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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 22
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मर्त॑श्चिद्वो नृतवो रुक्मवक्षस॒ उप॑ भ्रातृ॒त्वमाय॑ति । अधि॑ नो गात मरुत॒: सदा॒ हि व॑ आपि॒त्वमस्ति॒ निध्रु॑वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मर्तः॑ । चि॒त् । वः॒ । नृ॒त॒वः॒ । रु॒क्म॒ऽव॒क्ष॒सः॒ । उप॑ । भ्रा॒तृ॒ऽत्वम् । आ । अ॒य॒ति॒ । अधि॑ । नः॒ । गा॒त॒ । म॒रु॒तः॒ । सदा॑ । हि । वः॒ । आ॒पि॒ऽत्वम् । अस्ति॑ । निऽध्रु॑वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मर्तश्चिद्वो नृतवो रुक्मवक्षस उप भ्रातृत्वमायति । अधि नो गात मरुत: सदा हि व आपित्वमस्ति निध्रुवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मर्तः । चित् । वः । नृतवः । रुक्मऽवक्षसः । उप । भ्रातृऽत्वम् । आ । अयति । अधि । नः । गात । मरुतः । सदा । हि । वः । आपिऽत्वम् । अस्ति । निऽध्रुवि ॥ ८.२०.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 22
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (नृतवः) हे अश्वानां नर्तकाः (रुक्मवक्षसः) सुवर्णभूषितहृदयाः ! (मर्तः, चित्) साधारणजनोऽपि (वः) युष्माकम् (उपभ्रातृत्वम्) सखित्वम् (आयति) आगच्छति (मरुतः) हे वीराः ! (नः) अस्मान् (सदा, हि) शश्वद्धि (उपगात) प्रशस्यान् कुरुत (वः, आपित्वम्) युष्माकं मैत्री (निध्रुवि, अस्ति) दृढे कर्मणि भवति ॥२२॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे नृतवः प्रजायां रक्षणे नृत्यन्तः ! हे रुक्मवक्षसः=रुक्मानि=आरोचमानानि सुवर्णमयानि भूषणानि वक्षःसु येषां ते ! मर्तश्चित्=साधारणमनुष्योऽपि । वः=युष्माकम् । भ्रातृत्वम् । उपायति=प्राप्नोति । अतः हे मरुतः ! नोऽस्मान् । अधिगात−यथोचितमुपदिशत । हि=यतः । वः=युष्माकम् । आपित्वम् । निध्रुवि=निश्चलमस्ति ॥२२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (नृतवः) हे अश्वों को नचानेवाले (रुक्मवक्षसः) सुवर्ण से भूषित हृदयवाले वीरो ! (मर्तः, चित्) साधारण मनुष्य भी (वः) आपके (उपभ्रातृत्वम्) मैत्रीभाव को (आयति) प्राप्त होता है, इससे (मरुतः) हे शत्रुनाशक वीरो ! (नः) हमको (सदा, हि) आप सदैव ही (उपगात) प्रशंसनीय बनावें (वः, आपित्वम्) क्योंकि आपका सम्बन्ध (निध्रुवि, अस्ति) अत्यन्त दृढ़ कार्य में होता है अर्थात् अपने कार्य को दृढ़ करनेवाला आपसे सम्बन्ध करता है ॥२२॥

    भावार्थ

    हे शूरवीरो योद्धाओ ! आप शत्रुनाशक तथा साधारण पुरुषों से भी मित्रता करनेवाले हैं, आपके आश्रित सब मनुष्य अपने स्व-२ कार्य्यों को पूर्ण करते हैं, या यों कहो कि सुवर्ण से विभूषित वीरों की मैत्री पुरुष को तेजस्वी बनाती है और सुवर्ण के आभूषण धारण करना उन्हीं वीरों को देदीप्यमान करता है, भीरु तथा कायर पुरुषों का ग्रीवास्थ सुवर्ण भी एक प्रकार का भार ही होता है ॥२२॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (नृतवः) हे प्रजाओं की रक्षा करने में नाचनेवाले (रुक्मवक्षसः) हे सुवर्णभूषणभूषित वक्षस्थल सैन्यजनों ! (मर्तः+चित्) साधारण जन भी (वः) आपके साथ (भ्रातृत्वम्+उप+आयति) भ्रातृत्व प्राप्त करते हैं, इस कारण (नः) हम प्रजाओं को (अधि+गात) अच्छे प्रकार यथोचित उपदेश देवें । (मरुतः) हे मरुद्गण (हि) जिस कारण (वः) आपका (आपित्वम्) बन्धुत्व (सदा) सदा (निध्रुवि+अस्ति) निश्चल है ॥२२ ॥

