अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमि॑वाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वा इ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि । अ॒ग्नि: । स॒म्ऽइधा॑ । जना॑नाम् । प्रति॑ । धे॒नुम्ऽइ॑व । आ॒ऽय॒तीम् । उ॒षस॑म् । य॒ह्वा:ऽइ॑व । प्र । व॒याम् । उ॒त्ऽजिहा॑ना: । प्र । भा॒नव॑: । सि॒स्र॒ते॒ । नाक॑म् । अच्छ॑ ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम्। यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठअबोधि । अग्नि: । सम्ऽइधा । जनानाम् । प्रति । धेनुम्ऽइव । आऽयतीम् । उषसम् । यह्वा:ऽइव । प्र । वयाम् । उत्ऽजिहाना: । प्र । भानव: । सिस्रते । नाकम् । अच्छ ॥२.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
भाषार्थ -
(धेनुम् इव) दुधार गौ की तरह (आयतीम्, उषासम्, प्रति) आती हुई उषा को लक्ष्य कर के (जनानाम्) जनों की (समिधा) समिधायों द्वारा (अग्निः) अग्नि (अबोधि) प्रबुद्ध हुई है। (भानवः) रश्मियां (नाकम्, अच्छ) नाक की ओर (सिस्रते) प्रसूत हुई हैं, फैली हैं, (इव) जैसे कि (यह्वाः) बड़े वृक्ष (वयाम्) शाखाओं को (प्र उज्जिहानाः) दूर तक ऊपर की ओर फैंकते हैं।
टिप्पणी -
[उषा के आगमन काल में जैसे अग्निहोत्र में अग्नि प्रबुद्ध होती है, वैसे उपासना में परमेश्वराग्नि के प्रबोधक का विधान मन्त्र में हुआ है। उपासना में समिधा के लिए कहा है "त्रिः सप्त समिधः कृताः" (यजु० ३१।१५)। त्रिः सप्त समिधाएँ= ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और अहंकार; ५ कर्मेन्द्रियां, मन और अहंकार; ५ तन्मात्राएँ, मन और अहंकार। ये तीन सप्तक हैं, जो कि उपासना में समिधाएं हैं। उपासना में इन तीन सप्तकों को परमेश्वरार्पित कर, परमेश्वर में चित्त गाड़ कर, परमेश्वराग्नि को उद्बुद्ध करना चाहिए। धेनुम् = दुधार गौ जब आती है तो उसे चारा भेंट किया जाता है, इसी प्रकार उषा के समय अग्निहोत्र की अग्नि को, तथा परमेश्वराग्नि को, यथोचित समिधाएं भेंट की जाती हैं। समर्पण या भेंट तो करनी होती हैं,-ज्ञानेन्द्रियां कर्मेंद्रियां और ५ तन्मात्राएँ परन्तु मन और अहंकार साथ न दें, तो इन तीन सप्तकों का समर्पण नहीं हो सकता। इसलिये तीन सप्तकों के साथ मन और अहंकार की गणना की है। समर्पण का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र द्वारा अधिक स्पष्ट होता हैं। यथा "यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा। यस्मै देवाः सदा बलिं प्रयच्छन्ति विमितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥" (अथर्व० १०।७।३९)। इस मन्त्र में “बलिं हरन्ति" द्वारा समर्पण का वर्णन हुआ है। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की निज शक्तियों का, स्कम्भ परमेश्वर के प्रति समर्पण का कथन हुआ है। हस्त-पाद-वाक्, कर्मेन्द्रियों के सूचक है, और श्रोत्र- चक्षुः ज्ञानेन्द्रियों के सूचक हैं]।