अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
इन्द्र॑स्य बा॒हू स्थवि॑रौ॒ वृषा॑णौ चि॒त्रा इ॒मा वृ॑ष॒भौ पा॑रयि॒ष्णू। तौ यो॑क्षे प्रथ॒मो योग॒ आग॑ते॒ याभ्यां॑ जि॒तमसु॑राणां॒ स्वर्यत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। बा॒हू इति॑। स्थवि॑रौ। वृषा॑णौ। चि॒त्रा। इ॒मा। वृ॒ष॒भौ। पा॒र॒यि॒ष्णू इति॑। तौ। यो॒क्षे॒। प्र॒थ॒मः। योगे॑। आऽग॑ते। याभ्या॑म्। जि॒तम्। असु॑राणाम्। स्वः᳡। यत् ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य बाहू स्थविरौ वृषाणौ चित्रा इमा वृषभौ पारयिष्णू। तौ योक्षे प्रथमो योग आगते याभ्यां जितमसुराणां स्वर्यत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य। बाहू इति। स्थविरौ। वृषाणौ। चित्रा। इमा। वृषभौ। पारयिष्णू इति। तौ। योक्षे। प्रथमः। योगे। आऽगते। याभ्याम्। जितम्। असुराणाम्। स्वः। यत् ॥१३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्रस्य) सेनापति की (बाहू) भुजाएँ (स्थविरौ) सुदृढ़, (वृषाणौ) शक्तिशाली, (चित्रा=चित्रौ) अद्भुत कार्य करनेवाली हैं, (इमा=इमौ) और ये (वृषभौ) अस्त्रों की वर्षा करती हुई चमकती हैं, (पारयिष्णू) तथा उपस्थित युद्ध को सफलतापूर्वक समाप्त कर देती हैं। (प्रथमः) राष्ट्र का मुखिया मैं राजा, (योगे आगते) अवसर आने पर (तौ) सेनापति की उन भुजाओं का (योक्षे) प्रयोग करता हूँ, (याभ्याम्) जिन भुजाओं द्वारा (असुराणाम्) स्वप्राणपोषणतत्पर शत्रुओं के (यत्) जो (स्वः) सुख तथा सुख-साधन हैं, (तत्) उन्हें (जितम्) जीत लिया जाता है।
टिप्पणी -
[इन्द्रः= इन्द्रञ्छत्रूणां दारयिता (निरु० १०.१.८)। पारयिष्णू= पार कर्मसमाप्तौ। असुराः=असुः प्राणः तद्वन्तः; “असुरिति प्राणनाम, अस्तः शरीरे भवति, तेन तद्वन्तः” (निरु० ३.२.८), अर्थात् जिनके जीवन का उद्देश्य स्वप्राणपोषणमात्र है। स्वः=सुख (यजुः० ३२.६) महर्षिभाष्य। वृषभौ=वृष (वर्षण)+भा।]