ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 19
यून॑ ऊ॒ षु नवि॑ष्ठया॒ वृष्ण॑: पाव॒काँ अ॒भि सो॑भरे गि॒रा । गाय॒ गा इ॑व॒ चर्कृ॑षत् ॥
स्वर सहित पद पाठयूनः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । नवि॑ष्ठया । वृष्णः॑ । पा॒व॒कान् । अ॒भि । सो॒भ॒रे॒ । गि॒रा । गाय॑ । गाःऽइ॑व । चर्कृ॑षत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यून ऊ षु नविष्ठया वृष्ण: पावकाँ अभि सोभरे गिरा । गाय गा इव चर्कृषत् ॥
स्वर रहित पद पाठयूनः । ऊँ इति । सु । नविष्ठया । वृष्णः । पावकान् । अभि । सोभरे । गिरा । गाय । गाःऽइव । चर्कृषत् ॥ ८.२०.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
सम्प्रति योद्धृस्वामिनं राजानं संबोध्य तेषां सत्क्रिया वर्ण्यते।
पदार्थः
(सोभरे) हे सुष्ठुप्रजाभरणशील, शत्रुहरणशील वा राजन् ! (यूनः) ये तरुणाः (उ) अथ (वृष्णः) बलिष्ठाः शस्त्रस्य वर्षका वा (पावकान्) अग्नय इव शत्रुनाशने त्वरकाः तान् (नविष्ठया, गिरा) नूतनया वाचा (सु) सुष्ठु (अभिगाय) अभिप्रशंस (चर्कृषत्) यथा अत्यन्तं कार्येषु सज्जयिता कश्चित् (गाः इव) बलीवर्दान् सत्कृत्य प्रशंसति अथवा चर्कृषत्=भृशं कार्यसंसक्तः कर्मयोगी इव=यथा गाः=इन्द्रियाणि सत्कृत्य स्तौति तद्वत् ॥१९॥
विषयः
पुनस्तस्यैव विषयस्यावृत्तिः ।
पदार्थः
चर्कृषत्=पुनः पुनः कृषन् कृषीवलः । गा इव=वृषभान् इव । हे सोभरे=शोभनभरणकर्त्तस्त्वम् । यूनः=तरुणान् । वृष्णः=वर्षिष्ठान् । पावकान्=तेजस्विनो मरुतः । नविष्ठ्या=अतिशयेन अभिनवया । गिरा=वाचा । ऊषु=शोभनमसि । अभिगाय=अभिष्टुहि । यथा कृषीवलो यूनोऽनडुहः प्रशंसति स्वकार्य्ये नियोजयति च तथैव सैनिकजनानपि इतरो जनः प्रशंसेत् नियोजयेच्च ॥१९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सब योद्धाओं के स्वामी राजा का सम्बोधन करके वीरसत्कार का उपदेश कथन करते हैं।
पदार्थ
(सोभरे) हे भलीभाँति प्रजा के पोषक अथवा शत्रु के हरनेवाले राजन् ! तुम (यूनः) जो तरुण हों (उ) और (वृष्णः) बलिष्ठ, शस्त्रों की वर्षा करनेवाले तथा (पावकान्) अग्निज्वाला के समान शत्रुसंहार में शीघ्रता करनेवाले हों, ऐसे योद्धाओं को (नविष्ठया, गिरा) नई नई वाणियों=शिक्षावाक्यों से (सु) भलीभाँति (अभिगाय) प्रशंसित बनाओ, जैसे (चर्कृषत्) अत्यन्त कर्मों में लगानेवाला मनुष्य (गा इव) तरुण वृषों को प्रशंसनीय बनाता है अथवा “चर्कृषत्”=अत्यन्त कर्मों में लगानेवाला कर्मयोगी “गा इव”=इन्द्रियों को प्रशंसनीय बनाता है ॥१९॥
भावार्थ
हे प्रजाओं का पालन-पोषण करनेवाले राजन् ! तुम तरुण तथा बलिष्ठ प्रजाजनों को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा द्वारा सुशिक्षित बनाओ। जैसे गोपालक तरुण वृषों को सुशिक्षित बनाकर कृषि आदि विविध कार्यों में लगाता और जैसे कर्मयोगी इन्द्रियों को वशीभूत करके अनेकविध कार्यों को सिद्ध करता है, इसी प्रकार राजा को उचित है कि वह संयमी पुरुषों की इन्द्रियों के समान अपने योद्धाओं को सुशिक्षित तथा युद्धकार्य्य में निपुण बनाकर उनका सदैव सत्कार करता रहे, ताकि वे शत्रुसमुदाय पर विजयप्राप्त करते हुए प्रजा को सुरक्षित रखें ॥१९॥
