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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - सिन्धुसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पुष्टिकर्म सूक्त

    ये न॒दीनां॑ सं॒स्रव॒न्त्युत्सा॑सः॒ सद॒मक्षि॑ताः। तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । न॒दीना॑म् । स॒म्ऽस्रव॑न्ति । उत्सा॑स : । सद॑म् । अक्षि॑ता: ।तेर्भि॑: । मे॒ । सर्वै॑: । स॒म्ऽस्रा॒वै: । धन॑म् । सम् । स्रा॒व॒या॒म॒सि॒॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये नदीनां संस्रवन्त्युत्सासः सदमक्षिताः। तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्धनं सं स्रावयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । नदीनाम् । सम्ऽस्रवन्ति । उत्सास : । सदम् । अक्षिता: ।तेर्भि: । मे । सर्वै: । सम्ऽस्रावै: । धनम् । सम् । स्रावयामसि॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (नदीनाम्) नदियों के (ये ) जो (उत्सास:) उत्स (संस्रवन्ति) प्रवाहित होते हैं (सदम) सदा (अक्षिता:) न क्षीण हुए, (तेभि:) उन सब (संस्रावैः) प्रवाहो द्वारा (मे) मुझ व्यापाराध्यक्ष के (धनम् ) सम्पत्ति को (संस्रावयामसि) हम मिलकर प्रवाहित करते हैं। उत्सास:=नदियों के उद्गम स्थान अर्थात् स्रोत जहाँ से नदियों का उद्गम होता है।

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