ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 14
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - आर्चीभुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तान्व॑न्दस्व म॒रुत॒स्ताँ उप॑ स्तुहि॒ तेषां॒ हि धुनी॑नाम् । अ॒राणां॒ न च॑र॒मस्तदे॑षां दा॒ना म॒ह्ना तदे॑षाम् ॥
स्वर सहित पद पाठतान् । व॒न्द॒स्व॒ । म॒रुतः॑ । तान् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । तेषा॑म् । हि । धुनी॑नाम् । अ॒राणा॑म् । न । च॒र॒मः । तत् । ए॒षा॒म् । दा॒ना । म॒ह्ना । तत् । ए॒षा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तान्वन्दस्व मरुतस्ताँ उप स्तुहि तेषां हि धुनीनाम् । अराणां न चरमस्तदेषां दाना मह्ना तदेषाम् ॥
स्वर रहित पद पाठतान् । वन्दस्व । मरुतः । तान् । उप । स्तुहि । तेषाम् । हि । धुनीनाम् । अराणाम् । न । चरमः । तत् । एषाम् । दाना । मह्ना । तत् । एषाम् ॥ ८.२०.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे प्रजाजन ! (तान्, मरुतः) ताञ्छूरान् (वन्दस्व) अभिवादय (तान्, उपस्तुहि) तानेव प्रशंस (हि) यतः (धुनीनाम्) कम्पयितॄणाम् (तेषाम्) तेषां मरुताम् (अराणाम्) स्वामिनाम् (चरमः, न) त्वं सेवक इवासि (तत्) तस्मात् (एषाम्, दाना) एषां दानानि (मह्वा) महत्त्वयुक्तानि (तदेषाम्) तदेषां दानानि महान्त्येव द्विरुक्तिरादरार्था आशयदृढीकरणार्था च ॥१४॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे प्रजागण ! तान् वन्दस्व । तान् मरुतः । उपस्तुहि । हि=यतः । तेषां धुनीनाम्=दुष्टकम्पयितॄणाम् । रक्षायां वयं स्मः । न=यथा । अराणाम्=श्रेष्ठपुरुषाणाम् । चरमः पुत्रादिः रक्षणीयो भवति । तदेषां मरुताम् । दाना=दानानि । मह्नः=महत्त्वेन युक्तानि सन्ति । तदेषामिति द्विरुक्तिरर्थगौरवात् ॥१४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे प्रजावर्ग ! (तान्, मरुतः) उन शूरों की (वन्दस्व) वन्दना कर (तान्, उपस्तुहि) उन्हीं की प्रशंसा कर (हि) क्योंकि (धुनीनाम्) शूर शत्रुओं को कंपानेवाले (तेषाम्, अराणाम्, मरुताम्) उन पालक वीरों का (चरमः, न) तू रक्षणीय दाससदृश है (तत्) जो (एषाम्, दाना) इन लोगों के दान (मह्वा) प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले हैं (तदेषाम्) जो इनके दान प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले हैं। मन्त्र में “तदेषां” पद दो बार आदरार्थ और आशय को दृढ़ करने के लिये आया है ॥१४॥
भावार्थ
सम्पूर्ण प्रजाजनों को उचित है कि वह प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले तथा अन्नादि भोग्यपदार्थों का दान देनेवाले योद्धाओं की वन्दना तथा स्तुति करें अर्थात् उनकी तन, मन, धन से सदैव सेवा करते रहें, जिससे वे प्रसन्न होकर अनुग्रहपूर्वक सब कामनाओं को पूर्ण करें ॥१४॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे प्रजागण (तान्+मरुतः) उन सैनिकजनों की (वन्दस्व) वन्दना करो (तान्) उनके (उप+स्तुति) समीप जाकर स्तुति करो (हि) क्योंकि (तेषाम्+धुनीनाम्) दुष्टों के कँपानेवाले उन मरुद्गणों की रक्षा में हम सब कोई वास करते हैं (न) जैसे (अराणाम्) श्रेष्ठ पुरुषों का (चरमः) पुत्रादि रक्षणीय होता है, तद्वत् हम लोग सैनिकजनों के रक्षणीय हैं, (तद्+एषाम्) इसलिये इनके (दाना) दान भी (मह्ना) महत्त्वयुक्त हैं । (तद्+एषाम्) इसलिये इनकी स्तुति आदि करनी चाहिये ॥१४ ॥
