ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 24
याभि॒: सिन्धु॒मव॑थ॒ याभि॒स्तूर्व॑थ॒ याभि॑र्दश॒स्यथा॒ क्रिवि॑म् । मयो॑ नो भूतो॒तिभि॑र्मयोभुवः शि॒वाभि॑रसचद्विषः ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । सिन्धु॑म् । अव॑थ । याभिः॑ । तूर्व॑थ । याभिः॑ । द॒श॒स्यथ॑ । क्रिवि॑म् । मयः॑ । नः॒ । भू॒त॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । म॒यः॒ऽभु॒वः॒ । शि॒वाभिः॑ । अ॒स॒च॒ऽद्वि॒षः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभि: सिन्धुमवथ याभिस्तूर्वथ याभिर्दशस्यथा क्रिविम् । मयो नो भूतोतिभिर्मयोभुवः शिवाभिरसचद्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः । सिन्धुम् । अवथ । याभिः । तूर्वथ । याभिः । दशस्यथ । क्रिविम् । मयः । नः । भूत । ऊतिऽभिः । मयःऽभुवः । शिवाभिः । असचऽद्विषः ॥ ८.२०.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे वीराः ! (याभिः) याभी रक्षाभिः (सिन्धुम्, अवथ) समुद्रं रक्षया स्वायत्तीकुरुथ (याभिः, तूर्वथ) याभिश्च शत्रून् हिंस्थ (याभिः) याभिश्च (क्रिविम्) निर्जले कूपम् (दशस्यथा) निर्माय प्रयच्छथ (मयोभुवः) हे सुखस्य भावयितारः (असचद्विषः) असङ्गच्छमानवैरिणः ! (शिवाभिः, ऊतिभिः) ताभी रक्षाभिः कल्याणीभिः (नः) अस्मान् (मयः) सुखम् (भूत) प्रापयत ॥२४॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे मरुतः ! याभिः=ऊतिभिः । सिन्धुम्=समुद्रम् । अवथ=रक्षथ । याभिरूतिभिः । तूर्वथ=शत्रून् हिंस्थ । तुर्वी हिंसार्थः । याभिः । क्रिविम्=कूपम् । दशस्यथ=प्रयच्छथ । हे मयोभुवः=मयसः सुखस्य भावयितारः सुखप्रापकाः । हे असचद्विषः=अविद्यमानशत्रवः । यूयम् । शिवाभिरूतिभिः । नः=अस्माकम् । मयः=सुखम् । भूत=भावयत=उत्पादयत । यद्वा । भू प्राप्तौ । प्रापयत ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे वीरो ! आप (याभिः) जिन रक्षाओं से (सिन्धुम्, अवथ) समुद्र को सुरक्षित करके स्वाधीन करते हैं (याभिः, तूर्वथ) और जिनसे शत्रुओं का नाश करते हैं (याभिः) जिनसे निर्जल देशों में (क्रिविम्) कूप खनकर (दशस्यथा) अपनी प्रजा को देते हैं (मयोभुवः) हे सुख के उत्पादक (असचद्विषः) शत्रुओं से न मिलनेवाले ! (शिवाभिः, ऊतिभिः) उन्हीं कल्याणमय रक्षाओं द्वारा (नः) हमको (मयः) सुख (भूत) प्राप्त कराएँ ॥२४॥
भावार्थ
हे प्रजाओं के रक्षक शूरवीरो ! आप अपने उद्योग से समुद्रपर्य्यन्त सम्पूर्ण देश को स्वाधीन करते सुरक्षित करते और कुल्या=नहरें निकालकर तथा कूप खनकर देश को हरा-भरा करते हैं, जिससे प्रजाजन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें। ऐसे राष्ट्रपति चिरस्थायी होते और सम्पूर्ण प्रजावर्ग उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं ॥२४॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे सैनिकजनों ! (याभिः) जिन रक्षाओं और सहायताओं से आप (सिन्धुम्) समुद्र की (अवथ) रक्षा करते हैं, (याभिः) जिन उपायों से (तूर्वथ) शत्रुओं का संहार करते हैं, (याभिः) जिस सहायता से (क्रिविम्) कूप बना बनवाकर प्रजाओं को (दशस्यथ) देते हैं, (मयोभुवः) हे सुखदाता (असचद्विषः) हे शत्रुरहित मरुतो ! आप (शिवाभिः) उन कल्याणकारिणी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (नः) हमजनों को (मयः+भूत) सुख पहुँचावें ॥२४ ॥
भावार्थ
