ॥१५॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे सेनागण ! (वः) आप लोगों की (ऊतिषु) रक्षाओं में जो जन (आस) रहता है, (सः) वह जन (सुभगः) सदा धनसम्पन्न होता है । कब ? (पूर्वासु+व्युष्टिषु) अतीत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों में वह सुखी रहता है । (उत) और (वा+नूनम्) अवश्यमेव (यः) जो जन (असति) आपका होके रहता है, वह सदा सुखी होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥१५ ॥

    भावार्थ

    सेना से सुरक्षित देश में सभी जन सुख से रहते हैं । सेना को उचित है कि लोभ, काम, क्रोध और अपमानादि से प्रेरित होकर प्रजाओं में कोई उपद्रव न मचावे, किन्तु प्रेम से प्रजा की रक्षा करे ॥१५ ॥

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    विषय

    मरुतों अर्थात् वीरों, विद्वानों के कर्तव्य। वायु और जल लाने वाले वायु प्रवाहों के वर्णन।

    भावार्थ

    ( उत ) और ( यः वा ) जो भी मनुष्य हे ( मरुतः ) वीरो, विद्वानो ! ( नूनम् ) अवश्य ( पूर्वासु व्युष्टिषु ) पूर्व अर्थात् प्रारम्भ के दिनों में वा ब्रह्मचर्य पालन के वयस में ( वः ऊतिषु ) आप लोगों की रक्षाओं में ( आस ) पहुंच जाता है, ( उत असति) वा निरन्तर रहता है ( सः सुभगः ) वह उत्तम ऐश्वर्य युक्त और सुखी, सौभाग्यवान् होता है। इत्यष्टात्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्राणसाधना व सुभगता

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतः) = शरीरस्थ प्राणो! जो मनुष्य (पूर्वासु व्युष्टिषु) = जीवन के प्रारम्भिक [व्युष्टि- Day-break] प्रात:कालों में, अर्थात् आयुष्य के प्रथम वर्षों में, (व:) = आपके (ऊतिषु) = रक्षणों में आस रहता है व वीर्य रक्षण द्वारा दीप्ति को प्राप्त करता है [अस दीप्तौ], (सः) = वह पुरुष (सुभगः) = उत्तम भाग्यवाला होता है। [२] (उत) = और (यः) = जो (वा) = निश्चय से (नूनम्) = अब भी जीवन के माध्यन्दिन सवन व तृतीय सवन में भी आपके रक्षणों में (असति) = रहता है, वह अतिशयेन सौभाग्यवान् होता है। प्राणसाधना ही तो वीर्य की ऊर्ध्वगति का कारण बनती है। इसी से मनुष्य सब सौभाग्यों का आश्रय स्थान होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जीवन के प्रातः काल में ही प्राणों की साधना करते हुए वीर्य की ऊर्ध्वगति के द्वारा जीवन में सौभाग्य सम्पन्न बनें। जीवन के मध्याह्न व सायंकाल में भी यह प्राणसाधना व वीर्यरक्षण का हेतु बने ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Fortunate is that man, and prospers, O Maruts, who has been under your care and protection since early dawns and who for sure remains under your care for now and all time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सेनेद्वारे सुरक्षित असलेल्या देशात सर्वजण सुखाने राहतात. सेनेने लोभ, काम, क्रोध व अपमान इत्यादीनी प्रेरित होऊन प्रजेमध्ये उपद्रव करता कामा नये, तर प्रेमाने प्रजेचे रक्षण करावे. ॥१५॥

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