अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
सूक्त - अप्रतिरथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - एकवीर सूक्त
सं॒क्रन्द॑नेनानिमि॒षेण॑ जि॒ष्णुना॑ऽयो॒ध्येन॑ दुश्च्यव॒नेन॑ धृ॒ष्णुना॑। तदिन्द्रे॑ण जयत॒ तत्स॑हध्वं॒ युधो॑ नर॒ इषु॑हस्तेन॒ वृष्णा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽक्रन्द॑नेन। अ॒नि॒ऽमि॒षेण॑। जि॒ष्णुना॑। अ॒यो॒ध्येन॑। दुः॒ऽच्य॒व॒नेन॑। धृ॒ष्णुना॑। तत्। इन्द्रे॑ण। ज॒य॒त॒। तत्। स॒ह॒ध्व॒म्। युधः॑। न॒रः॒। इषु॑ऽहस्तेन। वृष्णा॑ ॥१३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
संक्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुनाऽयोध्येन दुश्च्यवनेन धृष्णुना। तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽक्रन्दनेन। अनिऽमिषेण। जिष्णुना। अयोध्येन। दुःऽच्यवनेन। धृष्णुना। तत्। इन्द्रेण। जयत। तत्। सहध्वम्। युधः। नरः। इषुऽहस्तेन। वृष्णा ॥१३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(संक्रन्दनेन) शत्रुओं को ललकारनेवाले, और रुलानेवाले, (अनिमिषेण) सदा जागरूक, (जिष्णुना) जयशील, (अयोध्येन) जिसके साथ युद्ध नहीं किया जा सकता अर्थात् अजेय, (दुश्च्यवनेन) युद्धभूमि में अटल, (धृष्णुना) दृढ़ उत्साही, (इषुहस्तेन) बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों को सदा अपने हाथ में रखनेवाले, (वृष्णा) अपनी प्रजा पर सुखों की, तथा परप्रजा पर अस्त्रों की वर्षा करनेवाले (इन्द्रेण) ऐश्वर्यशाली सेनापति के साथ (युधः नरः) हे नर-योद्धाओ! तुम (तत्) उस सेनाशत को (जयत) जीतो, और (तत्) शत्रु के प्रहारों को (सहध्वम्) सहो।
टिप्पणी -
[तत्=सेनाशतम् (मन्त्र २)।]