समुद्र में व्यापारिक जहाजों की रक्षा की बड़ी आवश्यकता होती है अतः वेद भगवान् कहते हैं कि समुद्र की भी रक्षा करना सैनिक धर्म है । तथा कूप में सदा जल विद्यमान रहे और उसमें शत्रुगण विषादि घातक पदार्थ न मिला सकें, अतः कूपों की रक्षा का विधान है ॥२४ ॥
विषय
उत्तम अध्यक्ष मरुद्-गण।
भावार्थ
जिस प्रकार वायुगण वा प्राणगण ( सिन्धुम् अवन्ति ) अन्तरिक्ष, प्राण वा देह में रक्तप्रवाह की रक्षा करते, ( तूर्वन्ति ) रोग नाश करते, ( क्रिविं दशस्यन्ति ) कर्त्ता आत्मा को बल प्रदान करते, ( शिवाभिः ऊतिभिः मयोभुवः ) गतियों से नाना सुख प्रदान करते हैं। उसी प्रकार हे वीरो ! विद्वान् पुरुषों ! आप लोग ( याभिः ) जिन ( ऊतिभिः ) रक्षा साधनों से ( सिन्धुम् ) समुद्र के समान गंभीर सेनापति वा सैन्य समूह की ( अवथ ) रक्षा करते हो, और ( याभि: तूर्वथ ) जिन उपायों से शत्रुओं का नाश करते हो, और ( याभिः ) जिन उपायों से ( क्रिविं दशस्यथ ) कूप, जलाशय आदि प्रदान करते हो, उन ( शिवाभिः ऊतिभिः ) कल्याणकारी क्रियाओं से ( मयो-भुवः ) सुख उत्पन्न करने वाले आप लोग ( असचद्विषः ) समवाय रहित शत्रुओं वाले होकर ( नः मयः भूत ) हमारे लिये सुखकारी होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'ज्ञान-नीरोगता-शक्ति-शत्रुराहित्य'
पदार्थ
[१] हे प्राणो! आप (याभिः) = जिन (ऊतिभिः) = रक्षणों से (सिन्धुम्) = ज्ञान के समुद्रभूत आचार्य का (अवथ) = रक्षण करते हो [तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे] । (याभिः) = जिन रक्षणों से सब रोगकृमियों का (तूर्वथ) = हिंसन करते हो। (याभिः) = जिन रक्षणों से (क्रिविम्) = क्रियाशील पुरुष को (दशस्यथ) = सब शक्तियों को प्राप्त कराते हो [प्राणसाधना के द्वारा क्रियाशीलता का वर्धन होकर शक्ति की वृद्धि होती है] उन रक्षणों से (नः) = हमारे लिये (मयः) = कल्याण करें (भूत) = [भू प्राप्तौ प्रापयत ] प्राप्त कराओ। [२] हे प्राणो ! आप (मयोभुवः) = सब कल्याणों के प्राप्त करानेवाले हो। और (शिवाभिः) = [उतिभिः] कल्याणकर रक्षणों के द्वारा (असचद्विषः) = [असक्तद्विषः] शत्रुओं को हमारे से पृथक् करनेवाले हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से [क] ज्ञान की वृद्धि होती है, [ख] रोगरूप शत्रुओं का हिंसन होता है, [ग] क्रियाशीलता की वृद्धि होकर शक्ति की वृद्धि होती है, [घ] काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का हमारे साथ सम्बन्ध नहीं रहता ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O heroes of lands and seas and skies, free from hate, jealousy and enmity, bring us that tactic and policy and modes of defence and protection by which you guard the sea, repulse encroachment, and dig and construct tanks and wells and give them to people. O heroes of peace and well-being, be good and kind with safeguards of all type, safe guards and defences of auspicious and benevolent kind.
मराठी (1)
भावार्थ
समुद्रात व्यापारी जहाजांच्या रक्षणाचे कार्य अत्यंत आवश्यक आहे. त्यासाठी वेदभगवान म्हणतात की, समुद्राचे रक्षण करणे हा सैनिकांचा धर्म आहे. विहिरीत पाणी असते, त्यात शत्रूंनी विषारी द्रव्ये टाकू नयेत त्यासाठी विहिरींचे रक्षण करण्याचे विधान केलेले आहे. ॥२४॥
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