भावार्थ
अच्छी सेना की प्रशंसा करनी चाहिये ॥१४ ॥
विषय
मरुतों अर्थात् वीरों, विद्वानों के कर्तव्य। वायु और जल लाने वाले वायु प्रवाहों के वर्णन।
भावार्थ
हे प्रजाजन ! ( तान् मरुतः ) उन वायुवत् बलवान् और ज्ञानवान् पुरुषों को ( वन्दस्व ) आदर सत्कार कर। ( तानू उप स्तुहि ) उनकी स्तुति कर। ( तेषां हि ) उन शत्रुओं के ( धुनीनाम् ) कंपा देने वाले वा ( धुनीनां ) शास्त्र के उपदेष्टाओं और ( अराणां ) चक्र में लगे अरों, दण्डों के तुल्य व्यूह में बद्ध, अर्थात् गमन करने और औरों को आगे ले जाने वालों में से ( चरमः न ) कोई भी व्यक्ति चरम या अधम नहीं। ( एषां दाना तत् ) उनके दिये ज्ञान, दान ऐश्वर्यादि और उनके किये वे शत्रुनाश आदि नाना कार्य सब ( एषाम् मह्ना ) इनके ही महान् सामर्थ्यो से होते हैं। अथवा—( अराणां मह्ना चरमः न ) चक्र में लगे दण्डों से जिस प्रकार मार्ग में संचरण होता है उसी प्रकार ( तेषां हि धुनीनां ) उन शत्रुकम्पक, वा वेदोपदेशकों के (मह्ना) महान् सामर्थ्य से ( चरमः ) अन्तिम लक्ष्य प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सैनिकों का समादर
पदार्थ
[१] (तान मरुतः) = गत मन्त्र में वर्णित राष्ट्र रक्षक वीर सैनिकों का (वन्दस्व) = तू वन्दन कर। (तान् उपस्तु हि) = उनकी स्तुति कर, इनकी उचित प्रशंसा का हम गायन करें। (धुनीनां तेषां हि) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले उन सैनिकों में निश्चय से, (चरमः न) = कोई पिछला नहीं, एक से एक बढ़ करके हैं। (अराणां) [न] = जिस प्रकार चक्र में लगे दण्ड सब समान ही होते हैं, कोई पहला व कोई पिछला नहीं होता। इसी प्रकार ये सैनिक सब एक दूसरे से बढ़कर के हैं । [२] वस्तुतः राष्ट्र में जो भी उन्नति व शान्ति दिखती है, (तद्) = यह सब (एषां दाना) = इनके [दाप लवने] शत्रु - खण्डनात्मक कार्य के द्वारा ही होती है। यह राष्ट्र जो भी दिखता है, (तद्) = वह सब (एषाम्) = इनकी (मह्ना) = महिमा से ही दिखता है। राष्ट्र की सब उन्नति के मूल में ये राष्ट्र रक्षक मरुत् ही होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सैनिकों का वन्दन करें, इनकी उचित प्रशंसा करें। इन शत्रु-कम्पक सैनिकों में सब एक दूसरे से बढ़कर हैं। राष्ट्र की सब उन्नति के मूल में इनका ही शत्रु-खण्डनात्मक कार्य है, इनकी महिमा से राष्ट्र खड़ा है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Honour the Maruts, celebrate them all closely and fervently. As the spokes of the wheel are all equal, so all of these shakers of the evil and the wicked are equal, none is the highest, none the lowest. Hence also the gifts of protection and security of all of them are equally great.
मराठी (1)
भावार्थ
चांगल्या सेनेची प्रशंसा केली पाहिजे ॥१४॥
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