    भावार्थ

    सैनिकजन सर्वप्रिय होवें और यथोचित कर्त्तव्य लोगों को समझाया करें ॥२२ ॥

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    विषय

    उत्तम अध्यक्ष मरुद्-गण।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) शत्रुओं को मारने वा वायुवत् प्रबल होकर शत्रु को उखाड़ फेकने में समर्थ वीर पुरुषो ! एवं ( मरुतः ) प्राण के अभ्यासी, ज्ञानी पुरुषो ! हे ( नृतवः ) उत्तम मार्ग में लेजाने वाले नायक जनो ! वा युद्ध क्षेत्र में कर चरणादि सञ्चालन करके नाचने की सी क्रिया करने वाले ! हे (रुक्म-वक्षसः) वक्षः-स्थल पर सुवर्ण के हार आदि आभूषण धारण करने वाले वीर पुरुषो ! ( मर्तः चित् ) साधारण मनुष्य भी ( वः भ्रातृत्वम् उप आयति ) आप लोगों के भ्रातृत्व को प्राप्त करता है। और ( हि ) क्योंकि ( वः ) आप लोगों का भी ( आपित्वम् ) परस्पर-बन्धुत्व ( निध्रुवि ) नित्य ध्रुव राजा के अधीन, वा नियम से धारणीय राष्ट्र में ( अस्ति ) है अतः आप लोग ( नः ) हम लोगों पर ( अधि गात ) अध्यक्ष होकर शासन करो। इसी प्रकार विद्वान् ( रुक्म-वक्षसः ) रुचियुक्त तेजोमय आत्मज्ञान को धारण करने से 'रुक्म-वक्षस्' है उनका नित्य ध्रुव परमात्मा में बन्धुत्व भाव है। वे हमें सदा उपदेश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    नृतव:-रुरुक्मवक्षसः

    पदार्थ

    [१] हे (रुक्मवक्षसः) = बाहुवों पर स्वर्ण के पदकों को धारण करनेवाले, वीरता के सूचक पदकों से युक्त भुजाओंवाले, (नृतवः) = रणांगण में नृत्य करनेवाले (मरुतः) = वीर सैनिको! (मर्तः चित्) = एक राष्ट्र का सामान्य मनुष्य भी (व:) = आपके (भ्रातृत्वम्) = भ्रातृत्व को (उपायति) = समीपता से प्राप्त होता है। आप एक सामान्य मनुष्य को भी रक्षित करने के लिये यत्नशील होते हो। [२] हे सैनिको ! (नः) = हमारे लिये (अधिगात) = आधिक्येन गतिवाले होवो । (वः) = आपका (आपित्वम्) = बन्धुत्व (हि) = ही सदा हमेशा (निध्रुवि) = राष्ट्र की ध्रुवता का कारण अस्ति है। आपका यह बन्धुत्व ही राष्ट्र का रक्षक होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र के सैनिक राष्ट्र के प्रत्येक पुरुष में भ्रातृत्व को अनुभव करते हैं। इन सैनिकों का यह मित्रभाव ही राष्ट्र का रक्षण करता है। ये राष्ट्र रक्षण के लिये रणांगण में नृत्य करनेवाले होते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Mortals too, O Maruts, singing and dancing celebrants of life wearing golden corselet on the chest, come to realise their kindred unity under your kind care and direction. Sing and speak to us over and above us since our brotherhood with you is always inviolable.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सैनिक सर्व प्रिय व्हावेत व त्यांनी यथोचित कर्तव्य लोकांना समजवावे. ॥२२॥

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