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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सिन्धुसमूहः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - पुष्टिकर्म सूक्त

    इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः। इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । हव॑म् । आ । या॒त॒ । मे॒ । इ॒ह । स॒मऽस्रा॒व॒णा॒: । उ॒त । इ॒म् । व॒र्ध॒य॒त॒ । गि॒र॒: ।इ॒ह । आ । ए॒तु॒ । सर्व॑: । य: । प॒शु: । अ॒स्मिन् । ति॒ष्ठ॒तु॒ । या । र॒यि: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव हवमा यात म इह संस्रावणा उतेमं वर्धयता गिरः। इहैतु सर्वो यः पशुरस्मिन्तिष्ठतु या रयिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । हवम् । आ । यात । मे । इह । समऽस्रावणा: । उत । इम् । वर्धयत । गिर: ।इह । आ । एतु । सर्व: । य: । पशु: । अस्मिन् । तिष्ठतु । या । रयि: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    हे व्यापारियो ! (इह एव) इस व्यापारिक स्थान में ही (मे हवम् ) मेरे आह्वान को उद्दिष्ट करके (आ यात) आओ। (इह) इस व्यापारिक स्थान में (संस्रावणाः) संस्राव्य-हवियां हैं, एकत्रित की गई हैं। (उत) तथा (गिरः) अपनी-अपनी वाणियाँ अर्थात् विचार ( इमम् ) इस व्यापारी का (वर्धयत) संवर्धन करें । (इह एतु) यहाँ आएँ (यः) जोकि सब पशु१ हैं [व्यापार कर्म में सहायक] (अस्मिन्) इस व्यापाराध्यक्ष में (तिष्ठतु) स्थित रहे (या) जोकि (रयिः) व्यापारिक सम्पत्ति है।

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