विषय
पुनः उसी विषय की आवृत्ति है ।
पदार्थ
(चर्कृषत्) किसान (गाः+इव) जैसे युवा बैलों की प्रशंसा करता और कार्य्य में लगाता तद्वत् (सोभरे) हे भरण-पोषण करनेवाले मनुष्य ! आप (यूनः) तरुण (वृष्णः) सुख पहुँचानेवाले (पावकान्) और तेजस्वी सैनिकजनों को (ऊषु) अच्छी रीति से (अभिगाय) आदर कीजिये और काम में लगाइये ॥१९ ॥
भावार्थ
गृहस्थजन क्षेत्रोपकारी बैल इत्यादिक साधनों को अच्छी तरह से पालते और काम में लगाते, वैसे ही प्रजाजन सेनाओं को पालें और काम में लगावें ॥१९ ॥
विषय
मरुतों अर्थात् वीरों, विद्वानों के कर्तव्य। वायु और जल लाने वाले वायु प्रवाहों के वर्णन।
भावार्थ
हे ( सोभरे ) उत्तम रीति से पालन पोषण करने हारे ! हे उत्तम ज्ञान प्रदान करने हारे गुरो ! विद्वन् ! जिस प्रकार ( चर्कृषत् ) खेती करने हारा ( गा-इव ) बैलों वा भूमियों को देखकर, वा ( वृष्णः अभि ) बरसते बादलों को देखकर, (गिरा) वाणी से उनकी ( गायति ) स्तुति करता है उसी प्रकार तू भी ( गाः इव चर्कृषत् ) शिष्यों को भूमियों के समान ज्ञान ग्रहण कराता हुआ ( वृष्णः ) वीर्यवान्, वलवान् ( पावकान् ) पवित्र आचार वाले तेजस्वी ( यूनः ) युवा पुरुषों के (अभि) प्रति ( नविष्ठया गिरा ) अति स्तुत्य वाणी से उन्हें (अभि गाय) अच्छी प्रकार उपदेश कर, उनके प्रति उत्तम आदरपूर्वक वचन कह और ज्ञान -बीजों का वपन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'युवा वृषा-पावक' प्राण
पदार्थ
[१] हे (सोभरे) = अपना उत्तम प्रकार से भरण करनेवाले ! तू (उ) = निश्चय से (यूनः) = बुराइयों को दूर करनेवाले और अच्छाइयों का मेल करनेवाले [यु मिश्रणामिश्रणयोः], इसी उद्देश्य से (वृष्णः) = शक्ति का शरीर में सेचन करनेवाले (पावकान्) = जीवनों को पवित्र करनेवाले प्राणों को (सुनविष्ठया) = अतिशयेन स्तुत्य (गिरा) = वाणी से अभिगाय स्तुत कर । प्राणों के महत्त्व का स्मरण कर । [२] उसी प्रकार तू प्राणों का गायन कर, (इव) = जैसे (चर्कृषत्) = खेती करता हुआ व्यक्ति [यूनः वृष्णः ] (गाः) = युवा शक्तिशाली बैलों का शंसन करता है। इन बैलों के द्वारा उसका खेती का कार्य सुचारुरूपेण चलता है, इसी प्रकार (युवा वृषा) = पावक प्राणों के द्वारा शरीर क्षेत्र का कार्य चला करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना के द्वारा प्राणों को शक्तिशाली बनायें। ये प्राण हमारे जीवनों से सब बुराइयों को दूर करके उन्हें पवित्र बनायेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
As a farmer yokes and exhorts his bulls while ploughing the land, so should you, O manager of the nation, appreciate and celebrate the youthful, virile, generous and purifying Maruts, exhorting them with exciting words of latest praise and commendation.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थ लोक जसे शेतीसाठी उपयोगी असणारे बैल इत्यादी साधनांचे चांगल्या प्रकारे पालन करतात व कामाला लावतात तसेच प्रजेने सेनेला पाळावे व कामाला लावावे. ॥१९॥
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