अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
सूक्त - आदित्य
देवता - द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्
छन्दः - ब्रह्मा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
अ॑संता॒पं मे॒हृद॑यमु॒र्वी गव्यू॑तिः समु॒द्रो अ॑स्मि॒ विध॑र्मणा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒म्ऽता॒पम् । मे॒ । हृद॑यम् । उ॒र्वी । गव्यू॑ति: । स॒मु॒द्र:। अ॒स्मि॒ । विऽध॑र्मणा ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
असंतापं मेहृदयमुर्वी गव्यूतिः समुद्रो अस्मि विधर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठअसम्ऽतापम् । मे । हृदयम् । उर्वी । गव्यूति: । समुद्र:। अस्मि । विऽधर्मणा ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
जीवन्मुक्तावस्था में (मे) मेरा (हृदयम्) हृदय, (असतापम्) शोक और विषय लालसा के संताप से रहित हो गया है, (गव्यूतिः१) मेरी गति (उर्वी) विस्तृत हो गई है, (विधर्मणा) विविध गुणों या प्रजा के धारण पोषण में (समुद्रः) समुद्र सदृश (अस्मि) मैं हो गया हूं।
टिप्पणी -
[१. गव्यूतिः= गवते गतिकर्मा+यूतिः (यू मिश्रणे); उर्वी गव्यूतिः मुझ में विस्तृत गति का मिश्रण अर्थात् सम्बन्ध हो गया है। अथवा गव्यूति का प्रसिद्ध अर्थ है एक कोस अर्थात दो मील। इस का लाक्षणिक अर्थ है लम्बा या विस्तृत मार्ग। अतः "उर्वी गव्यूतिः"=सम्भवतः जीवन का विस्तृत क्षेत्र।]