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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः, हिरण्यम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - हिरण्यधारण सूक्त
अ॒ग्नेः प्रजा॑तं॒ परि॒ यद्धिर॑ण्यम॒मृतं॑ द॒ध्रे अधि॒ मर्त्ये॑षु। य ए॑न॒द्वेद॒ स इदे॑नमर्हति ज॒रामृ॑त्युर्भवति॒ यो बि॒भर्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः। प्रऽजा॑तम्। परि॑। यत्। हिर॑ण्यम्। अ॒मृत॑म्। द॒ध्रे। अधि॑। मर्त्ये॑षु। यः। ए॒न॒त्। वेद॑। सः। इत्। ए॒न॒म्। अ॒र्ह॒ति॒। ज॒राऽमृ॑त्युः। भ॒व॒ति॒। यः। बि॒भर्ति॑ ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेः प्रजातं परि यद्धिरण्यममृतं दध्रे अधि मर्त्येषु। य एनद्वेद स इदेनमर्हति जरामृत्युर्भवति यो बिभर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नेः। प्रऽजातम्। परि। यत्। हिरण्यम्। अमृतम्। दध्रे। अधि। मर्त्येषु। यः। एनत्। वेद। सः। इत्। एनम्। अर्हति। जराऽमृत्युः। भवति। यः। बिभर्ति ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यत्) जो (हिरण्यम्) हितकर और रमणीय वीर्य-तत्त्व (अग्नेः परि) तपश्चर्या की अग्नि से (प्रजातम्) प्रकृष्टस्वरूप में प्रकट होता है, वह वीर्य-तत्त्व (मर्त्येषु अधि) मरणधर्मा मनुष्यों में (अमृतम्) अमृत परमेश्वर को (दध्रे) स्थापित करता है। (यः) जो कोई (एनत्) वीर्य-तत्त्व के इस स्वरूप को (वेद) जानता है, (सः इद्) वह ही (एनम्) इस अमृत परमेश्वर की प्राप्ति के (अर्हति) योग्य होता है। (यः) जो कोई (बिभर्ति) वीर्य-तत्त्व को धारण-पोषण करता है, वह (जरामृत्युः) बुढ़ापे पर मरनेवाला (भवति) हो जाता है।
टिप्पणी -
[हिरण्यम्= हितरमणं भवतीति वा हृदयरमणं भवतीति वा (निरु० २.३.१०)। हिरण्यम्= semen virile (आप्टे), अर्थात् पुरुष का वीर्य। अथर्व० १.३५वें सूक्त में हिरण्य के सम्बन्ध में कहा है कि हिरण्य “दाक्षायण” है, अर्थात् कर्मशक्ति और वृद्धि का अयन अर्थात् घर या मार्ग है, (दक्ष गतौ, वृद्धौ)। तथा “अपाम्” अर्थात् रक्त का तेज, ज्योति, ओज और बल है। आपः=रक्त (अथर्व० १०.२.११)। यथा—“कोऽस्मिन्नापो व्यदधात् विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः”। इस उद्धरण में ‘सिन्धु’ हृदय है। लोहिनीः= लोहयुक्त लाल खून, तथा ताम्रधूम्राः= नीला खून; तीव्राः= रक्त का तीव्र आस्वाद। तथा अथर्व० १.३५.३ में “हिरण्य” को वनस्पतियों का सार कहा है, यथा—“वनस्पतीनामुत१ वीर्याणि”।] [१. ओषधिभ्य अन्नं अन्नाद्रेतः (वीर्यम्)।]